अजीब लुतम था नादानियों के आलम में
समझ में आई तो बातों का वो मज़ा भी गया
बताओ कौन सी बहार ले कर आया है जनवरी
मुझे तो दिसम्बर में भी साल नया सा लगता था
इकरार करने से पहले वाला प्यार
और पहली लड़ाई के बाद वाला प्यार
कभी वापस नहीं आता
एक हसरत थी की कभी वो भी हमें मनाये
पर ये कम्ब्ख़त दिल कभी उनसे रूठा ही नहीं
आईने से ज़्यादा तुझे देखूं
तुझे देखूं तो लगे जैसे आईना देखूं
तुम्हारी आँखों की ज़ुबान उर्दू ही है शायद
पढ़ने में मुझे दिक़्क़त है
और बयान ना करना तुम्हारी फ़ितरत है
तुम्हें देने के लिए हैं सिर्फ़ अल्फ़ाज़ मेरे पास
जो लिखे हैं मैंने कई ज़िंदगियां जी कर
तुम्हें भी अगर जी लूँ तो यह किताब मुकम्मल हो
सब उम्मीदों का भार है बस्ते में
मंज़िलों से बेहतर खुमार है रस्ते में
तेरी फ़ितरत है सूरज की
ना जाना तूने कभी मेरे अंधेरे को
रौशन रहता है यह शहर कुछ ख़ास तरीक़े से
यहाँ चिराग़ों से ज़्यादा दिल जलते हैं