पूर्व प्रधानमन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जिस तरह अनायास खबरों में आये हैं उसे हम हादसा नहीं कह सकते क्योंकि पिछले कई वर्षों से वह गंभीर रूप से बीमार हैं और उनके स्वास्थ्य की खबरों तक से भी देशवासी बेखबर से ही रहते हैं। दरअसल कांग्रेस अध्यक्ष श्री राहुल गांधी ने जिस तरह श्री वाजपेयी को खबर बनाया उसमें भी कोई प्रयोजन नजर नहीं आता था मगर जिस प्रकार से स्वयं श्री वाजपेयी की पार्टी भाजपा के नेताओं ने उनके स्वास्थ्य की चिन्ता को लेकर खबर बनाया उसमें अवश्य प्रयत्न नजर आता है।
वाजपेयी जी के स्वास्थ्य का परीक्षण हर छह महीने के अन्तराल पर किया जाता है जिसके लिए उन्हें अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान ले जाया जाता है और वापस उनके निवास पर पहुंचा दिया जाता है लेकिन इस बार उनके बाकायदा आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती होने की खबर टी.वी. चैनलों ने प्रसारित की तो श्री राहुल गांधी उन्हें देखने के लिए पहुंच गये। इस खबर से तहलका इस कदर मचा कि भाजपा के बड़े-बड़े नेताओं को भी अहसास हुआ कि वाजपेयी की कुशलक्षेम पूछने के लिए हाजिरी दी जाए। इसमें कहीं कोई बुराई नहीं है और राजनीति भी नहीं है। वाजपेयी जैसे व्यक्तित्व को देशवासी भुला भी नहीं सकते। उनके दीर्घ जीवन व स्वस्थ होने की कामना सभी दल के लोग करते हैं उन्हें देखने जाने या उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछताछ करके किसी ने भी कोई अहसान नहीं किया है।
यह मानवीय कर्तव्य था जिसे सबने पूरा किया। इसका गुणगान करना भी उचित नहीं कहा जा सकता। इसके बावजूद यह मुद्दा इसलिए बन गया कि श्री राहुल गांधी ने कांग्रेस सेवादल के कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए यह कह दिया कि आज की भाजपा अपने बुजुर्गों का सम्मान करना भी भूल गई है। वाजपेयी जी का हालचाल जानने सबसे पहले मैं गया। बेशक राहुल गांधी ने एेसा करके यह संकेत जरूर दिया कि राजनीति में विरोधी राय रखने वाले लोग दुश्मन नहीं होते हैं बल्कि प्रतिस्पर्धी ही होते हैं। यदि एेसा है तो प्रणव दा के संघ मुख्यालय जाकर उसके कार्यक्रम को सम्बोधित करने पर कांग्रेस नेताओं ने क्यों तल्खी दिखाई थी। प्रणव दा जैसा व्यक्तित्व जानता है कि संघ की विचारधारा से उनकी विचारधारा का कहीं कोई मेल नहीं बैठता है।
तब कांग्रेस नेताओं ने यह विचार तक करने की जहमत नहीं उठाई कि जिस प्रणव मुखर्जी ने कांग्रेस पार्टी के सवा सौ वर्ष पूरे होने पर उसके इतिहास का सम्पादन किया हो वह किस आधार पर संघ के विचारों से सहमत हो सकता है? मगर इतना जरूर कहा जा सकता है कि श्री राहुल गांधी पर प्रणव दा की वैचारिक बहुलता और विविधता के बीच अपनी विशिष्टता कायम रखने की कला का असर पड़ा है। इसका प्रमाण यह है कि उनके श्री वाजपेयी को देखने जाने भर से ही पूरी भाजपा रक्षात्मक मुद्रा में उतर आई है। यह इस तथ्य का प्रमाण है कि आज की राजनीति में विरोधी विचारों के प्रति सहनशीलता लगातार कम होती जा रही है जिससे लोकतन्त्र में दुश्मनी का वह भाव घर करता जा रहा है जिससे कहीं न कहीं वैचारिक हिंसा को बढ़ावा मिल रहा है और उसका अक्स समाज पर पड़ रहा है।
सार्वजनिक उवाचों से लेकर राजनैतिक वक्तव्यों में जिस तरह की कर्कशता और आक्रमणकारी कठोरता सुनाई व दिखाई पड़ रही है उसने वैचारिक सहनशीलता के परखचे उड़ा कर रख दिये हैं। हम आज पूरी बेशर्मी के साथ सक्रिय राजनीति में आयु सीमा तक की बात करने लगे हैं जबकि वास्तविकता यह है कि भारत जैसे विविधतापूर्ण और उलझी हुई समस्याओं वाले देश में राजनीति करने की अक्ल ही साठ वर्ष के बाद आती है। यदि हम राजनीति में बुजुर्गों की उपेक्षा करने लगेंगे तो हम लघुकालिक लाभों के चक्कर में फंसकर अपना भविष्य अंधकारमय बना लेंगे। यह याद रखना चाहिए कि भारतीय संस्कृति हमें हमेशा याद दिलाती है कि जिस घर में बुजुर्गों का सम्मान नहीं होता उस घर से देवता और फरिश्ते रूठ जाते हैं। इस मामले में भाजपा के बुजुर्ग नेता डा. मुरली मनोहर जोशी का श्री वाजपेयी के सन्दर्भ में दिया गया यह वक्तव्य याद रखा जाना चाहिए कि आज देश की राजनीति की जो हालत है उस पर श्री वाजपेयी क्या टिप्पणी करते मुझे नहीं मालूम, इसीलिए शायद ईश्वर ने उनकी वाणी पर विराम लगा दिया है। यह कोई छोटी-मोटी पीड़ा नहीं है।
वाजपेयी जी तो व्यंग्य के माध्यम से विरोधी को पानी पिलाने के लिए जाने जाते हैं। बड़े से बड़ेे नीतिगत मसले पर अपने विरोधी विचारों को चारों खाने चित्त करने के लिए उन्होंने कभी कर्कश भाषा या अन्दाज का सहारा नहीं लिया बल्कि प्रेमपूर्वक हंसते-हंसाते हुए तथ्यों के सहारे उसका विकल्प प्रस्तुत किया। लोकतन्त्र की राजनीति यही तो होती है। लोकतन्त्र विवाद में भी संवाद करता रहता है और आगे बढ़ता रहता है। इस व्यवस्था में वैचारिक प्रहार करके विरोधी को मिटाया नहीं जाता बल्कि अपने विचारों का प्रसार किया जाता है। प्रत्येक राजनीतिक दल के पुरोधाओं का सम्मान हर विरोधी विचारधारा वाला दल इसीलिए करता है क्योंकि भारतीय संविधान के दायरे में रहकर राष्ट्र के विकास की परिकल्पना से बन्धे विविध राजनीतिक विचार अपने हिसाब से सामाजिक-आर्थिक उत्थान चाहते हैं। इनके रास्ते अलग-अलग होते हैं मगर लक्ष्य देशहित का ही होता है। इनमें से जो रास्ता जनता को पसन्द आता है उसे ही सत्ता मिल जाती है।