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तस्वीर के दो रुख

राष्ट्रीय पुरस्कारों में अब सिफारिशें तथा भाई-भतीजावाद खत्म हो चला है…

राष्ट्रीय पुरस्कारों में अब सिफारिशें तथा भाई-भतीजावाद खत्म हो चला है और यदाकदा कुछ विवाद उभरते रहते हैं। सरकारी तंत्र पर उंगलियां उठती रही हैं लेकिन अब मोदी सरकार ने पुरस्कार चयन में आवेदन ऑन लाईन प्रक्रिया भी शुरू की जिसका स्वागत भी किया जाना चाहिए, जिस कारण गुमनाम लोगों को नामी-गिरामी पुरस्कार भी मिले हैं। हालांकि साध्वी ऋतम्भरा को पदम पुरस्कार के लिए चुना जाना भी सवाल खड़े करता है लेकिन फिर भी भाजपा सरकार चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता के लिए प्रशंसा का पात्र बन चुकी है।

पुरस्कार से इतर यह दिलचस्प है कि सरकार ने उन्हें पद्म श्री से भी ऊंचा सम्मान देने का फैसला किया। यानी, सरकार ने यह स्पष्ट कर दिया कि उनका कार्य, भले ही कितना भी विवादास्पद और विभाजनकारी क्यों न हो, एक साधारण सम्मान से बढ़कर है। यह पुरस्कार ऐसे समय पर दिया गया है जब अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण होने के एक साल पूरे हुए हैं। उनके समर्थकों ने ‘दीदी मां’ के नाम की घोषणा का जश्न मनाया लेकिन विरोधियों ने सरकार के इस फैसले पर कड़ी आपत्ति जताई। इसके अलावा इस साल के पुरस्कारों की सूची को धार्मिक आधार पर प्रेरित कहा जा सकता है।

इससे भी बड़ी और महत्वपूर्ण बात यह है कि मोदी शासन में इन पुरस्कारों का चरित्र पूरी तरह बदल चुका है। पहले यह पुरस्कार कुलीन वर्ग तक सीमित थे और प्रभावशाली लोगों की सिफारिशों व गहन पैरवी का परिणाम होते थे। ‘आप किसे जानते हैं, यह सिद्धांत काम करता था। नतीजतन पुरस्कार पाने वाले अक्सर दिल्ली के उच्च वर्ग, कॉकटेल सर्किट और यहां तक कि विवादित व्यक्तित्व होते थे। वरना 2010 में अमेरिका स्थित होटल व्यवसायी संत सिंह चटवाल को पद्म भूषण कैसे मिल जाता?

उनकी उपलब्धि अमेरिका में चुनावी चंदे की कथित धोखाधड़ी और भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के समर्थन में अमेरिकी सीनेटरों पर दबाव बनाना था। उस समय मनमोहन सिंह सरकार ने उन्हें ‘अमेरिका में भारत के हितों के अटूट समर्थक’ कहकर सम्मानित किया था।

हालांकि यह कहना भी गलत होगा कि वर्तमान सरकार में ऐसे प्रभावशाली संबंधों की कोई भूमिका नहीं है। लेकिन सिर्फ यही कारक काम कर रहे हैं, यह भी सच नहीं है। मोदी सरकार ने ‘चहेते कुछ’ और वास्तव में योग्य बहुसंख्यक के बीच संतुलन साधा है। आंकड़े इसकी पुष्टि करते हैं। उदाहरण के लिए इस साल घोषित 139 पुरस्कारों में से विवादास्पद नामों की संख्या एक दर्जन से भी कम है। ज्यादातर विजेता गुमनाम नायक हैं। यह बदलाव मोदी सरकार द्वारा नामांकन प्रक्रिया में सुधार का नतीजा है।

पहली बार सरकार ने आवेदन प्रक्रिया को ऑनलाइन किया और आत्म-नामांकन की व्यवस्था लागू की, जिससे सिफारिश की संस्कृति खत्म करने की कोशिश की गई। यह पुरस्कारों की केवल सिफारिशों पर निर्भर रहने की पुरानी परंपरा से अलग हटने वाला कदम था। इस बुनियादी परिवर्तन ने पद्म पुरस्कारों के दायरे को व्यापक बनाया और इन्हें टप्च केंद्रित के बजाय जन केंद्रित बना दिया। अब ये पुरस्कार समावेशी और योग्यता आधारित हो गए हैं, उस दौर से बिल्कुल अलग जब पैरवी, पक्षपात और राजनीतिक संपर्क सबसे बड़ी कसौटी हुआ करते थे। यही कारण है कि गुमनाम नायक अब इस प्रतिष्ठित सूची में जगह बना रहे हैं।

उदाहरण के लिए हिमाचल प्रदेश के हरीमन शर्मा, एक सेब किसान जिन्होंने एक अनोखी प्रजाति विकसित की। 2. नरेंद्र गुरुंग, एक लोक कलाकार जिन्होंने भूटिया और लेपचा कला को पुनर्जीवित किया। 3. जगदीश जोशिला लेखक जिन्होंने निमाड़ी भाषा (पश्चिमी इंडो-आर्यन भाषा) को संरक्षित किया। और 75 वर्षीय तुलसी गौड़ा जो नंगे पैर और बिना पीठ ढंके राष्ट्रपति भवन के मंच तक गई थीं। या हरेकला हजब्बा, एक संतरा बेचने वाले, जिन्होंने एक विदेशी ग्राहक से कीमत न समझ पाने के कारण गांव में एक स्कूल स्थापित कर दिया?

80 वर्षीय मोहम्मद शरीफ उर्फ ‘शरीफ चाचा’ जिन्होंने 25000 से अधिक लावारिस शवों का अंतिम संस्कार किया, क्या उन्हें भुलाया जा सकता है? या फिर मंजम्मा जोगती, एक ट्रांसजेंडर लोकनृत्य कलाकार। सम्मान से भी बढ़कर मोदी सरकार में चुने गए कई लोगों को तो इन पुरस्कारों के अस्तित्व की भी जानकारी नहीं थी।

उदाहरण के लिए कनकराजू 80 साल से अधिक उम्र के जो दिल्ली में पुरस्कार लेने के लिए पहली बार विमान में बैठे थे। वह गुस्सादी, एक आदिवासी नृत्य शैली के विशेषज्ञ थे लेकिन यह भी नहीं समझ पाए कि पुरस्कार का महत्व क्या है। जब उन्होंने अन्य विजेताओं के साथ भोजन किया तो खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें संकोच छोड़कर अच्छे से खाने को कहा-अच्छा खाओ।

कुछ पल इतिहास में दर्ज हो गए। 1. राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का झुका हुआ सिर, जब 102 वर्षीय नंदा प्रुस्टी ‘नंदा सर’ ने मंच पर पहुंचकर उन्हें आशीर्वाद दिया, फिर पदक ग्रहण किया। 2. मंजम्मा जोगती जिन्होंने बुरी नजर दूर करने के लिए राष्ट्रपति के सिर के ऊपर से अपनी साड़ी का पल्लू तीन बार घुमाया और ज़मीन पर हाथ पटककर परंपरागत अनुष्ठान किया।

सूची लंबी है, लेकिन निष्कर्ष एक ही है अब एक दीवार टूट चुकी है। अब तक जो मंच केवल चुनिंदा लोगों के लिए आरक्षित था, वहां अब साधारण लोग भी पहुंच रहे हैं। इसलिए भले ही मोदी सरकार की आलोचना ऋतम्भरा और उनके जैसे विवादित लोगों को सम्मान देने के लिए की जाए लेकिन यह भी सच है कि उन्होंने अनसुने, उपेक्षित और निस्वार्थ कर्मयोगियों को आगे लाने के लिए एक मंच दिया है।

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