उत्तर प्रदेश का चुनावी बिगुल ! - Punjab Kesari
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उत्तर प्रदेश का चुनावी बिगुल !

उत्तर प्रदेश में अगले साल की पहली तिमाही में होने वाले चुनावों का बिगुल प्रधानमन्त्री की अलीगढ़ रैली

उत्तर प्रदेश में अगले साल की पहली तिमाही में होने वाले चुनावों का बिगुल प्रधानमन्त्री की अलीगढ़ रैली के साथ अब बज सा ही गया है जिसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि सियासत अपने शबाब पर जल्दी ही आयेगी। उत्तर प्रदेश देश का ऐसा सबसे बड़ा राज्य है और जहां से लोकसभा की 80 सीटें हैं परन्तु इसे प्रधानमन्त्री देने वाला राज्य भी कहा जाता है और माना जाता है कि दिल्ली की सत्ता उत्तर प्रदेश से होकर ही गुजरती है। इस मायने में इस राज्य के चुनाव 2024 की पहली तिमाही में होने वाले चुनावों के ‘सेमीफाइनल’ कहे जा सकते हैं। उत्तराखंड राज्य के चुनाव भी इसके साथ होंगे जो दो दशक पहले 2000 तक इसी राज्य का हिस्सा था। दोनों की राज्यों की अब राजनीतिक परिस्थितियां अलग-अलग हैं। वर्ना एक जमाना वह था जब राज्य के लौह पुरुष कहे जाने वाले मुख्यमन्त्री स्व. चन्द्रभानु गुप्ता अपना चुनाव उत्तराखंड के इलाके रानीखेत से ही लड़ा करते थे। 
बहरहाल आज का उत्तर प्रदेश अपने भीतर राजनीति की वे गहराइयां छिपाये बैठा है जिनका अक्स हमेशा राष्ट्रीय राजनीति पर बना रहता है। पिछले तीस सालों से राज्य की राजनीति में आधारभूत अन्तर  आया है और मतदाताओं का धीरे-धीरे जातिगत व साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण होता चला गया है। यह एक ऐसी राजनीतिक प्रक्रिया रही है जिसका असर दूसरे उत्तर भारतीय राज्यों पर भी पड़ा है। इन तीस वर्षों के दौरान कांग्रेस पार्टी का इस राज्य में ‘पराभव’  राजनीतिक पंडितों के लिए निश्चित रूप से अध्ययन का विषय रहा है परन्तु असलियत यह है कि 90 के दशक में अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण के अभियान के चरमोत्कर्ष पर पहुंचने के बाद जातिगत व सम्प्रदायगत ध्रुवीकरण इस प्रकार हुआ कि उत्तर प्रदेश भारतीय समाज के अन्तर्द्वन्द से उपजी विसंगतियों की प्रयोगशाला बन गया जिसके  परिणामस्वरूप हमने एेसे राजनीतिक दलों का प्रादुर्भाव देखा जिनका लक्ष्य सामाजिक विसंगतियों को राजनीतिक रूप से भुनाना था।
 पिछले तीस वर्षों की उत्तर प्रदेश की राजनीति की एक और विशेषता रही कि प्रत्येक चुनाव समाज की आन्तरिक  विषमताओं को मुद्दा बना कर ही लड़ा गया जिसमें वे आर्थिक और जीवनोपयोगी मुद्दे पूरी तरह गौण हो गये जिनका सीधा सम्बन्ध प्रत्येक मतदाता के दैनन्दिन जीवन की कठिनाइयों से होता है। लोकतान्त्रिक चुनाव प्रणाली में इसे निश्चित रूप से विस्मयकारी कहा जायेगा क्योंकि लोगों ने जड़तावाद को ही अपना भाग्य बनाने को वरीयता दी। यह प्रदेश उन चौधरी चरण सिंह का भी है जिन्होंने 1967 के बाद कांग्रेस छोड़ कर जब अपनी अलग पार्टी बनाई तो यह सवाल दीगर तौर पर खड़ा किया कि गांवों की कीमत पर शहरों का विकास ऐसा बनावटी विकास है जिसमें 70 प्रतिशत से अधिक आबादी का सीधा शोषण होता है। चौधरी साहब के इस सिद्धान्त ने राज्य की राजनीति को बदल डाला और जाति-बिरादरी व हिन्दू-मुसलमान का भेद समाप्त करके इन्हीं 70 प्रतिशत मूल ग्रामीणों का विशाल वोट बैंक खड़ा कर दिया जिससे तत्कालीन सत्ता में रहने वाली कांग्रेस पार्टी को ही भारी नुकसान हुआ और दूसरे विपक्षी राजनीतिक दलों की भी कमर टूट गई। मगर 1971 में स्व. इदिरा गांधी ने ‘जमीनी समाजवाद’ के सिद्धान्त से इस समीकरण को तोड़ डाला। इसके बाद इमरजेंसी का दौर आया और राजनीति फिर पलटा खा गई मगर कांग्रेस का वर्चस्व कायम रहा। इश वर्चस्व को भाजपा नेता श्री लालकृष्ण अडवानी ने राम मन्दिर आन्दोलन चला कर पूरी तरह तोड़ डाला और कांग्रेस का स्थान जाति मूलक दलों जैसे समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी ने ले लिया। मगर इस राजनीति के चलते उत्तर प्रदेश की सामाजिक परिस्थितियों की विषमताएं लगातार घनघोर कड़ुवाहट में तब्दील होती गईं।  अब राज्य की सामाजिक विषमताओं के बीच ही आर्थिक मुद्दे इस प्रकार उठ रहे हैं कि इस सबसे बड़े राज्य के विभिन्न अंचलों में भिन्न-भिन्न राजनीतिक गठजोड़ हमें देखने को मिल सकते हैं। मसलन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सामाजिक विषमताओं के स्थान पर सामाजिक समरसता के गठबन्धन बनाने की कोशिशें विपक्षी दल कर रहे हैं और पूर्वी उत्तर प्रदेश में ऐसे नये जातिगत समीकरण बैठाने की कोशिशें सत्तारूढ़ व उसके सहयोगी दलों द्वारा की जा रही हैं जिनसे समरसता का व सामाजिक न्याय का सन्देश जाये। उत्तर प्रदेश में यह बड़ा बदलाव आगामी चुनावों की राजनीति में सतह पर आ रहा है जो इस बात का प्रतीक है कि आर्थिक मुद्दे आम मतदाता को आन्दोलित कर रहे हैं और सामाजिक विषमता की विसंगतियों को वह तिलांजिली देना चाहता है। लोकतन्त्र में इन्हें हम जनता के मुद्दे भी कह सकते हैं।

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