विधानसभा चुनावों में इस बार मध्यप्रदेश में जिस तरह सीधे कांग्रेस व भाजपा में युद्ध इसके दो प्रादेशिक महारथियों के बीच हो रहा है उससे इसकी स्थिति अन्य राज्यों के मुकाबले अलग हो गई है। सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि पिछले 15 वर्षों से सत्ता पर काबिज भाजपा ने इस प्रदेश में अपनी चुनावी रणनीति पूर्णतः अलग रखी है और राज्य के मुख्यमन्त्री श्री शिवराज सिंह को कमोबेश अपने बूते पर ही कांग्रेस के महारथी श्री कमलनाथ से लोहा लेने के लिए छोड़ दिया है। उधर कांग्रेस ने श्री कमलनाथ को चुनावों से कुछ महीने पहले राज्य कांग्रेस का अध्यक्ष बनाकर स्पष्ट कर दिया था कि चुनावी मैदान में उनकी सर्वाधिकार सत्ता मध्यप्रदेश में भाजपा को अपनी रणनीति में फेरबदल करने के लिए इस प्रकार मजबूर करेगी कि चुनावों का केन्द्र प्रदेश के मुद्दे ही रहेंगे। इस काम में कमलनाथ पूरी तरह सफल होते दिखाई पड़ रहे हैं क्योंकि उन्होंने भाजपा के सर्वाधिक प्रिय हिन्दू कार्ड को चुनावों में जगह बनाने के लिए कोई स्थान इस प्रकार नहीं छोड़ा कि स्वयं भाजपा ही यह कहने को मजबूर हो गई कि कांग्रेस पार्टी उसकी सम्पत्ति को ही हथियाने की फिराक में आ गई है परन्तु भाजपा के लिए श्री कमलनाथ ने असली दिक्कत तब पेश कर दी जब उन्होंने राज्य की प्रशासनिक व सामाजिक और आर्थिक समस्याओं को मुख्य राजनीतिक एजेंडा बनाने में बढ़त प्राप्त कर ली और इस पर शिवराज सिंह को रक्षात्मक मुद्रा में खड़ा कर दिया। यही वजह रही कि चुनावी प्रचार के अन्तिम दौर में भाजपा ने बजाय राहुल गांधी को अपने निशाने पर लेने के सीधे कमलनाथ को लिया और उनकी एक तीन महीने पुरानी वीडियो को मुद्दा बना कर उन्हें मुसलमानों के वोट पाने की तकनीक भिड़ाने वाला राजनीतिज्ञ करार दे दिया।
मध्यप्रदेश में मुस्लिम जनसंख्या केवल सात प्रतिशत के आसपास है अतः भाजपा का डर मुस्लिम वोटों का गोलबन्द होना नहीं बल्कि उसके हिन्दू कार्ड का चर्चा में न आना ही हो सकता है लेकिन असलियत यह है कि मध्यप्रदेश के पूरे चुनावों में भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, बेरोजगारी, शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली, किसानों की दुर्दशा और गांवों की जर्जर हालत ही बने रहे। बाद में जिस तरह अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण का मुद्दा अचानक उभरा उससे भी जनजीवन से जुड़ी समस्याओं काे हाशिये पर नहीं फेंका जा सका परन्तु राज्य में कांग्रेस के लिए चुनौती जिस प्रकार उसके अपने ही घर के विरोधाभासों से खड़ी हुई, वह श्री शिवराज सिंह को लगातार ऊर्जा देने का काम करती रही और वह कमलनाथ द्वारा रखे गए एजेंडे को ढीला करने की कोशिश में लगे रहे। इनमें एक मुद्दा यह भी था कि कांग्रेस का मुख्यमन्त्री पद का प्रत्याशी कौन होगा? क्योंकि राज्य के ही मध्यभारत (ग्वालियर) प्रसंभाग के नेता माने जाने वाले पूर्व राजसी वंशज श्री ज्योतिरादित्य सिन्धिया को भी मध्यप्रदेश कांग्रेस का आंचलिक गुट मुख्यमन्त्री के रूप में देखने का इच्छुक माना जाता है जबकि दस साल तक कांग्रेसी मुख्यमन्त्री रहे श्री दिग्विजय सिंह का अपना अलग गुट बताया जाता है। अतः श्री कमलनाथ के लिए शिवराज सिंह जो चुनौती नहीं फैंक पा रहे थे वह चुनौती उन्हें अपने घर के भीतर से ही मिल रही थी। इस चुनौती का चरित्र चुनावी मैदान से बाहर इस तरह था कि कांग्रेसी ही कांग्रेस को हराने की जुगत में गोटियां बिछाने लगे।
बाहर मजबूत रहने की घर में मजबूत रहना पहली शर्त होती है अतः कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ को इस मोर्चे पर सबसे पहले विजयी होना था और बाद में शिवराज सिंह से दो-दो हाथ करने थे। उधर शिवराज सिंह की ताकत इस बात पर निर्भर करती थी कि घर में कमजोर कमलनाथ किस तरह जनता के एजैंडे को आगे बढ़ा पाएंगे और आम जनता को किस तरह यह पढ़ा पाएंगे कि कांग्रेस में किसी तरह का आन्तरिक बिखराव नहीं है। इस मोर्चे पर सफल होना श्री कमलनाथ के लिए बहुत जरूरी था क्योंकि इसका सम्बन्ध सीधे आम जनता से था जो शुरू से ही इस प्रकार के नारे लगा रही थी कि ‘हर-हर भोले नाथ–घर-घर कमलनाथ’ परन्तु अन्त में स्वयं भाजपा की ही जल्दबाजी ने श्री कमलनाथ का काम आसान कर दिया और पूरी कांग्रेस को एकजुट कर डाला। इसकी वजह वही वीडियो बना जिसमें वह अपने कांग्रेसी समर्थकों को ‘बूथ मैनेजमेंट’ की तकनीक समझाते हुए बता रहे हैं कि पारंपरिक रूप से कांग्रेस के समर्थक माने जाने वाले मतदाता क्षेत्रों में मतदान का प्रतिशत चुनावों में कम नहीं रहना चाहिए। जिस प्रकार इस वीडियो को विवादास्पद कहकर चर्चित किया गया उससे यह सन्देश स्वतः चला गया कि कांग्रेस पार्टी को इस बार बूथ मैनेजमेंट पर सर्वाधिक जोर देना चाहिए क्योंकि उसके समर्थक मतदाता मत डालने में आलस्य कर जाते हैं या उदासीन भाव अख्तियार कर लेते हैं। इसने कांग्रेस के भीतर के विभिन्न गुटों के नेताओं को भी एकजुट होकर काम करने की प्रेरणा दे डाली परन्तु इसका निष्कर्ष यह नहीं निकाला जा सकता कि चुनावों में किस पार्टी की विजय होगी क्योंकि भाजपा ने भी अंतिम समय में ही सही हिन्दू कार्ड को मतदाताओं के दिमाग में डालने का काम कर डाला है।
मगर देखने वाली बात यह होगी कि क्या इसका असर गांवों में भी होगा क्योंकि इन चुनावों में मध्यप्रदेश में शहर और गांवों के बीच का अन्तर साफ दिखाई पड़ रहा है। भाजपा इस राज्य की एेसी पार्टी है जिसकी जड़ें स्वतन्त्रता के बाद यहां सबसे ज्यादा मजबूत 1956 में राज्य पुनर्गठन होने के बाद हो गई थीं। इसकी वजह यह थी कि इससे पूर्व मध्यभारत राज्य में स्वामी करपात्री जी महाराज की ‘राम राज्य परिषद पार्टी’ काफी मजबूत थी और अधिसंख्य राजे-रजवाड़े इसका समर्थन करते थे। इस पार्टी के समाप्त होने पर इसका सारा जन-बल जनसंघ के पास ही चला आया था। अतः शिवराज सिंह को भाजपा के इस तन्त्र पर भरोसा है। इसी के भरोसे उनकी पार्टी पिछले तीन चुनावों में विजयी होती रही है मगर चुनावी फिजां बदलने में भी ज्यादा वक्त नहीं लगता है क्योंकि इस राज्य की 50 प्रतिशत जनता 25 वर्ष से कम आयु की है और जो भी नए मतदाता हैं उन्होंने शिवराज सिंह का ही शासन देखा है। 1999 में जन्मे लोग अब जायज मतदाता बन चुके हैं और वे माहौल को अपने अन्दाज से देख रहे हैं। उनके सामने मुख्य लड़ाई कमलनाथ और शिवराज सिंह के बीच है। वास्तव में यह लड़ाई दो दृष्टियों के बीच है, इसमें आश्चर्यजनक रूप से बीच में नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी नहीं हैं।