फिर मॉब लिंचिंग - Punjab Kesari
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फिर मॉब लिंचिंग

जिस तरह से लोकतंत्र में भीड़तंत्र ने घुसपैठ कर ली है, उसका नकारात्मक प्रभाव देखने को मिल रहा

जिस तरह से लोकतंत्र में भीड़तंत्र ने घुसपैठ कर ली है, उसका नकारात्मक प्रभाव देखने को मिल रहा है। लोकतंत्र में भीड़तंत्र के अतिक्रमण को अब मॉब लिंचिंग का नाम दे दिया गया है। पिछले कुछ वर्षों से यह शब्द काफी प्रचलित हो गया। मॉब लिंचिंग को एक गुप्त एजैंडे के तहत धर्म विशेष से जोड़ कर समाज को बांटे जाने की कोशिशें भी हुई हैं। लेकिन कुछ लोगों की भीड़ द्वारा पीट-पीट कर हत्याएं करने की घटनाएं कुछ-कुछ अंतराल के बाद सामने आ जाती हैं। तबरेज, अंसारी, पहलू खान और अखलाक कुछ ऐसे नाम हैं, जो बार-बार जहन में उभरते हैं। इन नामों की सूची में अब महाराष्ट्र के 23 वर्षीय लुकमान अंसारी का नाम भी जुड़ गया है। घटना के मुता​बिक लुकमान अंसारी अपने दो सहयोगियों के साथ टैम्पों में मवेशियों को लेकर जा रहा था तो कथित तौर पर ‘गौरक्षकों’ ने उन्हें रोक कर मारपीट करनी शुरू कर दी। लुकमान के दो साथी तो भाग गए लेकिन वह गौरक्षकों के हत्थे चढ़ गया। जिन्होंने पीट-पीट कर उसकी हत्या कर दी। आरोपी 6 लोगों को​ ​िगरफ्तार कर लिया गया है। सभी आरोपी दक्षिण पंथी संगठन बजरंग दल के कार्यकर्ता बताए जाते हैं। 
जब अमेरिका में नस्ली भेदभाव बहुत ज्यादा था और अफ्रीकी-अमेरीकियों की लिंचिंग आम थी जो एक घृणाजनित अपराध था तथा श्वेतों और  अश्वेतों के बीच एक गहरी खाई को रेखांकित ​करता था। अब ऐसी घटनाएं भारत में होना आम बात है। खून के प्यासे लोगों द्वारा निर्दोष नागरिकों को अपना निशाना बनाया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। जिस तरह से ऐसी हत्याओं से एक समुदाय में दूसरे समुदाय के प्रति भय का भाव भरा जा रहा है, वह भी कोई कम खतरनाक नहीं है। वर्ष 2014 से मॉब लिंचिंग की घटनाओं में लगातार वृद्धि हो रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा इन घटनाओं की सार्वजनिक रूप से निंदा की गई थी और दोषियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने की बात कही गई थी। लेकिन धर्म और संस्कृति के स्वयंभू रक्षक आज भी ऐसी घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं। 
भीड़ का अपना मनोविज्ञान होता है। विवेक जब शून्य हो जाता है तब राह चलता व्यक्ति भी भीड़तंत्र का हिस्सा बन जाता है और ऐसी विवेक शून्य भीड़ ही निर्मम घटनाएं करती है। बुद्धिजीवी, पत्रकार आैर सामाजिक कार्यकर्ता इसमें साम्प्रदायिक ऐंगल तलाशने लगते हैं, लेकिन धर्म के तथाकथित ठेकेदार मौन धारण कर लेते हैं। दुखद पहलू यह है कि राजनीतिक और सामाजिक संगठन इन घटनाओं को अपनी-अपनी सुविधाओं के हिसाब से कम या ज्यादा करके उठाते हैं। ऐसे में उनका विरोध केवल राजनीतिक दिखाई देता है। देश में मॉब लिंचिंग की घटनाओं में वृद्धि की पृष्ठभूमि में सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी घटनाओं को रोकने और दोषियों को सजा ​िदलवाने के लिए एक तंत्र स्थापित करने का निर्देश  दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को यह याद दिलाया कि हिंसा को रोकना उसका कर्त्तव्य है। विविधता में एकता ही भारत की पहचान है और भीड़ द्वारा कानून को अपने हाथ में लेना विविधता में एकता के लिए बहुत बड़ा खतरा है।
किसी भी संवैधानिक प्रजातंत्र में स्वतंत्रता और जीवन का अधिकार सबसे महत्वपूर्ण है। राज्य की यह जिम्मेदारी है कि वह सभी नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा करें फिर चाहे वे किसी भी जाति, धर्म, नस्ल या वर्ग के हों। ‘राज्य का यह प्राथमिक कर्तव्य है कि वह धर्मनिरपेक्ष, बहुवादी और बहुसांस्कृतिक सामाजिक व्यवस्था को प्रोत्साहित करे ताकि विचारों और आस्थाओं की स्वतंत्रता बरकरार रह सके और परस्पर विरोधी परिप्रेक्ष्यों का सह-अस्तित्व बना रहे’ ।
मॉब लिंचिंग और अन्य अपराधों के बीच विभेद करते हुए न्यायालय ने कहा कि लिंचिंग की घटनाओं के पीछे के उद्देश्यों और उसके परिणामों के संबंध में 2 बातें महत्वपूर्ण हैं। पहली, यह कि मॉब लिंचिंग न्याय करने के अधिकार का भीड़ को सौंप देने जैसा है और दूसरी, इससे नागरिकों को उन अधिकारों का उपभोग करने से वंचित किया जा रहा है, जो संविधान उन्हें प्रदान करता है। उच्चतम न्यायालय का निर्णय अत्यंत प्रासंगिक और स्वागतयोग्य है। परंतु वह इस विषय पर कुछ नहीं कहता कि मॉब लिंचिंग की घटनाएं आखिर हो क्यों रही हैं? निर्णय में बहुवाद और प्रजातंत्र जैसे उच्च आदर्शों की चर्चा है और उसमें यह भी कहा गया है कि हर जाति, वर्ग और धर्म के नागरिक के मूल अधिकारों की रक्षा करना राज्य का कर्तव्य है। मॉब लिंचिंग मामले में तीन साल की सजा और जुर्माने का प्रावधान है। अगर भीड़ द्वारा किसी की हत्या कर दी जाती है  तो धारा 302 के तहत मुकद्मा दर्ज किया जाता है और साथ ही धारा 34 या 149 लगाने का प्रावधान है। इसके बाद जितने लोग भी मॉब लिंचिंग में शामिल रहे होंगे उन सबको हत्या का दोषी ठहराए जाने का भी प्रावधान है। अगर भीड़ सरेेराह खुद लोगों को दंडित करने लगे और  हत्याएं करने लगे तो फिर कानून का राज कहां रहेगा। लोकतंत्र में समाज को बर्बर नहीं बनने दिया जा सकता। आखिर धर्म और संस्कृति के नाम पर हत्याओं की अनुमति कैसे दी जा सकती है। भारत का इतिहास साम्प्रदायिक सद्भाव और भाईचारे का रहा है। मॉब लिंचिंग की घटनाओं से अल्पसंख्यकों में खौफ उत्पन्न होता है और सामाजिक सौहार्द को गहरी चोट पहुंचती है। इससे लोकतांत्रिक और संवैधानिक संस्थाएं भी कमजोर हो रही हैं। नफरत की राजनीति करने वाले लोगों को अलग-थलग किया जाना चाहिए। यह समस्या केवल कानून व्यवस्था की नहीं है, बल्कि यह धर्म और संस्कृति को राजनीतिक हथियार बनाने की है।
­आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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