यू.पी. पालिका चुनाव में भाजपा - Punjab Kesari
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यू.पी. पालिका चुनाव में भाजपा

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भारत का लोकतन्त्र कितना रंग-​बिरंगा और विविधता से भरा हुआ है और इसके कर्णधार मतदाता बड़े–बड़े राजनीतिक पंडितों को किस तरह चक्कर घुमाते हैं इसका एक ही उदाहरण काफी है कि जब 1971 के लोकसभा चुनावों में स्व.इन्दिरा गांधी की कांग्रेस ने दिल्ली की लोकसभा की सारी सीटों पर विपक्षी दलों का सूपड़ा साफ कर दिया तो एक महीने बाद ही दिल्ली नगर निगम के चुनाव हुए और इनमें मुख्य टक्कर जनसंघ व कांग्रेस की हुई तो तब के जनसंघ के सर्वोपरि नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने दिल्ली के टाऊन हाल पर जनसभा करके अपील की कि ‘‘दिल्ली वालों आपने हमें संसद में भेजने के योग्य तो नहीं समझा मगर अब हमें कम से कम दिल्ली की साफ– सफाई करने लायक तो समझ कर हमारे हाथ की झाड़ू तो हमसे मत छीनों’’ निगम पर पहले से ही जनसंघ का कब्जा था। हालांकि निगम चुनावों में राष्ट्रीय स्तर के नेता प्रायः हस्तक्षेप नहीं करते हैं। इस परंपरा को निभाते हुए तब की सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी का एक भी राष्ट्रीय स्तर का नेता चुनाव प्रचार करने नहीं निकला। सब कुछ दिल्ली प्रदेश के नेता पर छोड़ दिया गया। चुनाव परिणाम आये तो जनसंघ को नगर निगम में बहुमत मिल गया। इसके साथ ही दूसरा उदाहरण ग्वालियर शहर का है जहां से सांसद चाहे कांग्रेस का बने या जनसंघ का मगर मेयर पद पर भाजपा के श्री शेजवलकर ही विजयी हुआ करते थे। इससे यह साबित हो गया कि मतदाता की समझ सदन की महत्ता व उपयोग के अनुसार ही काम करती है और वह राजनीतिक दलों का चुनाव भी इसी के अनुरूप करता है।

उत्तर प्रदेश के नगर निकाय चुनावों में भाजपा की जीत को यदि इसी नजरिये से देखा जाये तो यह वैज्ञानिक दृष्टि होगी क्योंकि स्थानीय निकायों का प्रशासन राजनीतिक विचारधारा से नहीं बल्कि नागरिक जरूरतों से उपजी स्थानीय समस्याओं से निर्देशित होता है जिनका फैसला राजनीतिक आग्रहों को ताक पर रख कर ही किया जाता है। अक्सर इन चुनावों में प्रादेशिक स्तर के नेता तक जोर आजमाइश नहीं करते हैं और स्थानीय स्तर की अपनी इकाइयों पर ही सारा दारोमदार छोड़ना बेहतर समझते हैं। किसी भी राज्य का मुख्यमन्त्री स्थानीय निकायों के चुनाव परिणाम से अपनी सरकार की प्रतिष्ठा को बांधना उचित नहीं समझता क्योंकि इन निकायों का कार्य क्षेत्र स्वतन्त्र रूप से स्थानीय समस्याओं के प्रति जवाबदेह होता है। इन निकायों के चुनाव परिणामों से राज्य सरकार के कार्य का आकलन भी नहीं किया जा सकता मगर राजनीतिक दलगत चुनाव चिन्हों पर लड़े जाने वाले इन चुनावों के परिणामों से यह जरूर निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उस राज्य में राजनीति किन मुद्दों के इर्द–गिर्द घूम रही है। इसके साथ ही सूक्ष्म आधार पर राजनीतिक सांठगांठ का अन्दाजा भी लगाया जा सकता है। राज्य के इन चुनावों के प्रचार की कमान स्वयं मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ ने अपने हाथ में ले रखी थी और कल तक स्वयं को राज्य की प्रमुख विपक्षी पार्टी बताने वाली समाजवादी पार्टी ने अपने तौर-तरीकों और राजनीतिक तेवरों से चुनाव से पहले ही भाजपा को ‘वाक ओवर’ देने का मन जैसा बना लिया था। जहां तक कांग्रेस पार्टी का सवाल है उसके अन्दाज से साफ लग रहा था कि वह कुछ चुनीन्दा शहरों में ही जोर आजमाइश की कोशिश में थी।

बाकी सभी जगह उसने अपनी स्थानीय इकाइयों से कह दिया था कि जो मन में आये करो। मगर योगी जी ने ये चुनाव ‘करो या मरो’ की तर्ज पर लड़े जिससे वह यह सिद्ध कर सकें कि बेशक शहरी क्षेत्रों में ही सही, राज्य की जनता में उनकी पकड़ है और वह गोरखपुर अस्पताल में बच्चों की हुई मृत्यु के बाद से अपनी सरकार पर लगे दाग को धोने का अवसर ढूंढ सकें। मगर इससे गोरखपुर कांड का दाग कैसे धुलेगा क्योंकि वहां का अस्पताल सीधे राज्य सरकार के आधीन काम करता है ? उनकी सरकार ने राज्य की जनता को जिस गड्ढा मुक्त सड़कें देने का वादा किया था वे सड़कें आज भी गड्ढे में ही हैं। राज्य सरकार की स्वास्थ्य व शिक्षा सेवाएं आज भी उसी अराजक वातावरण में सांसें ले रही हैं जैसे पिछली समाजवादी सरकार के साये में ले रही थीं। कानून–व्यवस्था की हालत भी लगभग पहले जैसी ही है सिवाय इसके कि मुठभेड़ों में पुलिस ने कारनामें दिखाने का दावा किया है। इसकी वजह साफ है कि योगी जी की वरीयता ‘रोटी, कपड़ा, मकान की जगह गऊ, मदरसा और मीट की दुकान’ है। मगर इसे लेकर उनकी अन्ध आलोचना नहीं की जा सकती क्योंकि कम से कम शहरी जनता ने उनकी एेसी नीतियों पर ही अपनी मुहर लगाई है। अतः स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश के शहरी मतदाताओं के दिमाग से अभी पिछले विधानसभा चुनावों का खुमार नहीं उतरा है परन्तु यह स्थिति केवल उत्तर प्रदेश में ही हो सकती है इसका किसी अन्य प्रदेश की राजनीति से दूर–दूर तक कोई वास्ता नहीं हो सकता क्योंकि हमने देखा था कि पिछले विधानसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश के विपरीत पंजाब में कांग्रेस को धुआं उड़ाती हुई जीत हासिल हुई थी।

अतः उत्तर प्रदेश के स्थानीय निकाय चुनावों के परिणामों को किसी अन्य राज्य के राजनीतिक माहौल के सन्दर्भ में रख कर देखना कोरी भावुकता होगी। मगर यह स्वीकार करना होगा कि सुश्री मायावती की बहुजन समाज पार्टी को पिछले विधानसभा चुनावों के बाद जिस तरह हाशिये पर डाल कर देखा जा रहा था उसमें अधिक सच्चाई नहीं है। मायावती की पार्टी ने कांग्रेस के उधड़े हुए सांगठनिक ढांचे पर खड़ी उजाड़ इमारत का लाभ उठाने की कोशिश की है मगर इसमें उन्हें अधिक सफलता इसलिए नहीं मिली क्योंकि पिछले विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी के साथ कांग्रेस का गठबन्धन था। यह राजनीतिक गणित जिस प्रकार का बना उसमें मतदाताओं के सामने विकल्प बहुत कम बचा हुआ था। इसके बावजूद योगी जी ने जितनी मेहनत इन चुनावों को जीतने में लगाई उसका फल उन्हें मिला।

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