रक्षामन्त्री श्री राजनाथ सिंह का यह कहना कि पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को वापस लेने में भारत को कोई कठिनाई इसलिए नहीं आयेगी क्योंकि इसकी मांग स्वयं ही इस क्षेत्र की जनता करेगी। बेशक उनके इस कथन को कुछ तर्कशास्त्री ‘अति आशावादी’ बता सकते हैं मगर सच्चाई यह है कि पाकिस्तान में जिस तरह के हालात बन चुके हैं उनमें ऐसी मांग का उठना अप्रत्याशित नहीं माना जायेगा। पिछले 75 साल का इतिहास गवाह है कि पाकिस्तान ने किस प्रकार जम्मू-कश्मीर के मुद्दे को अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर उठा कर भारत का पक्ष हल्का करने की कोशिश की मगर उसका नतीजा हमेशा पाकिस्तान के विपरीत ही रहा। यह भारत के लोकतन्त्र की ताकत ही थी कि मुस्लिम बहुल जम्मू-कश्मीर की जनता ने स्वयं ही भारत के साथ रहना पसन्द किया था और पाकिस्तान के निर्माण का विरोध तक किया था। इस बारे में कश्मीर का इतिहास चीख-चीख कर गवाही देता रहता है और पूरे भारतवासियों को बताता रहता है कि हर कश्मीरी भी पक्का हिन्दोस्तानी दिखने में फख्र महसूस करता है। पाकिस्तान इस हकीकत को जितनी जल्दी कबूल कर ले उतना ही उसके फायदे में होगा। जम्मू-कश्मीर का राजनैतिक इतिहास बार-बार दोहराने का कोई लाभ नहीं है क्योंकि दुनिया जानती है कि इस मामले में पाकिस्तान की स्थिति एक आक्रमणकारी देश के अलावा और कुछ नहीं है।
15 अगस्त 1947 के दिन बिना शक जम्मू-कश्मीर भारत- पाकिस्तान के बीच में एक स्वतन्त्र रियासत थी मगर इसके बाद पाकिस्तान ने जिस तरह कबायलियों को आगे कर इस पर फौजी आक्रमण किया था उसका जवाब देने के लिए रियासत के महाराजा हरिसिंह ने 26 अक्तूबर, 1947 को इस पूरी रियासत का भारतीय संघ में उसी प्रकार विलय कर दिया था जिस तरह 14 अगस्त, 1947 को मैसूर रियासत के महाराजा ने अपनी रियासत का भारतीय संघ में विलय किया था। मगर अब इस पुराने इतिहास की प्रासंगिकता इस वजह से सार्थक नहीं समझी जा सकती क्योंकि 5 अगस्त, 2019 को केन्द्र की वर्तमान सरकार ने जम्मू-कश्मीर के लिए बनाये गये विशेष संवैधानिक अनुच्छेद 370 को निरस्त करके इस राज्य को दो केन्द्र शासित राज्यों में विभक्त कर दिया। निश्चित रूप से यह मांग राज्य के लोगों के लोकतान्त्रिक अधिकारों के तहत वाजिब मानी जायेगी कि 5 अगस्त, 2019 को जम्मू-कश्मीर के दर्जे में जो कमी की गई थी उसे पूरा करते हुए इसे पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाये और विधानसभा चुनाव जल्दी कराये जायें।
पूर्ण राज्य का दर्जा देने के सवाल पर केन्द्र सरकार भी वचनबद्ध है क्योंकि संसद में इस बाबत वह मंशा जाहिर कर चुकी है। पुरानी जम्मू-कश्मीर विधानसभा में पाक के कब्जे वाले क्षेत्र के लोगों के लिए सीटें खाली छोड़ी जाती थीं जिससे इस क्षेत्र के लोगों को सदा यह एहसास होता रहे कि वे उसी जम्मू-कश्मीर रियासत के हिस्सा रहे हैं जिसका विलय महाराजा हरिसिंह ने भारतीय संघ में किया था। 75 साल बाद इस विमर्श का भी कोई महत्व नहीं रहा है कि कश्मीर समस्या को स्वयं भारत ही राष्ट्रसंघ में लेकर गया था क्योंकि 1972 में बांग्लादेश बन जाने के बाद जब तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने पाकिस्तान के वजीर-ए-आजम जुल्फिकार अली भुट्टो के साथ शिमला में समझौता किया था तो पाकिस्तान से लिखवा लिया था कि कश्मीर समेत भारत-पाकिस्तान के बीच जितने भी विवादास्पद मुद्दे हैं उन सभी का फैसला आपस में बातचीत द्वारा शान्तिपूर्ण तरीके से किया जायेगा। अतः 1948 में राष्ट्रसंघ का प्रस्ताव क्या था और कैसा था, इसका औचित्य तो 1972 में स्वयं पाकिस्तान ने ही समाप्त कर दिया था। संयोग से आजकल पाकिस्तान के विदेशमन्त्री जुल्फिकार अली भुट्टो के ‘नाती’ बिलावल भुट्टो हैं और उनकी कूटनीतिक काबलियत पर पाकिस्तान के भीतर ही सवाल खड़े होते रहते हैं।
बिलावल भुट्टो को यह नहीं भूलना चाहिए कि उन्हीं के ‘नाना’ जुल्फिकार अली भुट्टो ने 1963 में पाक के कब्जे वाले कश्मीर की पांच हजार वर्ग कि.मी. की काराकोरम घाटी की जमीन चीन को सौगात में दे दी थी और चीन के साथ नया सीमा समझौता किया था। अतः ‘पराये’ माल को ‘अपना’ समझना पाकिस्तान की आदत रही है। उस समय स्व. भुट्टो पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अयूब के विदेशमन्त्री थे लेकिन क्या कयामत है कि आज बिलावल भुट्टो इसी बात पर तिलमिला रहे हैं कि भारत के प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की अमेरिका यात्रा पर दोनों देशों ने जो संयुक्त वक्तव्य जारी किया है उसमें परोक्ष रूप से पाकिस्तान को निशाने पर रखते हुए सीमापार से होने वाले आतंकवाद पर नियन्त्रण रखने के लिए कहा गया है और ताईद की गयी है कि पाकिस्तान को अपने इलाके में किसी भी आतंकवादी संगठन को पनाह नहीं देनी चाहिए।
यह भी राजनीति की करवट है कि जिस पाकिस्तान को अमेरिका ने आर्थिक और फौजी मदद दे-दे कर पूर्व में भारत के खिलाफ मजबूत किया था आज वही अमेरिका पाकिस्तान को उसकी हदें बता रहा है। इसी से स्पष्ट हो जाना चाहिए कि पाकिस्तान की बौखलाहट बेवजह नहीं है और अपने कब्जे वाले कश्मीर को लेकर वह अब और ज्यादा अपनी अवाम को गफलत में नहीं रख सकता क्योंकि उसके कश्मीर के लोग ही अपने साथ होने वाले दोगले व्यवहार से ‘आजिज’ आ चुके हैं और अपने नागरिक अधिकारों की मांग कर रहे हैं। इस्लामाबाद में बैठे पाकिस्तानी हुक्मरानों ने उनकी कश्मीरी संस्कृति को पैरों तले रौंदने की जो नीति पिछले 75 सालों से चला रखी है उस पर तो अब चीनी फौजियों का भी पहरा लग चुका है। अतः श्री राजनाथ सिंह यदि ‘अति आशावादी’ भी हैं तो गलत नहीं हैं क्योंकि पाक अधिकृत कश्मीर के लोग भी तो आखिरकार ‘कश्मीरी’ ही हैं।