पतियों का पत्नियों से मन भरने के पीछे छिपी वजहें - Punjab Kesari
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पतियों का पत्नियों से मन भरने के पीछे छिपी वजहें

क्यों पुरुष कई रिश्ते चाहते हैं और महिलाएं स्थायित्व? एक सच्चाई जो अनकही है

मानव व्यवहार में यौन संबंधों को लेकर जो अंतर पुरुष और महिलाओं में देखा जाता है, वह केवल आधुनिक समाज की उपज नहीं है। इसके पीछे सदियों पुरानी जैविक संरचना, मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियाँ और सांस्कृतिक मान्यताएं छिपी हुई हैं। खासकर भारतीय समाज में यह विषय एक अलग ही संदर्भ में देखा और समझा जाता है।

1. भारतीय संस्कृति और इतिहास में बहुपतित्व (Polygamy)

भारतीय इतिहास में भी बहुपतित्व को समाज ने एक समय तक स्वीकार किया। महाभारत और रामायण जैसे महाकाव्यों में कई राजाओं की एक से अधिक पत्नियाँ थीं। कृष्ण की 16,000 रानियाँ और दशरथ की तीन रानियाँ इसका उदाहरण हैं। ऐसे ऐतिहासिक दृष्टांत पुरुषों की बहुपत्नी रखने की प्रवृत्ति को सामाजिक रूप से स्वीकृति प्रदान करते थे, जबकि महिलाओं को “पतिव्रता” और “एकनिष्ठा” का प्रतीक बनाया गया। इस असंतुलन ने महिलाओं की इच्छाओं और अधिकारों को सदियों तक सीमित रखा।

2. भारतीय समाज में यौन शिक्षा और दबाव

भारत में आज भी यौन शिक्षा एक वर्जित विषय है। पुरुषों को किशोरावस्था से ही ‘मर्दानगी’ का पाठ पढ़ाया जाता है, जो कहीं न कहीं उन्हें यह विश्वास देता है कि ज्यादा महिलाओं को आकर्षित करना उनकी ताकत का प्रतीक है। वहीं लड़कियों को ‘संस्कार’, ‘मर्यादा’ और ‘चरित्र’ जैसे शब्दों की आड़ में अपने मनोभावों को दबाने की शिक्षा दी जाती है। इस सोच के कारण पुरुषों को संबंधों में अधिक स्वतंत्रता दी जाती है, जबकि महिलाओं को नैतिक सीमाओं में बांध दिया जाता है।

3. आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता का प्रभाव

भारत जैसे देश में जहां अब महिलाएं शिक्षित हो रही हैं, नौकरी कर रही हैं और आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो रही हैं, वहां उनकी सोच और प्राथमिकताएं भी बदल रही हैं। अब महिलाएं केवल संबंध में टिके रहने के लिए मजबूर नहीं होतीं। वे अपने आत्म-सम्मान, भावनात्मक ज़रूरतों और निजी विकल्पों को महत्व देने लगी हैं। फिर भी ग्रामीण क्षेत्रों या पारंपरिक परिवारों में आज भी पुरुषों के लिए एक से अधिक रिश्ते रखना सामान्य माना जाता है, जबकि महिला अगर अपने रिश्ते पर सवाल उठाए तो उसे बदचलन तक कह दिया जाता है।

4. मीडिया और फिल्मों की भूमिका

भारतीय फिल्मों में भी लंबे समय तक पुरुष नायकों को “रोमांटिक हीरो” के रूप में दिखाया गया जो एक साथ कई महिलाओं से आकर्षण रखते हैं — जैसे देव आनंद, राजेश खन्ना या सलमान खान जैसे किरदारों में। वहीं महिलाओं को अक्सर त्याग, सहनशीलता और समर्पण की मूरत के रूप में दिखाया गया। इसने आम दर्शकों के मन में यह भावना और मजबूत की कि पुरुषों का ऐसा व्यवहार सामान्य है और महिलाओं को सहना ही चाहिए।

पुरुषों की कई संबंधों की प्रवृत्ति और महिलाओं का एकनिष्ठता की ओर झुकाव केवल जैविक अंतर का परिणाम नहीं है, बल्कि यह सदियों की सोच, संस्कार, सामाजिक व्यवस्था और मानसिकता का मिश्रण है। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम रिश्तों को केवल लिंग आधारित नजर से न देखें, बल्कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता, सहमति और आत्मसम्मान के आधार पर समझें। हर पुरुष और हर महिला अलग है — उनके फैसले, इच्छाएं और सीमाएं भी अलग हो सकती हैं। समाज को अब रिश्तों की परिभाषा बदलनी होगी — जिसमें न तो पुरुष को वस्तु समझा जाए, न ही महिला को त्याग की देवी। बल्कि दोनों को इंसान माना जाए, जो बराबरी से सोच सकें, चाह सकें और अपने निर्णय खुद ले सकें।

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