लोकसभा चुनावों में मुश्किल से 100 दिन का समय शेष रह जाने से देश की राजनीति में जिस तरह सत्ता की शतरंज की बाजियां बिछाई जा रही हैं उसने राजनीतिक दलों के चेहरों पर पड़े नकाबों को भी उतारना शुरू कर दिया है। एक तरफ तेलंगाना के मुख्यमन्त्री के. चन्द्रशेखर राव गैर-भाजपा व गैर-कांग्रेसी दलों के गठबंधन के अभियान पर कसरत पर कसरत कर रहे हैं आैर दूसरी तरफ महाराष्ट्र की राज्य सरकार से लेकर केन्द्र की मोदी सरकार में शामिल शिवसेना खुलकर भाजपा को कोस रही है और राम मन्दिर से लेकर राफेल लड़ाकू विमान सौदे तक में अपनी ही एनडीए सरकार को निशाने पर ले रही है। इससे एक हकीकत सामने आती है कि इन दलों के नेताओं को मतदाताओं में उपजी निराशा और गुस्से का अच्छी तरह अंदाजा है।
तेलंगाना में कुल 17 लोकसभा सीटें हैं और इस राज्य के मुख्यमन्त्री जिस तरह एक एेसा तीसरा मोर्चा बनाने का सपना पाल रहे हैं जिसमें न भाजपा शामिल हो और न कांग्रेस शामिल हो, उसका लक्ष्य केवल इस निराशा के व गुस्से के आवेग को विभाजित करना होगा और राष्ट्रीय राजनीति के वैकल्पिक एकल राजनीतिक विमर्श को क्षेत्रीय टुकड़ों में बांटने का होगा क्योंकि अखिल भारतीय स्तर पर चन्द्रशेखर राव की इस राजनीतिक भूमिका का नतीजा अन्ततः सत्ताधारी पक्ष को ही लाभ पहुंचाएगा। इसके साथ ही उनका पिछला राजनीतिक जीवन भी तराजू पर जमकर तोला जाएगा क्योंिक 2004 का लोकसभा व विधानसभा चुनाव उन्होंने कांग्रेस पार्टी के साथ मिलकर लड़ा था और आंध्रप्रदेश से पृथक तेलंगाना राज्य बनाने की मांग को कांग्रेस का भी समर्थन था।
तेलंगाना राज्य का गठन भी मनमोहन सिंह की पहली सरकार के आखिरी साल में किया गया और चन्द्रशेखर राव की राष्ट्रीय तेलंगाना समिति को इस राज्य में तब से लगातार दो बार सफलता मिली परन्तु आज महत्वपूर्ण सवाल यह है कि श्री चन्द्रशेखर राव क्या सोचकर एक तीसरा विकल्प देने के अभियान पर हैं जबकि राष्ट्रीय स्तर पर सभी गैर-भाजपा दल एक छत के नीचे आने की कशमकश में लगे हुए हैं? दक्षिण भारत के किसी दूसरे राज्य में श्री राव की तेलंगाना समिति का न तो कोई समर्थक है और न कहीं उसका कोई वजूद है। उन्होंने प. बंगाल में वहां की तृणमूल कांग्रेस पार्टी की नेता मुख्यमन्त्री सुश्री ममता बनर्जी से अब तक इस सिलसिले में दो बार बात की है। इस भेंट का कोई नतीजा नहीं निकल पाया है। इसके साथ ही वह ओिडशा के बीजू जनता दल के नेता मुख्यमन्त्री नवीन पटनायक से भी मिले। पटनायक की पार्टी केन्द्र में भाजपा गठबन्धन एनडीए की हिस्सा न होते हुए भी मोदी सरकार की हर संकट के समय मददगार रही है मगर अपने राज्य में इसे जितना खतरा कांग्रेस से है उतना ही खतरा भाजपा से है।
इसलिए नवीन बाबू के लिए चन्द्रशेकर राव के कंधे पर हाथ रखना सबसे सरल रास्ता हो सकता है मगर चन्द्रशेखर राव को 80 लोकसभा सीटों वाले राज्य उत्तर प्रदेश की बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी से बड़ी उम्मीदें हैं क्योकि इन दोनों पार्टियों को भाजपा से कोई खतरा नहीं है बल्कि असली डर कांग्रेस पार्टी से है। इसकी वजह यह है कि इन दोनों ही पार्टियों ने कांग्रेस के पुराने जनाधार को तोड़कर अपनी ताकत बनाई है और भाजपा का रौद्र विरोध इन्हें जीवनदान देता रहता है परन्तु तेलंगाना समिति जैसे राजनीतिक दल के साथ जाने पर इन दोनों ही पार्टियों के लिए अपने ही राज्य में विश्वसनीयता का संकट खड़ा हो सकता है और मतदाताओं में पर्दे के पीछे से भाजपा की मदद करने का भ्रम फैल सकता है क्योंकि हाल ही में हुए तेलंगाना राज्य विधानसभा चुनावों में श्री चन्द्रशेखर राव और असीदुद्दीन ओवैसी की इत्तेहादे मुसलमीन पार्टी ने हाथ मिलाकर जब चुनाव लड़ा तो भाजपा ने इस राज्य में कोई खास ताकत न होते हुए ठीक उसी तर्ज पर चुनाव लड़ा जिस तर्ज पर ओवैसी की पार्टी उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में भारी संख्या में प्रत्याशी उतार कर चुनाव लड़ती है।
हालांकि तेलंगाना में भाजपा को केवल एक सीट ही मिल सकी मगर ओवैसी व भाजपा के बीच साम्प्रदायिक आधार पर हमला करने से 117 सदस्यों वाली विधानसभा में कांग्रेस की सीटें 20 के करीब ही रह गईं। चन्द्रशेखर राव ओवैसी की पार्टी को एक पत्ते की तरह अपने हाथ में रखकर मायावती व अखिलेश यादव को उलझा सकते हैं लेकिन दिक्कत यह है कि चुनाव विधानसभा के लिए नहीं बल्कि लोकसभा के लिए होंगे जिनमें विचारधारा के आधार पर जातिगत गणित को तोड़ना कांग्रेस पार्टी के लिए बहुत बड़ी चुनौती होगी। यह चुनौती भाजपा के लिए ज्यादा नहीं होगी क्योंकि तीसरे मोर्चे में ओवैसी की शिरकत और जातिगत गणित का लाभ उसे मिलेगा।
जहां तक शिवसेना के नेता उद्धव ठाकरे के तेवरों का सवाल है तो उनका एकमात्र लक्ष्य हिन्दुत्व व राम मन्दिर के मुद्दे को जिन्दा रखते हुए भाजपा सरकार से हताश लोगों को अपने खेमे लाने का है जिससे वे महाराष्ट्र में कांग्रेस व शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस के पास न जा सकें क्योंकि यह दीवार पर लिखी हुई इबारत है कि वह केन्द्र में भाजपा का साथ छोड़कर कांग्रेस के साथ कभी नहीं जा सकते और यदि कांग्रेस पार्टी उन्हें चुनावों से पहले अपने गठबन्धन में शामिल करने की भूल करती है तो पूरा उत्तर भारत उसके हाथ से रेत की तरह फिसल जाएगा लेकिन दूसरी हकीकत यह भी है कि ममता बनर्जी किसी भी सूरत में शिवसेना के साथ खड़ा होना पसन्द नहीं करेंगी क्योंकि अपने राज्य प. बंगाल में वह जिस तरह भाजपा की बिछाई शतरंज से बेजार हैं उसकी सारी धार खत्म हो जाएगी लेकिन यह सारी चौसर सिर्फ एक नेता को दिग्भ्रमित करते हुए घेरने के लिए बिछाई जा रही है और उसका नाम राहुल गांधी है।
आज के राजनीतिक माहौल की हकीकत यह है कि श्री राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी में इतनी ऊर्जा भर चुकी है कि वह चुनावों की लड़ाई को ‘गांधीवाद’ बरक्स ‘राष्ट्रवाद’ में बदल दे। इसका कारण अकेला किसानों व ग्रामीण जनता में रोष नहीं है बल्कि युवा पीढ़ी में वह कुलबुलाहट और बदलाव के लिए बेचैनी है जिसमें उसे प्राथमिकता पर रखकर देश की नीतियों का निर्धारण हो और उन सभी राष्ट्रीय समस्याओं का सकारात्मक हल हो जो इसे विरासत में मिली हैं न कि पुराने गड़े मुर्दे उखाड़ कर उनका ‘डीएनए’ टैस्ट किया जाए। जिस डिजिटल टैक्नोलोजी का हम ढिंढोरा पीट रहे हैं वह इसी युवा पीढ़ी की ईजाद की हुई है और उसके सामने गाय और मन्दिर-मस्जिद को मुद्दा बनाकर हम सिद्ध करने पर तुले हुए हैं कि हमारा भविष्य बैलों की खेती और पूजा-पाठ से ही नियन्त्रित होगा तो हम 14वीं सदी में ही जी रहे हैं।
यह क्या विरोधाभास नहीं है कि एक तरफ कम्प्यूटर की निजी जानकारी पर नियन्त्रण करने का फरमान जारी हो रहा है और दूसरी तरफ कहा जा रहा है कि कम्प्यूटराइज्ड ईवीएम में कोई गड़बड़ हो ही नहीं हो सकती? जमाना बदल गया है, कम्प्यूटर क्रांति करने वाली हिन्दोस्तान की युवा पीढ़ी जानती है कि कहां गड्ढा है और कहां पानी भर सकता है। यह बात और है कि चन्द्रशेखर राव को ही न पता हो कि तेलंगाना राज्य में विधानसभा चुनावों के दौरान 120 करोड़ रुपए के नोट किस तरह चुनाव आयोग ने जब्त किए थे?