गालियां निकालने वाला समाज असभ्य ही है ! - Punjab Kesari
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गालियां निकालने वाला समाज असभ्य ही है !

अपने देश में और पड़ोसी देशों में भी पुरुष समाज गालियों का प्रयोग खूब करता है। बिना संकोच के और बिना यह जाने हुए कि इसमें सीधा- सीधा अपने समाज की औरतों का, परिवार की महिलाओं का वे खुला अपमान कर रहे हैं। शायद गाली निकालना पुरुष के पौरुष का प्रतीक बन गया है। इसका प्रमाण यह है कि अगर दस पुरुष किसी भी आयु के और चौदह साल की ऊपर की आयु के लड़के भी बैठे हों तो वहां गालियां सुनी जा सकती हैं। यह ठीक है कि बच्चे गालियां कुछ कम निकालते हैं लेकिन युवा, प्रौढ़ और वृद्ध गाली ऐसे निकालते हैं जैसे यह उनके मुहावरे हैं उनके जीवन का हिस्सा हैं, उनके सामाजिक जीवन की शोभा है। अभी इसी अप्रैल माह में एक वृद्ध जिसकी आयु 84 वर्ष के लगभग और सामाजिक दृष्टि से प्रतिष्ठित है, बातचीत में कहते हैं कि मर्द तो गालियां निकालते ही हैं, पर उनका एक साथी जो गाली निकालता है वह बहुत गंदी हैं। उनसे सीधा प्रश्न था कि जब देश पर विदेशी आक्रमण या आतंकवाद का संकट आए तब बोरी-बिस्तर लेकर पलायन करते समय यह मर्दानगी कहां चली जाती है।
कुछ इतिहासकारों ने यह खोज करने का प्रयास किया कि अपने समाज में गालियां कब से चलती हैं। विभिन्न भाषाओं, विभिन्न देशों और विभिन्न समाजों में पिछले लगभग पांच सौ वर्षों से अलग-अलग ढंग से गाली निकाली गई। कहीं किसी को पशु कहकर या जाति के नाम पर अथवा चीन की तरह जो अशुभ अंक हैं उनका प्रयोग करके।
महाभारत काल में एक प्रसंग आता है कि भगवान श्रीकृष्ण जी ने शिशुपाल का वध भरी सभा में किया। राजसुय यज्ञ का आयोजन जब युधिष्ठिर ने किया तो शिशुपाल जो कि श्रीकृष्ण जी की बुआ का बेटा था अपशब्दों का प्रयोग करता गया। कुछ इतिहासकार इसे गालियां कहते हैं, पर कुछ गलतियां। कृष्ण जी ने अपनी बुआ को यह वचन दिया था कि शिशुपाल की सौ गालियां या गलतियां वे क्षमा कर देंगे, पर इसके बाद उसका सिर काट देंगे। वही हुआ शिशुपाल बोलता गया अपशब्द या गालियां और भगवान श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट दिया।
आक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी के पहले संस्करण में उस शब्द का प्रयोग मिलता ही नहीं है जिसे ब्रिटिश समाज में गाली कहा जाता है, क्योंकि वे इसे बुरा शब्द मानते थे। लिखित अंग्रेजी साहित्य में पहली बार इस गाली जैसे शब्द का खुला इस्तेमाल कवि सर डेविड लिंडेसी ने सन् 1535 में किया। आम ब्रिटिश लोग एक दूसरे को ब्लडी कहते थे, पर पिछली सदी की शुरुआत तक ब्रिटेन के कुलीन समाज में ब्लडी बहुत ही बुरा शब्द माना जाता था। ऐसा वर्णन मिलता है कि 1914 में जार्ज बर्नाड शाह के नाटक प्यग्मलिओन में एक पात्र इस शब्द का इस्तेमाल करता है तो लंदन के सभ्य समूह द्वारा इसका विरोध किया गया और ब्रिटिश समाज में सामूहिक रूप से भी इसके विरुद्ध मानों एक स्कैंडल ही मच जाता है, पर भारत और ब्रिटेन के बहुत प्रसिद्ध ग्रंथों में कहीं गाली का प्रयोग नहीं था। अंग्रेजी के कवि होमर के महाकाव्य इलियड और ओडिसी में कहीं गाली नहीं।
भारत में भी महाकवि कालिदास के लिखे किसी भी महाकाव्य में गाली नहीं। हमारे जितने भी संस्कृत व हिंदी के ग्रंथ हैं, पिछले एक हजार वर्ष में एक भी गाली पढ़ने को नहीं मिलती, पर आज अपने समाज को न जाने क्या हो गया। केवल गालियां ही चलती हैं और लगभग सभी गालियां महिलाओं के लिए अपमानसूचक ही हैं। महिलाएं हर युद्ध में, हर दंगे में सांप्रदायिक संघर्ष में हमेशा शारीरिक शोषण, अपमान का शिकार हुईं। उसकी तो हम लोग निंदा करते हैं। बलात्कार शब्द को बहुत बुरा मानते हैं, पर यह शाब्दिक महिलाओं का बलात्कार, अपमान धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक नेता और बड़े बड़े समाज सेवक खुले रूप से करते हैं।
कहा जा रहा है ​िक जो गालियों में कहा जाता है और विद्यार्थियों से भी पूछा गया कि क्या वह पाप कर सकते हैं जिसकी घोषणा गालियों में करते हैं। गाली वीर अगर गालियों का बच्चों को अर्थ बताएं और फिर खुद भी जो कहते हैं करके दिखाए तो जिंदगी भर वे जेल की चक्की में पिसेंगे, वे भी जानते हैं, पर कोई भी सभ्य समाज यह गालियां कैसे स्वीकार कर लेता है, यह आश्चर्य है।
सरकारों से यह प्रश्न है कि जब जातिसूचक गाली देना जाति का अपमान माना जाता है, उन पर कई तरह की कानूनी धाराएं लगाकर उन्हें दंडित किया जाता है,जेलों में भेजा जाता है तो क्या महिलाएं प्रतिदिन जिस अपमान, पीड़ा को सहन करती हैं उसके लिए कानून की कोई धारा नहीं है। जो उनकी रक्षा कर सके। वैसे पुलिस स्टेशन में भी गालियों की बौछार रहती है। बचपन में यह सुन रखा था कि पुलिस को ट्रेनिंग के साथ ही गालियां सिखाई जाती हैं, पर जब पुलिस एकेडमी फिल्लौर में प्रशिक्षु जवानों और पदोन्नति के लिए ट्रेनिंग करने आए पुलिस कर्मियों से बात की तो मौन जानकारी मिली, पर जानकारी यह थी कि गालियां तो सिखाई नहीं जाती, वातावरण सिखा देता है। किसी भी अपराधी को अपमानित करने के लिए उनकी बहन-बेटियों के नाम पर जो अश्लील, असभ्य, अपमानजनक शब्द बोले जाते हैं वे किसी कोड़े, डंडे की चोट से ज्यादा पीड़ा देते हैं, क्योंकि वह पीड़ा मजबूरी की होती है, आत्मा की होती है।
जिस समाज में यह कहा जाए कि जहां नारी की पूजा होती है वहां देवता वास करते हैं। मां प्रथम आचार्य, प्रथम गुरु वहां जहां एक कच्चे धागे से भाई रक्षा सूत्र में बंध जाते हैं। उस देश में जहां कन्या पूजन वर्ष में दो बार करके बेटियों को देवी माना जाता है, वहां हमारे देश का पुरुष समाज अश्लील, अपमानजनक गालियां निकाले तो कोई भारतीय दंड संहिता हमारी रक्षा के लिए न आए यह कितना असंगत है। यह अपराध भी है, राष्ट्रीय अपराध।

– लक्ष्मीकांता चावला

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