जो वो मिरे न रहे मैं भी कब किसी का रहा
बिछड़ के उनसे सलीक़ा न ज़िन्दगी का रहा
इन्साँ की ख़्वाहिशों की कोई इन्तिहा नहीं
दो गज़ ज़मीं भी चाहिए, दो गज़ कफ़न के बाद
मेरा बचपन भी साथ ले आया
गाँव से जब भी आ गया कोई
पाया भी उनको खो भी दिया चुप भी हो रहे
इक मुख़्तसर सी रात में सदियां गुज़र गईं
जो इक ख़ुदा नहीं मिलत तो इतना मातम क्यों
मुझे ख़ुद अपने क़दम का निशाँ नहीं मिलता
आज फिर टूटेंगी तेरे घर नाज़ुक खिड़कियां
आज फिर देखा गया दीवाना तेरे शहर में
दिल की नाज़ुक रगें टूटती हैं
याद इतना भी कोई न आए
ख़ार-ओ-ख़स तो उठें, रास्ता तो चले
मैं अगर थक गया, क़ाफ़िला तो चले