पंचायत पंचायत चुनावों में भी हिंसा! - Punjab Kesari
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पंचायत पंचायत चुनावों में भी हिंसा!

प. बंगाल में पंचायतों के चुनाव में ही जिस प्रकार की हिंसा हो रही है उससे इस राज्य

प. बंगाल में पंचायतों के चुनाव में ही जिस प्रकार की हिंसा हो रही है उससे इस राज्य के भीतरी राजनैतिक माहौल व सियासी कशीदगी का अन्दाजा आसानी से लगाया जा सकता है। यह राज्य वैचारिक मनीषियों व क्रान्तिकारियों का राज्य रहा है और इसकी बांग्ला संस्कृति की खुशबू पूरे भारत के लोगों को अपने सम्मोहन से बांधती रही है परन्तु आजादी के बाद जिस तरह यह राज्य वामपंथी विचारों खास कर मार्क्सवादी पार्टी की प्रयोगशाला बना उससे इस राज्य के औद्योगिक व वाणिज्यिक विकास पर विपरीत प्रभाव पड़ा और अंग्रेजों के जमाने के पूरे भारत के सबसे अग्रणी राज्य माने जाने वाले प. बंगाल की गिनती आज उद्योगों से वंचित राज्यों में होने लगी। बेशक कृषि के क्षेत्र में वामपंथी पार्टियों ने अपने 37 वर्ष के लम्बे शासनकाल में कई महत्वपूर्ण भूमि बदलाव किये परन्तु कहीं न कहीं हिंसा को भी राजनैतिक तन्त्र का हिस्सा बना डाला। 
2011 में जब तृणमूल कांग्रेस की नेता सुश्री ममता बनर्जी ने इस राज्य से वामपंथियों की सत्ता को ‘सूखे पत्ते की तरह राजनीति के पेड़’ से उखाड़ कर फेंका था तो अपेक्षा की जा रही थी कि वह वामपंथियों द्वारा पनपाई गई राजनैतिक हिंसक संस्कृति का भी ‘गांधीवादी’ स्वरूप में रूपान्तरण करेंगी मगर वह एेसा नहीं कर सकीं उल्टे उनकी पार्टी के लोगों ने ‘वामपंथी माडल’ का अनुसरण करना शुरू कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि धरातल पर लोकतान्त्रिक प्रशासनिक संस्थानों पर ‘पार्टी काडर’ का कब्जा करने के वामपंथी माडल का केवल नाम बदल गया। तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता अपनी पार्टी के झंडे तले वे ही सारे काम करने लगे जो वामपंथी संगठनों का ‘काडर’ किया करता था। भारत की बहुदलीय राजनैतिक प्रणाली में इस तरह के माडल की कोई गुंजाइश नहीं हो सकती थी क्योंकि इसके तहत प्रत्येक मतदाता स्वयंभू होता है। वह भारतीय संविधान का पालन करते हुए खुद के मिले अधिकारों का प्रयोग स्वतन्त्र होकर करता है। जब 2011 के विधानसभा चुनावों के दौरान पूरे प. बंगाल के गली-कूचों में यह नारा गूंजा था कि ‘ए बारी ममता-वामपंथ होवे ना’  तो उम्मीद बंधी थी कि प. बंगाल को हिंसा की राजनैतिक संस्कृति से निजात मिलेगी परन्तु परिणाम अपेक्षानुरूप नहीं आया और बाद में कई दूसरे कारणों से उसका चेहरा बेशक बदल गया मगर चरित्र वही रहा। 
यदि पंचायत जैसे प्रारम्भिक स्तर के चुनावों में ही कोलकोता से मात्र 30 कि. मी, दूर स्थित ‘भंगार’ इलाके में चुनावी हिंसा में दो व्यक्तियों की मृत्यु हो जाती है और जमकर आगजनी व बम बाजी होती है तो राज्य की ममता सरकार की प्रशासन पर कितनी पकड़ है इसका अनुमान लगाया जा सकता है। पंचायत चुनावों के लिए नामांकन पत्र भरने के दौर में ही हिंसा का जब यह आलम है तो मतदान तक पहुंचते-पहुंचते क्या खेल होगा, इस बारे में भी आसानी से सोचा जा सकता है। माना कि भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के बीच राज्य में पिछले सात साल से कांटे की लड़ाई चल रही है मगर जब इसके नेता सुवेन्दु अधिकारी द्वारा उच्च न्यायालय में हिंसा को लेकर याचिका दाखिल की जाती है तो न्यायालय को आदेश पारित करना पड़ता है कि चुनाव करीने से कराने के लिए राज्य सरकार को केन्द्र से सुरक्षा बल मंगा कर उनकी तैनाती करनी चाहिए। ममता दी जमीन की नेता हैं और उन्होंने यह रुतबा सड़कों पर संघर्ष करते हुए हांसिल किया है। अतः उन्हें यह बताने की कतई जरूरत नहीं है कि उच्च न्यायालय के इस आदेश के राजनैतिक मायने क्या निकलेंगे। उच्च न्यायालय में केवल भाजपा के नेता सुवेन्दु अधिकारी ही गये हों एेसा भी नहीं है कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी को भी यह रास्ता पकड़ना पड़ा। जब एक-दूसरे की कट्टर राजनैतिक दुश्मन कांग्रेस व भाजपा को ममता दी की सरकार के खिलाफ एक ही रास्ते पर आना पड़ता है तो निष्कर्ष यही निकलता है कि तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने पंचायत चुनावों में विपक्ष को कोई जगह न देने की रणनीति बना रखी है। प. बंगाल से तो लोकतन्त्र के शिलालेख इसके महान नेताओं द्वारा तैयार किये जाते रहे हैं। चाहे कांग्रेस नेता बिधान चन्द्र राय हों या पी.सी. सेन रहे हों, उन्होंने कभी भी अपने विरोधियों को उनका स्थान देने से नहीं नकारा।
 वामपंथियों का राजनैतिक माडल ममता दी प. बंगाल में इसी लिए नष्ट करने में सफल हो सकीं क्योंकि वह आम जनता अर्थात मतदाता को मजबूत करके अपने संगठन को गांधीवादी स्वरूप देकर उसे उनके हितों का संरक्षक बनाना चाहती थीं। मगर वामपंथियों की तरह ही ‘पार्टी कम्यून’ के सहारे जमीन पर पूरे लोकतान्त्रिक प्रशासनिक ढांचे को कब्जा करने की नीति का अनुसरण प. बंगाल को ही भीतर से कमजोर बनायेगा। यदि किसी राज्य में पंचायत चुनाव भी केन्द्रीय सुरक्षा बलों के साये में कराये जाते हैं तो इससे राज्य चुनाव आयोग की प्रतिष्ठा भी तार-तार होती है। यह बहुत गंभीर मसला है क्योंकि राष्ट्रीय राजनीति के सन्दर्भ में केन्द्रीय चुनाव आयोग को लेकर जब भी बात होती है तो एक विपक्षी दल के रूप मे ममता बनर्जी की पार्टी इसकी भूमिका को संशय के घेरे में डालने से पीछे नहीं रहती। जरूरी है कि पहले खुद को संशय के घेरे से ऊपर रखने के लिए राज्य चुनाव आयोग को राज्य पुलिस का अपने मन मुताबिक प्रयोग करने की खुली छूट दी जाये और राज्य चुनाव आयोग को बिना किसी भय या खतरे के अपना काम पूरी निष्पक्षता से करना चाहिए।  क्योंकि सामान्यतः पंचायत चुनाव राज्य पुलिस की सुरक्षा में ही कराये जाते हैं।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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