भारत में, विशेष तौर पर उत्तर भारत में जहां भी कला या उद्योग संबंधी कार्य होता है वहां पर भगवान श्री विश्कर्मा जी का चित्र प्रायः देखने में आता है। भारतीय जनमानस में यह संभव ही नहीं है कि जब शिल्प या निर्माण की बात हो तो वहां भगवान श्री विश्वकर्मा जी का उल्लेख नहीं हो। किसी भी कला या सृजन के सुचारू और निर्दोष आकार को प्राप्त करने के लिए भगवान श्री विश्वकर्मा जी को आमंत्रित किया जाता है। स्पष्ट है कि श्री विश्वकर्मा पूजा जनकल्याणकारी है।
भगवान श्री विश्वकर्मा जी की पूजा से निर्माण और सृजन में कर्तव्यनिष्ठा का स्वतः बोध होता है। अतएव राष्ट्रीय उन्नति के प्रयोजन हेतु भी प्रत्येक भारतीय को, जो शिल्प, कला, तकनीकी या विज्ञान के कार्यों में सलंग्न है, उनको अवश्य ही भगवान श्री विश्वकर्मा जी की आराधना का लाभ लेना चाहिए। वर्तमान में भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने भगवान श्री विश्वकर्मा जी के नाम से कामगारों को अपना उद्योग स्थापित करने के लिए ‘‘प्रधानमंत्री विश्वकर्मा योजना’’ के अन्तर्गत धनराशि को प्रदान करने की योजना चलाई है। जिससे लोगों में कला और शिल्प के प्रति जागरूकता पैदा हो।
पौराणिक मतों में श्री विश्वकर्मा का उल्लेख
वैसे पूर्वकाल तक विद्वानों का मत रहा है कि सभी युगों में बहुत से विश्वकर्मा हुए हैं। जैसे प्रभास पुत्र श्री विश्वकर्मा, भुवनपुत्र श्री विश्वकर्मा और त्वष्ठापुत्र श्री विश्वकर्मा आदि अनेक विश्वकर्माओं का उल्लेख है। जब कि ऐसा नहीं है। अब लगभग विद्वान मानते हैं कि श्री विश्वकर्मा एक आदिशक्ति पुंज हैं। जो कि सभी युगों में सृजन के लिए देवताओं द्वारा आंमत्रित किये गये। भगवान श्री विश्वकर्माजी के जन्म के संबंध में पुराणों में यह श्लोक मिलता है-
बृहस्पते भगिनी भुवना ब्रह्मवादिनी।
प्रभासस्य तस्य भार्या बसूनामष्टमस्य च।
विश्वकर्मा सुतस्यशिल्पकर्ता प्रजापति।
(बृहस्पति की बहन भुवना जो ब्रह्मविद्या को जानने वाली थी, वह अष्टम् वसु महर्षि प्रभास की पत्नी बनी और उससे सम्पूर्ण शिल्पविद्या के ज्ञाता प्रजापति श्री विश्वकर्मा का जन्म हुआ)
इन्द्रप्रस्थ और द्वारिका के निर्माता थे श्री विश्वकर्मा
वैदिक साहित्य में चार युगों का उल्लेख आता है। सभी युगों में श्री विश्वकर्मा हुए हैं। सभी चारों युगों में भगवान श्री विश्वकर्मा जी ने बहुत से नगर और भवनों का निर्माण किया। उपनिषद और पुराणों में इन्द्रपुरी, वरूणपुरी, यमपुरी और सुदामापुरी जैसे जगतप्रसिद्ध नगरों के निर्माण का श्रैय भगवान श्री विश्वकर्मा जी को ही है। कालचक्र के आधार पर देखें तो सबसे पहले सत्युग में उन्होंने स्वर्गलोक का निर्माण किया। बाद में त्रेतायुग में कुबेरजी की सोने की लंका का निर्माण भी भगवान श्री विश्वकर्मा जी ने ही किया था। द्वापर युग में श्रीकृष्ण के लिए द्वारका का निर्माण किया। कलयुग के आरम्भ में भगवान श्री विश्वकर्माजी ने हस्तिनापुर और इन्द्रप्रस्थ का निर्माण किया था। इन्द्रप्रस्थ कला और आश्चर्य का एक बहुत नायाब उदाहरण था। इसके बारे में आप महाभारत में विस्तार से पढ़ सकते हैं।
क्या कहती हैं मान्यताएं?
अस्त्र-शस्त्रों में भगवान श्री शिव का त्रिशूल, श्रीधर्मराज का कालदण्ड, भगवान श्री नारायण के अत्यन्त तीव्रगामी सुदर्शन-चक्र, महर्षि दधिचि की हड्डियों से देवताओं के राजा इन्द्र के वज्र का सृजन भी श्री विश्वकर्मा जी के उन्नत तकनीकी ज्ञान से ही संभव हो पाया। वाद्ययंत्रों में मां शारदा की वीणा और श्री शिव के डमरू उल्लेखनीय है। इसके अलावा श्री विश्वकर्मा जी ने सुप्रसिद्ध पुष्पक विमान, श्री शिव के कमण्डल और महारथी कर्ण के कुण्डल आदि का निर्माण और चिकित्सा के क्षेत्र के अनेक यंत्रों का सृजन किया, ऐसा व्याख्यान पुराणों में वर्णित पाया जाता है। आप भगवान श्री विश्वकर्मा जी का शिल्प आज भी श्री जगन्नाथपुरी की मूर्तियों में देख सकते हैं। मान्यता है कि श्री विश्वकर्मा जी ने ही श्री जगन्नाथपुरी के मंदिर में स्थित विशाल मूर्तिर्यों का काष्ठ से निर्माण किया था। मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण, सुभद्रा और बलरामजी की दिव्य प्रतिमाएं हैं।
आधुनिक संदर्भों में श्री विश्वकर्मा जी का महत्व
निर्माण कार्य वैदिक काल से या उससे पहले से ही होते रहे हैं। सच्चे अर्थों में श्रीविश्वकर्मा जी निर्माण के देवता है। घर के निर्माण के आरम्भ में भी श्री विश्वकर्मा की पूजा से कार्य निर्बाध रूप से संपन्न हो जाता है। श्री विश्वकर्मा सभी संकटों और विपत्तियों को हरने वाले है। इसलिए जिस किसी कार्य में जोखिम होता है उन सभी को आरम्भ करने से पूर्व श्री विश्वकर्मा का मनाए जाने की पुरातन परम्परा चली आ रही है। इसलिए कल-कारखानों में श्री विश्वकर्मा का चित्र अवश्य होता है। आधुनिक मशीनों के सुसंचालन के लिए श्रीविश्वकर्मा जी की स्थापना की जाती है। माना जाता है कि मशीनों से दुर्घटनाओं को रोकने के लिए श्रीविश्वकर्मा जी की विशेष पूजा की जाती है। बिजनेस में श्रीवृद्धि के साथ ही यज्ञ और गृहप्रवेश जैसे मांगलिक कार्यों में श्रीविश्वकर्माजी की पूजा करने से कार्य संपादन में सुगमता आती है। निम्न श्लोक देखें –
विवाहदिषु यज्ञषु गृहारामविधायके।
सर्वकर्मसु संपूज्यो विश्वकर्मा इति श्रतुम।
इस वर्ष कब-कब हैं श्री विश्वकर्मा जयंती
श्री विश्वकर्मा जी की जन्म जयंती के संदर्भ में अनेक मत प्रचलन में हैं। जिसके कारण एक वर्ष में कई बार श्री विश्वकर्मा जयंती का आयोजन होता है। जैसे कन्या संक्रान्ति को विश्वकर्मा जयंती या पूजा का विधान समस्त भारतवर्ष में है। निरयन अयनांश के आधार पर यह तिथि प्रति वर्ष करीब 17 सितम्बर को आती है। इस दिन आद्योगिक क्षेत्रों में प्रायः अवकाश रखा जाता है। बड़े शहरों में श्रीविश्वकर्मा जी की पूजा के भव्य कार्यक्रम रखते हुए झांकियां निकाली जाती हैं। 17 सितम्बर को सभी कल-कारखानों, शिल्प संकायों और छोटे-बड़े सभी उद्योगों में भगवान श्री विश्वकर्मा जी के जन्म को श्रम दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह उत्सव वास्तव में शिल्प, कला और श्रम को सम्मान और समाज में उसका उचित स्थान दिलाने में एक जागरूकता का कार्य करता है।
स्थूल रूप से 17 सितम्बर को राजस्थान, पश्चिम बंगाल, असम, कर्नाटक, उड़ीसा, बिहार और झारखण्ड आदि में विशेष उत्सव का माहौल रहता है। लेकिन इस दिनांक के अलावा कुछ दूसरी तिथियों में भी विश्वकर्मा जयन्ती मनाए जाने का विधान है। यह जयन्ती भारतीय विक्रम संवत् पंचांग के आधार पर मनाई जाती है। जैसे शिलांग और पूर्वी बंगाल में श्री विश्वकर्मा जी का जन्मोत्सव भाद्रपद शुक्ला प्रतिपदा को मनाया जाता है। इस तिथि का उल्लेख महाभारत में भी प्राप्त होता है। इन क्षेत्रों में इसी दिन श्री विश्वकर्मा जी की खास पूजा-अर्चना की जाती है। इसके अलावा दीपावली के दूसरे दिन अन्नकूट अर्थात् जिस दिन गोवर्धन पूजा होती है, उस दिन भी भगवान श्री विश्वकर्मा जी की पूजा का विधान है। वैसे समस्त उत्तर भारत में माघ शुक्ला त्रयोदशी को भगवान श्री विश्वकर्मा जी का जन्मोत्सव मनाने की परंपरा भी आदिकाल से चलन में है। अंग्रेजी वर्ष 2025 में श्री माघ शुक्ल पक्ष त्रयोदशी तिथि 10 फरवरी 2025, सोमवार को सायं 6 बजकर 57 मिनट तक है। इसलिए इसी दिन श्री विश्वकर्मा जयंती को मनाया जाना शास्त्रोक्त है।