क्या मोदी सरकार ने अपने दस साल के कार्यकाल में भारत की आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाया है? हम जानते हैं कि भारत पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। ज्यादातर लोग इस बात पर सहमत हैं कि भारत 2026 या 2027 तक तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। यह दिलचस्प है, क्योंकि कार्यकाल के अपने आखिरी वर्ष में यूपीए सरकार ने 2043 तक इस मुकाम तक पहुंचने का लक्ष्य निर्धारित किया था। तो कौन से बदलाव हुए हैं? 2004 से 2014 के बीच, भारत की आर्थिक श्रेणी (रैंकिंग) में शायद ही कोई बदलाव आया। हम 10वें और 12वें स्थान के बीच फंसे रहे। उदाहरण के लिए दूसरे ब्रिक देशों को ही लें। 2004 में ब्राज़ील और रूस दोनों की अर्थव्यवस्थाएं भारत से छोटी थीं। यूपीए कार्यकाल के अंत तक, दोनों देश भारत से आगे निकल गए। चीन का उदय, सबसे ज़्यादा चौंकाने वाली बात थी। 2004 में भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी चीन के 40 प्रतिशत के बराबर थी। 2014 तक यह लगभग आधी हो गयी, यानि सिर्फ़ 20 प्रतिशत रह गयी। लेकिन ये सभी बातें अभी भी गाथाएं हैं। पिछले बीस सालों में, भारत ने दूसरे विकासशील देशों की तुलना में कैसा प्रदर्शन किया है? इसके लिए हमें प्रति व्यक्ति जीडीपी के आंकड़ों पर गहराई से नज़र डालने की ज़रूरत है।
नीचे एक ग्राफ दिया गया है, जो भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी की तुलना उन सभी 150 या उससे ज़्यादा देशों से करता है, जिन्हें आईएमएफ उभरती अर्थव्यवस्थाओं के रूप में वर्गीकृत करता है। इस समूह में चीन, ब्रिक अर्थव्यवस्थाएं तथा दक्षिण अमेरिका, मध्य पूर्व और अफ्रीका के लगभग सभी देश शामिल हैं। दो बातें तत्काल हमारे ध्यान में आती हैं। यूपीए के शासनकाल के दौरान जहां रुझान अधिकतर नीचे की ओर था, वहीं मोदी के कार्यकाल में रुझान स्पष्ट रूप से ऊपर की ओर है। दरअसल 2004 में, भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी विकासशील दुनिया की लगभग 35 प्रतिशत थी। वर्ष 2014 तक आते-आते यह घटकर मात्र 30 प्रतिशत रह गई थी। इससे इस तथ्य की पुष्टि होती है कि यूपीए के शासनकाल के दौरान भारत अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं से पीछे रह गया। इसके उलट, 2014 में 30 प्रतिशत से बढ़कर यह 2024 में 41 प्रतिशत हो गई। इससे यह पता चलता है कि भारत ने मोदी सरकार के पिछले दस वर्षों के कार्यकाल के दौरान अन्य विकासशील देशों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया है।
यह ग्राफ हमें वैश्विक आर्थिक संकट के दौरान दोनों सरकारों के प्रदर्शन का तुलनात्मक विश्लेषण करने की भी अनुमति देता है। वर्ष 2008 में इस ग्राफ में तेजी से गिरावट आई। इससे पता चलता है कि 2008 के संकट के दौरान भारत वास्तव में अन्य उभरते देशों की तुलना में अधिक प्रभावित हुआ था। इसके उलट, 2020-21 की महामारी के दौरान यह ग्राफ सपाट है। इसका मतलब यह है कि जब सारी दुनिया कोरोना वायरस की चपेट में थी, तो भारत ने भी अन्य देशों जैसा ही प्रदर्शन किया। अब हम एक सरल गणना कर सकते हैं। यदि यूपीए के शासनकाल के दौरान भारत अन्य उभरते देशों के साथ कदम मिलाकर चलता तो क्या होता? हमारे पास और कितना कुछ होता? उदाहरण के लिए, वर्ष 2013 को लें। वर्ष 2004 और 2013 के बीच, उभरते देशों की आय 1790 डॉलर प्रति व्यक्ति से बढ़कर 5050 डॉलर प्रति व्यक्ति हो गई। ठीक इसी दौरान, भारत की आय 624 डॉलर प्रति व्यक्ति से 1440 डॉलर प्रति व्यक्ति हो गई। लेकिन यदि भारत अन्य उभरते देशों की तरह तेजी से विकास करता, तो हमारी प्रति व्यक्ति आय 1760 डॉलर होती। इसका मतलब यह है कि प्रति भारतीय लगभग 320 डॉलर का “नुकसान” हुआ। अगर इसे भारत की जनसंख्या (2013 में लगभग 1.29 बिलियन) के संदर्भ में देखें, तो उस वर्ष हमारी जीडीपी में 413 बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ।
क्योंकि 2013 में एक डॉलर की कीमत आज के लगभग 1.35 डॉलर के बराबर है, 2013 के दौरान जीडीपी में 557 बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ! यदि हम वर्ष 2005 से वर्ष 2014 के बीच हर साल के लिए यह गणना दोहराएं और जोड़ें, तो हमें 2.487 ट्रिलियन डॉलर का आंकड़ा प्राप्त हो जाता है। यह यूपीए के वर्षों में भारत की अर्थव्यवस्था को पहुंची कुल क्षति है, जो शेष विकासशील देशों से पिछड़ने के कारण हुई। अंत में, आइए हम मोदी के वर्षों पर नज़र डालते हैं। वर्ष 2014 से वर्ष 2024 के बीच, विकासशील देश प्रति व्यक्ति 5140 डॉलर से बढ़कर प्रति व्यक्ति 6700 डॉलर तक पहुंच गए, जबकि भारत प्रति व्यक्ति 1560 डॉलर से बढ़कर प्रति व्यक्ति 2730 डॉलर तक पहुंच गया। इसलिए यदि भारत ने दूसरों के समान ही विकास किया होता, तो हमारे पास केवल 2033 डॉलर प्रति व्यक्ति होते। इस बार, हमें प्रति भारतीय 697 डॉलर का लाभ हुआ है। जनसंख्या से गुणा करें और यह भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 997 बिलियन डॉलर जोड़ता है। लगभग एक ट्रिलियन डॉलर, केवल वर्ष 2024 के लिए। यदि हम वर्ष 2015 से वर्ष 2024 के बीच हर साल के लिए ऐसा करें, तो हमें कुल 6.533 ट्रिलियन डॉलर मिलते हैं। हम इसे ‘मोदी सरप्लस’ कह सकते हैं। आंकड़ें खुद ब खुद सब कुछ बयां कर देते हैं। (लेखक इंडियन साइंस इंस्टीट्यूट बेंगलुरू के फैकल्टी मेम्बर)