आज आदरणीय लाला जगत नारायण जी यानि मेरे दादा ससुर जी की 42वीं पुण्यतिथि है। कहने को 42 वर्ष हो गए, परन्तु आज भी कल की बात लगती है।
जब मेरी शादी हुई तब लाला जी का इतना रुतबा था कि कई गवर्नर, कई मुख्यमंत्री शादी में शामिल हुए। शादी आर्य समाज मंदिर जालंधर में हुई। हजारों की संख्या में लोग आशीर्वाद देने आए। कुछ तो यह भी देखने आए कि जो लाला जी सबको साधारण शादी का उदाहरण देते हैं वो स्वयं करते हैं कि नहीं और वही हुआ लाला जी ने मेरे माता-पिता को सख्त निर्देश दिए थे कि लड़की तीन कपड़ों में ही आनी चाहिए। कोई जेवर नहीं पहना होना चाहिए। मेरी मां बहुत चिंतित थी कि खाली कान-हाथ के कैसी दुल्हन। परन्तु लाला जी ने लांवा फेरे पर बैठने से पहले देख भी लिया था और मुझे अपनी पत्नी की चेन और चूड़ियां पहनाईं। उसी प्रथा को अश्विनी जी और मैंने अपने बच्चों तक कायम रखा। मेरे तीनों बेटों की शादी दिल्ली आर्य समाज मंदिर में एक रुपए में हुई।
शादी के समय मैं पढ़ रही थी और शादी के बाद एमए पालिटिकल साईंस द्वितीय श्रेणी में पास किया। तब लाला जी ने दस रुपए ईनाम में दिए थे। जो आज तक मेरे पास सुरक्षित रखे हैं। उस समय घर में बहुत लोग सब लाला जी की सेवा करते थे। तीन पीढ़ियां और एक रसोई की सुविधा थी। मैं उनकी पौत्रवधू थी। कहते हैं न मूल से ब्याज प्यारा। उनको अपना सबसे बड़ा पौत्र अश्विनी मिन्ना बहुत प्यारा था। (वैसे सब बच्चों को प्यार करते थे) इसलिए उसकी पत्नी यानि मेरे से भी उनको बहुत लाड़ प्यार था। सुबह की पहली चाय और शाम पांच बजे चाय-पकौड़े मेरे हाथ से लेना पसंद करते थे। कहीं भी प्रोग्राम में जाते तो मुझे अपने साथ कई बार ले जाते थे। उनकी बड़ी खासियत थी जो लोगों को उपदेश देते थे वह स्वयं भी उसी पर चलते थे। बड़े रौबीले और सच्चे इंसान थे। सारे परिवार को एक कड़ी में पिरोकर रखा था। उनका सम्पादकीय बहुत ही सटीक, निष्पक्ष और निडर होता था। वही गुण उन्होंने अश्विनी जी को दिए। उनकी कलम न डरती थी न झुकती थी आैर न किसी पार्टी के साथ थी। अभी कि वो केन्द्र और राज्य में मंत्री रहे, परन्तु सच्चाई के आगे उन्होंने सब कुछ त्याग दिया।
वो भरपूर परिवार में थे। उनके दोनों बेटे-बहुएं उनका बहुत आदर-सम्मान करते थे। सारे पोतों-पोतियों से उनका बहुत लगाव था। एक राजा की तरह उनका घर में अनुशासन था। उनकी आज्ञा के बगैर घर का पत्ता भी नहीं हिलता था। मैं इस माहौल को बहुत पसंद करती थी। सुबह उनके कपड़े निकालती थी और वो रोजाना कहीं न कहीं जाते थे, तो रास्ते के लिए उनके लिए परांठे और आलू-मटर की उनकी पसंदीदा सब्जी तैयार करके साथ देती थी। नहाने के लिए बाल्टी में पानी गर्म देती क्योंकि उस समय गीजर नहीं था। सब उनके कहे अनुसार चलते थे और शाम को लोगों से मिलते थे तो उन्होंने आखिर में एक सीरिज चलाई जीवन की संध्या (अंतिम पड़ाव)। उनके अनुसार जीवन की संध्या में कैसा होना चाहिए और लोगों के साथ क्या होता है लिखा था। उन्होंने हरिद्वार में बुजुर्गों के लिए आश्रम भी बनवाया। वो भरपूर परिवार में होते हुए भी इस जीवन संध्या के अकेलेपन को महसूस करते थे। मैंने उनके दर्द और इच्छा को समझा। वो चाहते थे कि इस उम्र के लोगों के लिए कुछ न कुछ होना चाहिए। इसीलिए उनकी अंतिम इच्छा को पूरा करते हुए मैंने और अश्विनी जी ने वरिष्ठ नागरिक केसरी क्लब की स्थापना की, जो उनको एक सच्ची श्रद्धांजलि है। इसमें तीनों वर्गों के बुजुर्गों के लिए पिछले 20 वर्षों से काम कर रही हूं। उच्च और मध्यम वर्ग के वरिष्ठ नागरिकों के लिए बहुत सी एक्टिविटीज, ताकि उनके मन में आत्मविश्वास हो कि वो किसी से कम नहीं। सारी उम्र उन्होंने बच्चों और समाज के लिए काम किया, अब वो जिन्दगी के हर पल को आत्मविश्वास से जियें। यही नहीं जरूरतमंद बुजुर्गों को (िजनके बच्चे आकर कहते हैं बहुत महंगाई है, हम उन्हें नहीं रख सकते) सम्पन्न लोगों से एडोप्ट करवाया जाता है, उन्हें घर ले जाने की जरूरत नहीं, उनकी दवाई और खाने के पैसे दो और जो भी सहायता दी जाती है वो 80 जी के अन्दर आती है, जिससे बहुत से जरूरतमंद बुजुर्गों की सहायता होती है। वो अपने घरों में अपने बच्चों के साथ रह सकते हैं। क्योंकि हमारा देश श्रीराम और श्रवण का देश है। इसमें वृद्धाश्रमों का कोई स्थान नहीं होना चाहिए।
उन्होंने सारी उम्र देश की आजादी के िलए लड़ाई लड़ी, फिर देश की एकता-अखंडता को कायम रखते हुए बलिदान दे दिया। जिस दिन वो शहीद हुए हमारे परिवार पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। मुझे उसी दिन मालूम पड़ा था कि मैं पहली बार मां बनने वाली थी (आदित्य मेरे गर्भ में था)। हमारे घर में यही माना जाता है कि वो आदित्य के रूप में वापिस आए हैं। यही नहीं लाला जी और रमेश जी शहीद तो हुए परन्तु जाते-जाते पंजाब को बचा गए। यही नहीं सारे भारत में पंजाब केसरी समाचार पत्र को सशक्त कर गए। उनकी शहीदी के बाद हमारा समाचार पत्र देश के प्रमुख समाचार पत्रों में तो आ ही गया और सरकुलेशन बहुत बढ़ गया और लोग इसे सम्मान देने लगे कि यह शहीदों का अखबार है, जिन्होंने देश के लिए कुर्बानी दी। यहीं से रमेश जी ने शहीद परिवार फंड भी चलाया, जिसको आगे उनके छोटे भाई ने शहीद परिवार फंड को चलाए रखा। काश आज वो हमारे बीच होते तो अश्विनी जी के जाने के बाद उन्होंने बच्चों के सिर पर सशक्त हाथ रखा होता।