उच्चतम न्यायालय ने माओवादियों से कथित संबंध के मामले में दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर जीएन साईबाबा और अन्य को बरी करने के बंबई उच्च न्यायालय के आदेश को यह कहते हुए शनिवार को निलंबित कर दिया कि इन्हें राहत देते वक्त मामले के गुण-दोष पर विचार नहीं किया गया।
शीर्ष अदालत ने शारीरिक अशक्तता तथा स्वास्थ्य स्थिति के कारण जेल से रिहा करने तथा घर में नजरबंद करने के साईबाबा के अनुरोध को खारिज कर दिया।
महाराष्ट्र सरकार ने इस अनुरोध का विरोध करते हुए कहा था कि आज कल ‘‘शहरी नक्सलियों’’ के घर में नजरबंद होने की मांग करने की नयी प्रवृत्ति पैदा हो गयी है।
न्यायालय ने, हालांकि इस मामले में साईबाबा को नये सिरे से जमानत याचिका दायर करने की अनुमति दे दी।
उच्च न्यायालय ने शुक्रवार को इस मामले में साईबाबा तथा अन्य को बरी कर दिया था।
उच्चतम न्यायालय की पीठ ने गैर-कामकाजी दिन (शनिवार को) इस मामले की सुनवाई की।
न्यायमूर्ति एम आर शाह और न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी की पीठ ने साईबाबा के इस अनुरोध को खारिज कर दिया कि उनकी शारीरिक अशक्तता और स्वास्थ्य स्थिति को देखते हुए उन्हें घर में नजरबंद किया जाए।
पीठ ने कहा, ‘‘हमारा यह मानना है कि यह दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 390 के तहत शक्ति के इस्तेमाल और उच्च न्यायालय के आदेश को निलंबित करने का उपयुक्त मामला है।’’
न्यायालय ने कहा, ‘‘हमारा दृढ़ विचार है कि उच्च न्यायालय का आक्षेपित निर्णय और आदेश निलंबित करने के योग्य है। संबंधित कारणों से उच्च न्यायालय के आक्षेपित निर्णय और आदेश को अगले आदेश तक निलंबित किया जाता है।’’
पीठ ने मामले में साईबाबा समेत सभी आरोपियों की जेल से रिहाई पर रोक लगा दी। बंबई उच्च न्यायालय की नागपुर पीठ ने उन्हें जेल से रिहा करने का आदेश दिया था।
उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ महाराष्ट्र सरकार की अपील पर साईबाबा एवं अन्य को नोटिस जारी किये तथा जवाब दाखिल करने को कहा, साथ ही इस मामले के सभी आरोपियों को जेल से रिहाई पर रोक लगा दी।
न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय के फैसले के संबंध में विस्तारपूर्वक समीक्षा करने की आवश्यकता है, क्योंकि उच्च न्यायालय ने दोषियों के खिलाफ लगे आरोप की गंभीरता समेत मामले के गुण-दोष पर गौर नहीं किया।
पीठ ने उच्च न्यायालय के 14 अक्टूबर के आदेश को निलंबित करते हुए कहा, ‘‘आरोपियों को सबूतों के गुण-दोष की विस्तृत विवेचना के बाद दोषी ठहराया गया था। अपराध बहुत गंभीर हैं, जो भारत के समाज, संप्रभुता एवं अखंडता के हितों के खिलाफ हैं। उच्च न्यायालय ने इन सभी पहलुओं पर गौर नहीं किया और यूएपीए के तहत अनुमति के आधार पर आदेश पारित किया।’’
साईबाबा की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता आर बसंत ने कहा कि उनका मुवक्किल पक्षाघात के साथ शारीरिक रूप से 90-95 फीसदी अक्षम है और पूरी तरह व्हीलचेयर पर निर्भर है।
बसंत ने कहा, ‘‘उनकी 23 साल की बेटी और पत्नी है। उनकी हड्डियां फेफड़ों तक फैल रही हैं, जिससे हालात और बिगड़ रहे हैं। इन पहलुओं पर गौर करते हुए कृपया उन्हें वापस जेल में मत भेजिए। कृपया उन्हें जेल से रिहा कीजिए और घर पर नजरबंद रखिए तथा वह अदालत द्वारा लगायी किसी भी शर्त का पालन करेंगे।’’
घर में नजरबंद करने का विरोध करते हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा, ‘‘‘आजकल शहरी नक्सलियों के घर पर नजरबंद होने की मांग करने प्रवृत्ति हो गयी है, लेकिन घर से सबकुछ किया जा सकता है। घर पर नजरबंदी विकल्प नहीं हो सकता।’’
इस पर बसंत ने कहा कि शीर्ष अदालत साईबाबा की फोन लाइन काटने का आदेश दे सकती है।
सुनवाई के दौरान मेहता ने कहा कि मामले में कुछ परेशान करने वाली बातें हैं और साईबाबा जम्मू कश्मीर में एक सशस्त्र अलगाववादी आंदोलन चलाने, देश के लोकतांत्रिक ताने-बाने के खिलाफ युद्ध छेड़ने और माओवादी कमांडर्स की बैठकों की व्यवस्था करने समेत विभिन्न गतिविधियों में शामिल थे।’’
मेहता ने कहा, ‘‘वह उनका मास्टरमाइंड था और उनकी विचारधारा को लागू करता था।’’
मेहता की इन दलीलों का उल्लेख करते हुए बसंत ने कहा कि साईबाबा का माओवादी विचारधारा के प्रति झुकाव हो सकता है, लेकिन वह निश्चित तौर पर उनका मास्टरमाइंड नहीं थे।
पीठ ने कहा, ‘‘हम इस मामले के परिप्रेक्ष्य में नहीं, बल्कि सामान्य बात कह रहे हैं कि दिमाग बहुत ही खतरनाक चीज है। आतंकवादियों या माओवादियों के लिए दिमाग ही सब कुछ है। सीधे तौर पर शामिल होना कोई जरूरी नहीं है।’’
पीठ ने अपील में शीर्ष अदालत द्वारा तय किए जाने के लिए तीन प्रश्न तैयार किए, जिनमें यह भी शामिल है कि क्या आरोपी साईबाबा को आरोप मुक्त करने में उच्च न्यायालय का फैसला न्यायोचित था, जिन्होंने गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत मुकदमा चलाने के लिए अनिवार्य मंजूरी की कमी का मुद्दा निचली अदालत में सुनवाई के दौरान कभी नहीं उठाया, बल्कि उन्होंने केवल उच्च न्यायालय में अपीलीय स्तर पर ऐसा किया।
न्यायमूर्ति त्रिवेदी ने कहा कि यह एक स्थापित कानून है कि निचली अदालत के दोषसिद्धि आदेश के निष्कर्षों को पलटे बिना अपीलीय अदालत द्वारा बरी करने का आदेश पारित नहीं किया जा सकता है।
उच्चतम न्यायालय ने मेहता की उस दलील को भी माना कि उच्च न्यायालय ने बरी करने का नहीं, बल्कि आरोपमुक्त करने का आदेश दिया और निचली अदालत के फैसले को नहीं पलटा।
बंबई उच्च न्यायालय ने माओवादियों से कथित जुड़ाव के मामले में डीयू के पूर्व प्रोफेसर साईबाबा को गिरफ्तारी के करीब आठ साल बाद शुक्रवार को बरी कर दिया था।
अदालत ने कहा कि गैर कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के प्रावधानों के तहत मामले में आरोपी के खिलाफ अभियोग चलाने की मंजूरी देने का आदेश ‘‘कानून की दृष्टि से गलत एवं अवैध’’ था।
अदालत ने साईबाबा के अलावा महेश करीमन तिर्की, पांडु पोरा नरोते (दोनों किसान), हेम केशवदत्त मिश्रा (छात्र), प्रशांत सांगलीकर (पत्रकार) और विजय तिर्की (मजदूर) को भी बरी कर दिया था। विजय तिर्की को 10 साल की जेल की सजा सुनायी गयी, जबकि बाकी लोगों को उम्रकैद की सजा दी गयी थी। नरोते की मौत हो गयी है।
साईबाबा (52) शारीरिक अक्षमता के कारण व्हीलचेयर की मदद लेते हैं। वह अभी नागपुर केंद्रीय कारागार में बंद है। उन्हें फरवरी 2014 में गिरफ्तार किया गया था।