नई दिल्ली : अजित वाडेकर भले ही मंसूर अली खान पटौदी की तरह नवाबी शख्सियत के मालिक नहीं रहे हो लेकिन मध्यमवर्गीय दृढता और व्यावहारिक सोच से उन्होंने भारतीय क्रिकेट के इतिहास के सबसे सुनहरे अध्यायों में से एक लिखा। वाडेकर ने ‘बंबई के बल्लेबाजों’ के तेवर को अपने उन्मुक्त खेल से जोड़ा जिसमें दमदार पूल और दर्शनीय हुक शाट शामिल थे।
उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि इंग्लैंड और वेस्टइंडीज में 1971 में सीरीज जीतना रही लेकिन उनका योगदान इससे कहीं अधिक रहा। कल मुंबई में आखिरी सांस लेने वाले वाडेकर ने 37 टेस्ट खेले और एक ही शतक जमाया लेकिन आंकड़े उनके हुनर की बानगी नहीं देते। दिवंगत विजय मर्चेंट ने जब उन्हें कप्तानी सौंपी तो किसी ने नहीं सोचा होगा कि वह इंग्लैंड और वेस्टइंडीज में सीरीज जीतकर इतिहास रच देंगे। उनके दौर में ही भारत में बिशन सिंह बेदी, भागवत चंद्रशेखर, ईरापल्ली प्रसन्ना और श्रीनिवासन वेंकटराघव की स्पिन चौकड़ी चरम पर थी।
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वेस्टइंडीज दौरे पर सुनील गावस्कर हीरो रहे तो इंग्लैंड में चंद्रशेखर चमके। वाडेकर उस दौर के थे जब शिक्षा को सबसे ज्यादा तरजीह दी जाती थी और यूनिवर्सिटी क्रिकेट से ही धाकड़ खिलाड़ी निकलते थे। वह इंजीनियर बनना चाहते थे लेकिन क्रिकेट के शौक ने उनकी राह बदल दी। मुंबई के पुराने खिलाड़ियों का कहना है कि एलफिंस्टन कालेज में वह बहुत अच्छे छात्र थे और कालेज मैच में 12वां खिलाड़ी रहने पर उन्हें तीन रूपये टिफिन भत्ता मिलता था। कालेज के प्रिंसिपल ने उन्हें क्रिकेट खेलने से मना किया क्योंकि वह विज्ञान के छात्र थे लेकिन होनी को कुछ और मंजूर था।