‘‘दिल्ली में सैलाब, सड़कें बनी समुंदर,
ठहर गई दिल्ली, कई इलाके जलमग्न,
घुटनों तक पानी, गले तक पानी,
हजारों लोग राहत शिविरों में,
डूब गई दिल्ली, टूट गए पुराने रिकार्ड।’’
पिछले पांच दिनों से टीवी चैनलों के ऐसे वाकये सुनते आ रहे हैं। लोग समाचार पत्रों की सुर्खियां पढ़कर प्यास बुुझा रहे हैं। यमुना के किनारे ही नहीं इस बार अति विशिष्ट लोगों के आवासीय क्षेत्रों में भी पानी भर गया। दिल्ली ही नहीं पंजाब, हरियाणा, हिमाचल और उत्तराखंड के शहर भी डूबे। लोग त्राहि-त्राहि कर उठे और जनजीवन अस्त-व्यस्त होकर रह गया। दुनिया की तमाम तकनीक धरी की धरी रह गई। डूबते शहरों की त्रासदी की वजह यही है कि इनमें बरसात के पानी की निकासी के इंतजाम न काफी सिद्ध हो रहे हैं। मानसून की रिकार्ड तोड़ वर्षा के मुकाबले तमाम व्यवस्थाएं विफल हो गईं और सिस्टम लाचार नजर आया। पंजाब में चंडीगढ़ शहर के आसपास डेरा बस्सी समेत कई इलाके जलमग्न हो गए। बाढ़ के कारण 2.40 लाख हैक्टेयर धान की फसल का नुक्सान हुआ है। हरियाणा के 13 जिले बाढ़ की चपेट में हैं और 982 के लगभग गांव डूबे हुए हैं।
हिमाचल में आई भयंकर बाढ़ से हजारों करोड़ का नुक्सान हो चुका है। डूबने का खतरा नदियों और समुद्र के किनारों के शहरों को ही नहीं बल्कि उनको भी है जिनके आसपास कोई समुद्र या नदी नहीं है। दुनिया जानती है कि कोई भी ताकत जमीन का निर्माण नहीं कर सकती। यानि जमीन जितनी है उतनी ही रहने वाली है लेकिन हमारा लालच और जरूरत हमें नदियों को भी पाटने की ताकत दे रहा है। ऐसे में हमारी बसाहटों को डूबना ही है। चाहे वह पॉश कॉलोनियां हों या नदियों के किनारे की बस्तियां। केवल शहर ही अनियोजित विकास का शिकार नहीं हुए बल्कि गांव भी अनियोजित विकास के शिकार बनते जा रहे हैं। हमने सारी सुविधाएं ज्यादातर शहरों में केन्द्रित कर रखी हैं, बावजूद इसके न शहर सुरक्षित हैं न गांव। दिल्ली में बाढ़ के लिए केवल मौजूदा सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहराया जाना चाहिए, बल्कि इसके लिए वे लोग जिम्मेदार हैं जिन्होंने दिल्ली पर शासन किया। कई वर्षों से राजनीतिज्ञ और भूमाफिया की सांठगांठ के चलते यमुना के किनारे की जमीन कब्जाई जाती रही और शक्तिशाली भूमाफिया ने लगातार अवैध कालोनियां बसाईं और करोड़ों के वारे-न्यारे किए।
यमुना के पूरे कैचमैंट एरिया में कुकुरमुत्तों की तरह मकान उगाए, फिर मंदिर भी बने। यमुना किनारे खेलगांव भी बसा और कई सरकारी कार्यालय भी बन गए। हर चुनाव में अवैध कालोनियों को नियमित करने का मुद्दा उठा और जमकर राजनीति हुई। हर राजनीतिक दल ने वोट बटोरने के लिए इन अवैध कालोनियों को नियमित किया। 1978 में भी यमुना का जलस्तर खतरे के निशान को पार कर गया था तब 18 लोग मारे गए थे और लाखों लोग प्रभावित हुए थे। तब राजधानी में तांगे और बैलगाड़ी का युग था। कार भी उस समय बिरले लोगों के पास ही होती थी। हर बार बाढ़ से बचने के उपाय ढूंढे गए लेकिन कोई व्यवस्था नहीं की गई जो बाढ़ को नियंत्रित कर सके। हम दिल्ली और अन्य नगरों के ड्रेनेज सिस्टम की बात करते हैं लेकिन बाढ़ के चलते तो चेन्नई और बैंगलुरु भी डूबते रहे हैं।
भारत में मास्टर प्लान तो बनते हैं लेकिन उन पर कभी भी ढंग से अमल नहीं होता। बढ़ती आबादी के दबाव को झेलते अधिकांश बड़े और छोटे शहरों में कब क्या समस्या सिर उठाकर खड़ी हो जाए, कोई नहीं जानता। बड़े शहरों में लगातार आबादी बढ़ती गई, शहरों में जमीन की जरूरत भी बढ़ी। शहर तेजी से बढ़ते गए। जमीन तो उतनी ही थी फिर शहर ऊंचाई की ओर बढ़ने लगे और शहरों में बहुमंजिला इमारतें खड़ी होने लगीं। पानी की छोटी-छोटी निकासी बंद होती गई। नहरें लापता हो गईं। लोगों ने शहरों के पुराने नालों को निगल लिया और ऊपर बन गए मकान और दुकानें। नगर नियोजकों के लिए कोई जरूरी चीज नहीं है, जहां जिसको ठीक लग रहा है वैसा विकास हो रहा है। ब्यूटीफुल सिटी नाम से मशहूर चंडीगढ़ के आसपास आबादी का घनत्व बढ़ता ही जा रहा है और आवासीय परिसरों के प्रोजैक्ट धड़ाधड़ चल रहे हैं। हरित भूमि गायब हो चुकी है। विकास के नाम पर चल रही गतिविधियां ही मानव की दुश्मन बन चुकी हैं। देश के शहरों और गांवाें काे प्राकृतिक आपदाओं से बचाने के लिए अब शहरी विकास के लिए नए ढंग से सोचना होगा, वरना विकसित होते शहर डूबने के लिए अभिशप्त रहेंगे। ग्लोबल वार्मिंग से बदलते बारिश के पैटर्न के चलते हमें शहरों के नियोजन पर नए सिरे से विचार करना होगा और युद्ध स्तर पर काम करना होगा। सियासत से ऊपर उठकर हमें समाधान खोजना होगा, वरना हम भयंकर परिणाम भुगतेंगे।