स्वतन्त्र भारत की लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष श्री जी.वी. मावलंकर ने कहा था कि इस देश में संसद की भूमिका किसी भी तौर पर सजावटी संस्थान की तरह नहीं हो सकती क्योंकि यह उन समस्त भारतवासियों का प्रतिनिधित्व करती है जिनकी अपेक्षाओं का प्रतिबिम्ब इसमें चमकता है। संसद का मुख्य कार्य देश के लोगों के जीवन में सकारात्मक बदलाव लाने का है। इसी सन्दर्भ में उनका यह कथन शाश्वत सत्य रहेगा कि ‘आने वाली पीढि़यां हमारी संसद का मूल्यांकन इस आधार पर नहीं करेंगी कि इसने कितने विधेयक पारित किये बल्कि इस आधार पर करेंगी कि यह कितने लोगों के जीवन में बदलाव लाने में सक्षम हो सकी।’ फिलहाल संसद का सत्र चालू है और दोनों ही सदनों लोकसभा व राज्यसभा में ऐसा माहौल बना हुआ है कि मानों देश के सामने कोई ऐसी समस्या ही नहीं है जिस पर बहस करके उसका हल निकाला जा सके। इसमें भी राज्यसभा का नजारा रहता है कि यह रोज सुबह 11 बजे बैठती है और कमोबेश अगले दिन के लिए स्थगित हो जाती है। हमारे संविधान निर्माताओं ने राज्यसभा की जरूरत जिस नजरिये से की थी उसकी मिसाल दुनिया के बहुत कम लोकतन्त्रों में ही मिलेगी।
बेशक यह कहा जाता है कि हमने इस मामले में ब्रिटिश संसदीय प्रणाली का अनुकरण किया परन्तु दोनों में गुणात्मक अन्तर है। हमारे देश में राज्यसभा के सदस्यों की संख्या सुनिश्चित होती है जबकि ब्रिटेन में ऐसा नहीं है। इसमें मनोनीत सदस्यों की संख्या भी 12 सीमित रखी गई है जबकि ब्रिटेन में इसका फार्मूला बिल्कुल दूसरा है। हमने इस सदन के सभापति का दायित्व अपने उपराष्ट्रपति को देकर राष्ट्रपति संस्थान को सीधे संसद का हिस्सा बनाकर तय किया कि जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुने गये विभिन्न राज्यों की विधानसभाओं में बैठे सदस्यों के वोट से चुने गये राज्यसभा के सदस्यों की बागडोर लोकसभा में बैठे उन सदस्यों के वोट से चुने जाने वाले उपराष्ट्रपति के हाथ में रहे जिनका चुनाव आम जनता ने प्रत्यक्ष रूप से किया है।
हमने इस सदन को उच्च सदन का नाम इसीलिए दिया क्योंकि यह जनता के राज्यों से लेकर केन्द्र में चुने गये प्रत्यक्ष प्रतिनिधियों के भी प्रतिनिधियों की सभा है। अतः इसका संचालन भारत की समूची संसदीय प्रणाली का उच्च मानक है किन्तु अभी तक पूरे शीतकालीन सत्र के दौरान जितनी भी बैठकें हुई हैं उनकी समीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है लेकिन दूसरी तरफ लोकसभा में बड़ा ही दिलचस्प मंजर बना हुआ है। इसकी बैठक शोर-शराबे में तो आधे-अधूरे दिन किश्तों होती है और सरकार अपने विधेयक भी पारित करा लेती है और उन्हें राज्यसभा में भेज देती है। सवाल यह नहीं है कि संसद में शोर-शराबा क्यों होता है? शोर-शराबा होना भी लोकतन्त्र के जीवन्त रहने का प्रमाण होता है क्योंकि जनता के चुने हुए नुमाइन्दे संसद में देश के लोगों की समस्याओं का समाधान करने के लिए ही चुने जाते हैं। वे लोगों की जुबान होते हैं।
एक-एक लोकसभा सदस्य लाखों लोगों की जुबान अपने मुंह में लेकर संसद में प्रवेश करता है परन्तु असली मुद्दा यह होता है कि उनकी बातों को किस तरह सदन चलाने के नियमों में पिरोते हुए तरतीब से पेश किया जाये। यह जिम्मेदारी लोकसभा अध्यक्ष की होती है और उनका आसन सत्ता व विपक्ष दोनों के ही दबाव से पूरी तरह मुक्त होता है। इसकी व्यवस्था भी प्रथम लोकसभा अध्यक्ष श्री मावलंकर ने आजादी मिलने से पहले ही तब कर दी थी जब वह सेंट्रल एसेम्बली की सदारत किया करते थे। उन्हीं की दूरदृष्टि थी कि उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष की सत्ता को सरकार के प्रभाव से पूरी तरह दूर रखने के लिए नियमावली तैयार की थी जिसे संवैधानिक स्वरूप दिया गया था लेकिन फिलहाल मुद्दा यह है कि आज लोकसभा में तीन तलाक विधेयक को पारित करने के लिए सत्तारूढ़ भाजपा पार्टी ने अपने सदस्यों को सदन में उपस्थित रहने के लिए व्हिप जारी किया है।
तीन तलाक पर सरकार ने अध्यादेश जारी किया था जिसे सदन के इसी सत्र में विधेयक के रूप में पारित करना जरूरी होगा। इस विधेयक का विपक्ष कुछ एेसे पहलुओं पर कड़ा विरोध कर रहा है जिससे मुस्लिम महिलाओं के पारिवारिक झगड़ों को फौजदारी मुकदमों में तब्दील किया जा सकता है। शादी या विवाह दो व्यक्तियों के बीच का नितान्त निजी मामला होता है जिससे सरकार का कोई लेना-देना नहीं हो सकता। वैसे भी इस्लाम में शादी एक इकरारनामा या अनुबन्ध होता है जिसकी शर्तों से स्त्री व पुरुष दोनों बन्धे रहते हैं। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय पहले ही निर्णय दे चुका है कि किसी भी मुस्लिम स्त्री की शादी केवल इस वजह से खारिज नहीं मानी जायेगी कि उसके पति ने उसे तीन बार तलाक लफ्ज का इस्तेमाल करके बेदखल कर दिया है। उसके सारे जायज हक बाकायदा बने रहेंगे मगर सवाल महिला अधिकारों से जुड़ा हुआ है।
ये अधिकार धर्म विशेष के दायरे तक सीमित नहीं किये जा सकते हैं। यह समस्या केरल के सबरीमला धर्म स्थान में महिलाओं के प्रवेश को लेकर भी आ रही है जिसके बारे में सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दे दिया है कि किसी भी महिला के लिए इस धर्म स्थान के प्रवेश द्वार खुले रहेंगे। इसके बावजूद न्यायालय के आदेश की धज्जियां उड़ाने में कोई कमी नहीं रखी जा रही है। मूल प्रश्न यह भी है कि क्या न्यायालयों को किसी भी मजहब के भीतरी मामलों में पड़ना चाहिए? जहां तक सरकार का सवाल है तो उसे उन सभी समाजों में शिक्षा का उजाला लाने के लिए पक्के इन्तजाम करने चाहिएं जिनमें धार्मिक या सामाजिक कुप्रथाएं आज भी जारी हैं, ये सारी समस्याएं खुद ही दूर हो जायेंगी। इसके साथ ही समाज की सोच को वैज्ञानिक बनाने की नीतियां अपनानी चाहिएं। इसकी व्यवस्था भी हमारे संविधान में है मगर हम तो इतिहास की कब्रें खोद कर 21वीं सदी के युवा को पिछली सदियों में ले जाने पर आमादा हैं !