भारत के पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर में पिछले ढाई महीने से जो तांडव चल रहा है उसकी असलियत एक वीडियो ने पूरी दुनिया के सामने इस तरह बेनकाब की है कि इस राज्य के शासन में कानून और संविधान की सत्ता के स्थान पर पूर्ण अराजकता और अपराधियों की सत्ता कायम है और इस राज्य का मुख्यमन्त्री इस सबके बावजूद शान से अपनी कुर्सी पर विराजा हुआ है। ऐसे मुख्यमन्त्री को एक क्षण के लिए भी अपने पद पर बने रहने का अधिकार नहीं है क्योंकि उसकी निगेहबानी में कानूनी शासन और संवैधानिक व्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई है। विगत 4 मई को राज्य की दो आदिवासी महिलाओं को नग्न करके सार्वजनिक रूप से कुछ लोगों की भीड़ ने घुमाया और फिर बाद में उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया उससे पूरी मानवता चीत्कार कर उठी है। मणिपुर में जिस तरह कुकी-जोमी जनजातियों की इन महिलाओं को राज्य की ही दूसरी जनजाति के लोगों ने जिस तरह अपनी पाशविकता और हैवानियत व हवस का शिकार बनाया उससे यही जाहिर होता है कि राज्य की एन. बीरेन सिंह सरकार पूरी तरह निकम्मी और नाकारा है जिसका कानून- व्यवस्था पर कोई नियन्त्रण नहीं है।
हद तो देखिये यह हुई कि मामले की रिपोर्ट पुलिस थाने में विगत 18 मई को ही कर दी गई मगर बीरेन सिंह तब तक आंख-कान पर पट्टी बांधे बैठे रहे जब तक कि इन महिलाओं की वीडियो प्रसारित नहीं हो गई। विगत 3 मई से मणिपुर में कोहराम मचा हुआ है और राज्य के निवासी एक-दूसरे के खून के प्यासे इस हद तक बने हुए हैं कि राज्य पुलिस में मैतेई और कुकी समुदाय के पुलिस के जवान भी आपस में एक-दूसरे पर यकीन नहीं कर रहे हैं। ऐसी कौन सी नफरत का जहर इन दोनों समुदायों के बीच बो दिया गया है जिसकी खेती रुक ही नहीं रही है। इस घटना से पूरा देश ही नहीं बल्कि संविधान का सर्वोच्च सिंहासन भी हिल उठा है और सर्वोच्च न्यायालय ने मामले का स्वतः संज्ञान लेते हुए सरकारों को चेतावनी दी है कि एेसी खुल्लमखुल्ला संविधान के परखच्चे उड़ाने वाली घटना बर्दाश्त नहीं की जा सकती और यदि सरकार कोई यथोचित कार्रवाई नहीं करती है तो सर्वोच्च न्यायालय को कार्रवाई करने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। देश के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी.वाई. चन्द्रचूड़ की यह चेतावनी बताती है कि हमने अपने लोकतन्त्र की क्या हालत कर दी है लेकिन देखिये दूसरी तरफ देश की सबसे ऊंची लोकतान्त्रिक संस्था संसद के दोनों सदनों में क्या हो रहा है।
सत्ता पक्ष कह रहा है कि मणिपुर के मामले पर अल्पकालिक चर्चा करा लो तो हम तैयार हैं मगर अगर विपक्ष इस मुद्दे पर काम रोको प्रस्ताव के तहत पूरी चर्चा चाहता है तो उस पर सहमति नहीं है। यह प्रश्न केवल तकनीकी नहीं है क्योंकि सवाल यह है कि मणिपुर का मामला कोई सामान्य कानूनी अवहेलना का मामला नहीं है बल्कि संविधान के शासन को ही समाप्त करके उद्दढ़ निरंकुशता स्थापित करने का मामला है। एेसे विषय पर संसद केवल आधे घंटे की चर्चा करके बहस की खानापूरी कर सकती है? संसद औपचारिकता पूरी करने की जगह नहीं है बल्कि लोगों की और देश की मूल समस्याओं से जूझने और उनका स्थायी हल ढूंढने की जगह है। क्या हम इतने संवेदनहीन हो चुके हैं कि महिलाओं को नग्न करके घुमाये जाने जैसे अपराध को भी सामान्य कानून-व्यवस्था का मुद्दा मान रहे हैं। संसद की कार्यवाही से सरकार का कोई लेना-देना नहीं होता। यह कार्य संसद के दोनों सदनों के सभापतियों को अपनी स्वतन्त्र हैसियत से करना पड़ता है। ऐसे मामले में किस प्रकार संसद में केवल खानापूर्ति के लिए बहस की रस्म अदायगी हो सकती है और पूरे मामले को राजनैतिक फुटबाल बनाया जा सकता है। समाजवादी चिन्तक डा. राममनोहर लोहिया ने बहुत पहले चेतावनी दी थी कि जिस सवाल पर देश उबल रहा हो अगर उस पर संसद गूंगी बनी रहती है तो सड़कें आवारा हो जाती हैं।
मणिपुर में आज जिस तरह कुकी-जोमी समुदाय के लोगों का सड़कों पर प्रदर्शन हो रहा है वह इस बात का प्रतीक है कि भारत का यह सीमा प्रान्त अपना धैर्य खोता जा रहा है। संसद में पूर्ण बहस होने से समस्या का कोई हल निकलेगा क्योंकि मणिपुर की समस्या के पीछे राजनीति तो हो सकती है मगर मानवता के पीछे कोई राजनीति नहीं होती। मणिपुर केन्द्रीय सशस्त्र बल से लेकर सेना भी तैनात है। इसका मतलब यही निकलता है कि राज्य की बीरेन सिंह सरकार पूरी तरह लोगों का विश्वास खो चुकी है। लोकतन्त्र में सरकारें कभी भी लाठी-डंडे या पुलिस के बूते पर नहीं चलती है बल्कि ‘इकबाल’ के बूते पर चलती हैं और जिस सरकार का इकबाल खत्म हो जाता है वह जनता का विश्वास खो देती है। मणिपुर जैसे पूर्वोत्तर राज्य भारत माता के माथे की शोभा है । इनका लहूलुहान स्वरूप पूरे भारत को भीतर से पीड़ा पहुंचाता है इसलिए संसद से लेकर सड़क तक मणिपुर में संविधान का शासन स्थापित करने के प्रयास होने चाहिए। इसके लिए बहुत जरूरी है कि संसद में सभी काम रोककर पूरी बहस कराई जाये जिससे मणिपुर की जनता को यह सन्देश जाये कि उनके इस दुख में पूरा भारत और इसका हर राजनैतिक दल शामिल है। दुख की घड़ियों में हमारे लोकतन्त्र की यह परंपरा रही है कि सभी राजनैतिक दल राजनीति छोड़ कर केवल लोगों की बात करते हैं। गांधी बाबा हमें यही पढ़ा कर गये हैं जिनके सिद्धान्तों को आज पूरी दिया अपना रही है।