नागरिकता संशोधन विधेयक राज्यसभा में भी पारित हो गया है। राज्यसभा में चर्चा के दौरान केन्द्र सरकार ने पूर्वोत्तर के राज्यों को तमाम आश्वासन दिए लेकिन इसके बावजूद असम, मणिपुर, त्रिपुरा, मिजोरम, अरुणाचल, मेघालय उबल पड़े हैं। असम में छोटे-बड़े संगठनों से जुड़े लोग सड़कों पर उतर पड़े हैं। इनमें साहित्यकार, कलाकार, समाजसेवी, व्यापारी, छात्र समेत सभी वर्गों के लोग शामिल हैं। कई जगह आगजनी भी हुई और गुवाहाटी में तो स्थिति बेकाबू हो जाने पर कर्फ्यू लगाना पड़ा। स्थिति पर नियंत्रण पाने के लिए सेना को बुलाना पड़ा है।
नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध में बंद को पिछले दस वर्षों का नार्थ-ईस्ट का सबसे प्रभावी बंद माना गया है। लोग नागरिकता संशोधन बिल वापस लेने और ‘आरएसएस-भाजपा गो बैक’ के नारे लगा रहे हैं। 11 घंटे के बंद को देखकर 70-80 के दशक के हुए असम आंदोलन की याद ताजा हो गई। बंद का आह्वान भले ही उत्तर-पूर्व छात्र संघ ने किया था लेकिन यह बंद आम लोगों का आंदोलन बन गया। प्रदर्शनकारियों ने असम के मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल और कुछ अन्य मंत्रियों के घर पर प्रदर्शन किए, इस दौरान पथराव की घटनाएं भी हुईं। सवाल यह है कि पूर्वोत्तर के राज्य उबल क्यों रहे हैं?
नागरिकता संशोधन विधेयक पारित हो जाने के बाद पाकिस्तान, बंगलादेश और अफगानिस्तान से भारत आए गैर मुस्लिमों को आसानी से नागरिकता मिल सकेगी। पूर्वोत्तर राज्यों के मूल निवासियों को डर है कि इन लोगों को नागरिकता मिलने से उनकी पहचान और आजीविका खतरे में पड़ जाएगी। असम में नागरिकता संशोधन विधेयक का विरोध उसी दिन से शुरू हो गया था जब जनवरी 2019 में इस विधेयक को लोकसभा में पेश किया गया था, तब भाजपा सरकार के सांझीदार असम गण परिषद ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। तब लोकसभा का कार्यकाल पूरा होने के कारण विधेयक निरस्त हो गया था।
असम में स्थानीय बनाम बाहरी का मुद्दा दशकों से प्रभावी रहा है जिसके लिए 80 के दशक में चले असम आंदोलन के परिणामस्वरूप हालात बेकाबू हो गए थे। तब तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने आंदोलनकारी संगठनों से बातचीत कर असम समझौता किया था। असम समझौते में 24 मार्च, 1971 की तारीख को कट आफ माना गया था और तय किया गया था कि इस समय तक असम में आए हुए लोगों को ही यहां का नागरिक माना जाएगा। हाल ही में पूरी हुई एनआरसी की प्रक्रिया का मुख्य बिन्दु भी यही कट ऑफ तारीख है। इसके बाद राज्य में आए लोगों को विदेशी माना जाएगा।
नागरिकता विधेयक को लेकर विरोध भी इसी बिन्दु पर है क्योंकि विधेयक में 31 दिसम्बर, 2014 तक भारत में आए लोगों को नागरिकता देने की बात कही गई है। इसमें कोई संदेह नहीं कि असम और पूर्वोत्तर के राज्यों में अवैध बंगलादेशियों की घुसपैठ के चलते कई क्षेत्रों की जनसांख्यिकी में फेरबदल हो चुका है। असम के मूल निवासी अल्पसंख्यक हो गए हैं और घुसपैठिये बहुसंख्यक। मूल असमी नागरिकों का कहना है कि जब असम के लिए एक कट ऑफ तारीख तय है तो हिन्दू बंगलादेशियों को नागरिकता देने के लिए विधेयक क्यों लाया गया।
विधेयक को लेकर असम की ब्रह्मपुत्र और बराक घाटी के रहने वाले लोगों में भी मतभेद है। बंगाली प्रमुख वाली घाटी विधेेयक के पक्ष में दिखी। स्थानीय लोगों को डर है कि अब अन्य देशों के लोगों को यहां बसा कर मूल लोगोंं और उनकी भाषा को विलुप्त प्रायः बना दिया जाएगा, साथ ही उनकी आजीविका पर भी संकट खड़ा हो जाएगा। त्रिपुरा के कुछ भाग छठी अनुसूची के अन्तर्गत आते हैं लेकिन जनजातीय बहुल इस राज्य में भी नागरिकता संशोधन विधेयक का जोरदार विरोध हो रहा है। सबसे अधिक विरोध त्रिपुरा ट्राइबल ऑटोनॉमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल में हो रहा है। अलग तिप्रालैंड राज्य की मांग उठाई जा रही है। विराेध का आधार जनजातीय पहचान को होने वाला खतरा है।
कई जनजातीय संगठन भी विरोध पर उतर आए हैं। उनका मानना है कि इस विधेयक के पारित होने से सीमा पार से घुसपैठ और बढ़ जाएगी। त्रिपुरा पूर्वोत्तर का एकमात्र ऐसा राज्य है जहां बंगलादेश के गैर आदिवासियों की बड़ी आबादी आने के चलते आदिवासी आबादी अल्पसंख्यक हो गई है। मणिपुर और मिजोरम में भी लोगों में खौफ पैदा हो चुका है। इन्हें डर है कि इस विधेयक से बंगलादेश से अवैध रूप से आए चकमा बौद्धों को वैधता मिल जाएगी। नगालैंड और मेघालय में भी ऐसी ही आशंकाएं हैं, अरुणाचल और सिक्किम में भी विरोध हो रहा है।
पूर्वोत्तर के संगठनों का कहना है कि भाजपा यहां एक तीर से कई निशाने साध रही है। एक तरफ यहां अवैध रूप से रह रहे बंगलादेशियों के निर्वासन की बात कर असम में अपनी पकड़ मजबूत कर चुकी है। वहीं दूसरी ओर नागरिकता संशोधन विधेयक पारित करा कर हिन्दू वोट बैंक को मजबूत करना चाहती है। पूर्वोत्तर का मामला जटिल दिखाई देता है और अब केन्द्र सरकार पर पूर्वोत्तर में शांति स्थापना का दायित्व भी है। देखना होगा कि विरोध किस तरह शांत होता है।