भारत के मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग चलाने को लेकर राज्यसभा के विपक्षी सांसदों ने जो संकल्प प्रपत्र इस सदन के सभापति श्री वैंकय्या नायडू को दिया है उसे लेकर देश के बड़े से बड़े न्यायविद और कानूनी जानकारों से लेकर सामान्य नागरिक तक में कौतूहल बन गया है। यह कौतूहल ही भारत के लोकतन्त्र के शक्तिशाली और जीवन्त होने का पक्का प्रमाण है।
यह इसलिए नहीं है कि स्वतन्त्र भारत में एेसा पहली बार हो रहा है कि मुख्य न्यायाधीश को भी पद से हटाने की प्रक्रिया शुरू करने के प्रयास हो रहे हैं बल्कि इसका असली कारण यह है कि हमारे संविधान में यह व्यवस्था समाहित है कि मुख्य न्यायाधीश के पद पर बैठे उस व्यक्ति को भी संविधान ने निरंकुश बनने की छूट नहीं दी है जिसकी व्याख्या वह स्वयं करता है औऱ इस मामले में उसका कहा गया शब्द अन्तिम माना जाता है।
जवाबदेही का यह सिद्धान्त हमारे लोकतन्त्र की प्राण वायु है जिसकी बदौलत आम लोगों द्वारा एक वोट के अधिकार का प्रयोग करके बनी सरकार अपना काम करती है। जो लोग यह आशंका व्यक्त कर रहे हैं कि राज्यसभा में यदि मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के विरुद्ध महाभियोग का संकल्प सभापति नायडू स्वीकार कर लेते हैं तो न्यायपालिका की बहुत तौहीन होगी और आम जनता का इसमें विश्वास डगमगाने लगेगा,
पूरी तरह आसमान में बिजली कड़कने से खलिहान के जल जाने की आशंका से नाहक परेशान हो रहे हैं जबकि इस प्रक्रिया से गुजर कर हमारी न्यायपालिका की प्रतिष्ठा पूरी दुनिया में और भी मजबूत होगी औऱ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यह सन्देश जायेगा कि भारत एेसा लोकतन्त्र है जहां खुद न्याय देने वाले को भी कानून की तराजू पर तुलना पड़ सकता है।
सबसे महत्वपूर्ण और प्रासंगिक पक्ष यह है कि उच्च न्यायपालिका की नीयत पर सन्देह करने का अधिकार सरकार या हुकूमत के किसी भी अंग के पास नहीं है, यह अधिकार संविधान में केवल भारत के मतदाताओं के चुने हुए प्रतिनिधियों को दिया गया है। राज्यसभा के पचास और लोकसभा के एक सौ सांसद यह मांग अपने–अपने सदन में कर सकते हैं मगर उनका सम्बन्ध सत्ताधारी दल से नहीं होना चाहिए।
भारतीय लोकतन्त्र के चारों पायों विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका व चुनाव आयोग की स्वतन्त्र वैधानिक सत्ता के लिए हमारे संविधान निर्माताओं ने जिस कसीदाकारी के साथ कानूनों की बुनावट की है उसे देख कर ही तो दुनिया के विधी विशेषज्ञ दांतों तले अंगुली दबाते हैं।
दूसरे यह तथ्य बहुत गंभीर है कि जब पूरी राजनीति का स्तर लगातार गिर रहा है और इसमें अपराधियों को कानून के रास्ते से ही गवाह और सबूत के टेढ़े-मेढे़ और पेंचोखम भरे निशानों से निरपराध घोषित होने की खिड़कियां खुल रही हैं तो न्यायपालिका को अपनी विश्वसनीयता और न्यायप्रियता को बनाये रखने के लिए अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ सकता है।
एेसे संशय पूर्ण माहौल में यदि सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठ न्यायाधीश तीन महीने पहले मुख्य न्यायाधीश के कार्यकलाप के बारे में अंगुली उठाते हैं तो उसका संज्ञान स्वाभाविक तौर पर भारत जैसे लोकतन्त्र में लिया जायेगा। यह वह देश है जब 1974 में स्व. इदिरा गांधी ने तीन न्यायमूर्तियों की वरिष्ठता को लांघते हुए श्री अझित नाथ रे को सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश बना दिया था तो पूरे देश में कोहराम मच गया था।
न्यायपालिका के साथ छेड़छाड़ को इस देश के लोगों ने कभी स्वीकार नहीं किया है और न्यायपालिका ने भी कभी इस बात पर ध्यान नहीं दिया है कि किस राजनीतिक दल की सरकार सत्ता में है और उसके नेताओं की लोकप्रियता का क्या पैमाना है।
यदि एेसा होता तो सर्वोच्च न्यायालय 1969 में स्व. प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा 14 निजी बैंकों के राष्ट्रीयकरण को क्यों अवैध घोषित करता और राजा-महाराजाओं के प्रिवीपर्स उन्मूलन को क्यों संविधान विरुद्ध बताता? मगर इंदिरा जी ने तब लोकसभा भंग करके चुनाव कराये और प्रचंड बहुमत लेकर संविधान संशोधन करके बैंकों के राष्ट्रीयकरण को वैधानिक बनाया और प्रिवीपर्स उन्मूलन को भी संविधान सम्मत बनाया।
इससे यहीं सिद्ध हुआ था कि संवैधानिक व्यवस्था का इन्दिरा जी की लोकप्रियता से कोई लेना–देना नहीं था। न्यायपालिका के लिए उनकी लोकप्रियता कोई मायने नहीं रखती थी। इसके बाद तो 1975 में न्यायपालिका ने ही उनके लोकसभा चुनाव को अवैध घोषित कर दिया था। मुख्य न्यायाधीश तो वह हस्ती होती है जो संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति को उनके पद की शपथ दिलाती है अतः आशंका के लिए रंचमात्र भी स्थान किस प्रकार हो सकता है।
मगर न्यायाधीशाें को पद से हटाने का संकल्प संसद में किसी संविधान संशोधन से कम नहीं होता है। इस संकल्प के पारित होने के वही नियम हैं जो किसी संविधान संशोधन विधेयक के लिए होते हैं। अतः दोनों ही सदनों में दो-तिहाई बहुमत की जरूरत इसके लिए आवश्यक है।
मगर इससे भी पहले राज्यसभा के सभापति या लोकसभा के अध्यक्ष की संकल्प को मंजूर या ना मंजूर करने की कठिन वैधानिक शर्तें हैं। यह व्यवस्था हमारे संविधान निर्माताओं ने गहन विचार–विमर्श के बाद ही बनाई थी। भारत के आम लोगों के हाथ में इतनी बड़ी ताकत देने वाले हमारे पुरखों ने लोकतन्त्र को जमीन से मजबूत बनाने की वैज्ञानिक प्रक्रिया अपनाई थी।