घरों में काम करने वाले कामगारों के साथ गैर कानूनी और अमानवीय व्यवहार के बढ़ते मामले स्तब्ध कर देने वाले हैं। इस तरह की घटनाएं समाज का वीभत्स चेहरा ही सामने ला रही हैं। राजधानी दिल्ली और नोएडा की आसमान छूती सोसाइटियों में घरेलू नौकरों के साथ किस तरह का व्यवहार किया जाता है वह किसी से छिपा हुआ नहीं है। कभी घरेलू कामगारों की चोरी का इल्जाम लगाकर मारपीट की जाती है। कभी उन्हें मजदूरी नहीं दी जाती। कभी-कभी उन्हें मालिक सैक्स करने के लिए मजबूर करता है। ऐसे कामगारों के बुनियादी अधिकार सुनिश्चित कैसे किए जाएं इस संबंध में अभी तक ठोस कुछ नहीं हो पाया। अब गुरुग्राम से आई खबर दिल को व्यथित कर देने वाली है कि बच्ची की देखभाल के लिए रखी गई 14 वर्षीय लड़की को एक दंपति ने चिमटे से दागा। उसका कसूर सिर्फ इतना था कि वह काम में देरी करती थी। बच्ची मूल रूप से झारखंड के रांची की रहने वाली है। मामला सामने आने पर आरोपी दंपति को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है। नाबालिग नौकरानी को यातनाएं देने और खाना नहीं देने की आरोपी महिला को तो कंपनी ने तुरंत प्रभाव से नौकरी से निकाल दिया है। शिक्षित दंपति ने जिस तरह से मानवाधिकारों का उल्लंघन किया है उसे गंभीरता से लिए जाने की जरूरत है। ऐसी घटनाएं तो बहुत होती हैं लेकिन अधिकांश सामने नहीं आती।
कानून और सामाजिक न्याय का संबंध दो तरह से स्थापित होता है जब हाशिए पर पड़ा तबका बराबरी की मांग करता है और इसके चलते कोई सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन खड़ा होता है तो इसके लिए कानून बनते हैं लेकिन कभी-कभी समाज के व्यापक हित को ध्यान में रखते हुए पहले कानून बनाए जाते हैं और फिर यह कानून सामाजिक बदलाव की बुनियाद बनते हैं। घरेलू कामगार देश के दूरदराज के हिस्सों से आकर बड़े शहरों में आकर रहते हैं और यह सामाजिक आर्थिक रूप से सब से निचले तबके में आते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि समाज में तरह-तरह के दुराग्रह होते हैं और इनकी झलक भी देखने को मिल जाती है। नोएडा में परंपरागत रूप से घरों को संभालने का उत्तरदायित्व भी महिलाओं के हिस्से ही आता है। पिछले कई दशकों में जिस तरह से महिलाओं की दफ्तरों में भागीदारी बढ़ी, भारतीय मध्यम वर्ग की आय के स्तर में बदलाव आया, घर संभालने के लिए घरेलू कामगारों की जरूरत भी बढ़ती गई। बड़े शहरों की बात करें तो दफ्तर के काम और आने-जाने की भागदौड़ के बीच किसी तरह बैलेंस बना रहे युवा दंपतियों और लड़के-लड़कियों की गृहस्थी सुबह-शाम आने वाली ‘दीदी’ के भरोसे ही चल रही है।
एक आंकड़े के मुताबिक उदारीकरण के बाद के एक दशक में देश में घरेलू सहायकों की संख्या में करीब 120 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। 1991 के 7,40,000 के मुकाबले 2001 में यह आंकड़ा 16.6 लाख हो गया था। आज की तारीख में शहरी घरों में घरेलू सहायक या सहायिका का आना बेहद आम बात है। दिल्ली श्रमिक संगठन द्वारा िदए गए आंकड़े के मुताबिक भारत में पांच करोड़ से भी ज्यादा घरेलू कामगार हैं जिनमें अधिकांश महिलाएं हैं। हर घर में मौजूद इन सहायिकाओं पर तब तक कोई बात नहीं की जाती, जब तक किसी रोज यह अखबार की किसी हेडलाइन में जगह नहीं पा जातीं। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली इस मामले में भी आगे है। वजह शायद यहां की घटनाओं का अपेक्षाकृत जल्दी खबर बन जाना हो या यहां बाहरी राज्यों से आकर रह रही एक बड़ी आबादी का घरेलू कामगार के रूप में आजीविका कमाना है लेकिन हर दो-चार महीने में किसी न किसी घर से घरेलू सहायिका पर अत्याचार की बात सामने आ ही जाती है। घरेलू कामगारों और सोसायटी के लोगों में टकराव की घटना के बाद सोशल मीडिया पर बहुत कुछ कहा गया। लोगों ने घरेलू कामगारों को जरायम पेशा करार दिया। कुछ ने इन्हें अवैध बंगलादेशी बताया। जितने मुंह उतनी बातें। जबकि वास्तविकता यह भी है कि इन कामगारों के शोषण की संभावना ज्यादा होती है। क्योंकि यह जहां काम करते हैं वह एक घर होता है और घर में उसके मालिक की मर्जी ही सब कुछ होती है। यहां कामगार और मालिक के बीच संबंधों को तय करने वाली कोई सीमा रेखा नहीं होती बल्कि सामंती रूप से नौकर और मालिक ही होते हैं। घरेलू सहायकों के अधिकार सुरक्षित करने के लिए कानून तो बनाए जाते रहे हैं। देश में पहले से ही दो ऐसे कानून हैं जो घरेलू सहायकों को श्रमिक का दर्जा देते हैं। पहला असंगठित श्रमिक सामाजिक सुरक्षा अधिनियम और दूसरा कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न अधिनियम लेकिन घरेलू कामगारों की शिकायतों की सुनवाई के लिए और उन्हें सस्ता न्याय दिलाने के लिए कोई प्रावधान नहीं है। हालांकि आन्ध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, झारखंड, राजस्थान और कई राज्यों ने घरेलू कामगारों के लिए कदम उठाए हैं और न्यूनतम वेतन भी तय किया गया है। कुछ राज्यों ने इनके लिए वैलफेयर बोर्ड भी गठित किए हैं लेकिन समुचित कानून के अभाव में घरेलू कामगारों की एक बहुत बड़ी आबादी किसी भी तरह के श्रमिक कानूनों के बगैर ही काम करती है। किसी भी सभ्य समाज और आधुनिक अर्थव्यवस्था में इतनी बड़ी आबादी को कानूनी सुुरक्षा से बाहर रखना उचित नहीं है। देश में असंगठित मजदूरों के संबंध में सर्वेक्षण और कराया गया था। राष्ट्रीय स्तर पर घरेलू कामगार नीति बनाने की मांग भी की जा रही है। जिसकी जरूरत महसूस की जा रही है। बेहतर यही होगा कि घरेलू कामगारों के लिए एक व्यापक और समग्र नीति तैयार की जाए। क्योंकि इनकी समस्याएं व्यावहारिक हैं लेकिन सवाल यह भी कि क्या कानून से मालिक वर्ग के रवैये में कोई बदलाव आएगा। समाज को भी घरेलू कामगारों को इंसान समझना चाहिए और अपनी सोच में बदलाव करना चाहिए।