उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो, न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए- बशीर बद्र
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा, राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ, आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ- अहमद फ़राज़
दिल ना-उमीद तो नहीं नाकाम ही तो है, लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब, आज तुम याद बे-हिसाब आए- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
इश्क़ ने ‘ग़ालिब’ निकम्मा कर दिया, वर्ना हम भी आदमी थे काम के- मिर्ज़ा ग़ालिब
न जी भर के देखा न कुछ बात की, बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की- बशीर बद्र
माना कि तेरी दीद के क़ाबिल नहीं हूँ मैं, तू मेरा शौक़ देख मिरा इंतिज़ार देख- अल्लामा इक़बाल