तमाम उम्र इसी एहतियात में गुज़री
कि आशियाँ किसी शाख़-ए-चमन पे बार न हो
गर्मी से मुज़्तरिब था ज़माना ज़मीन पर
भुन जाता था जो गिरता था दाना ज़मीन पर
ख़ाक से है ख़ाक को उल्फ़त तड़पता हूँ ‘अनीस’
कर्बला के वास्ते मैं कर्बला मेरे लिए
करीम जो तुझे देना है बे-तलब दे दे
फ़क़ीर हूँ पर नहीं आदत-ए-सवाल मुझे
गुल-दस्ता-ए-मअनी को नए ढंग से बाँधूँ
इक फूल का मज़मूँ हो तो सौ रंग से बाँधूँ
मिसाल-ए-माही-ए-बे-आब मौज तड़पा की
हबाब फूट के रोए जो तुम नहा के चले
आशिक़ को देखते हैं दुपट्टे को तान कर
देते हैं हम को शर्बत-ए-दीदार छान कर
तमाम उम्र जो की हम से बे-रुख़ी सब ने
कफ़न में हम भी अज़ीज़ों से मुँह छुपा के चले
अश्क-ए-ग़म दीदा-ए-पुर-नम से सँभाले न गए
ये वो बच्चे हैं जो माँ बाप से पाले न गए
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