इन दिनों हरियाणा सहित देश के कुछ राज्यों में वादों, घोषणाओं, संकल्प पत्रों की बारिश ज़ोरों पर है। धरती को स्वर्ग बनाने की बातें हो रही हैं। ऐसा हर बार होता है। हर चुनावी मौसम में वादों, संकल्पों की बौछारें। हमें मालूम भी होता है कि कुछ नहीं बदलेगा। मगर सब चलता है। कुछ वर्ष पूर्व मध्य प्रदेश में सब की नज़रें उन्नाव में राजा राव रामबख्श के किले पर टिकी थीं। अभी एक कुदाली चली नहीं कि एक हज़ार टन सोने की बांट का सिलसिला शुरू हो जाएगा। सरकारी नियमानुसार, सूचना देने वाले संत शोभन सरकार को भी इस ‘अकूत खज़ाने’ का एक भाग मिलेगा। यूपी सरकार ने भी अपना दावा ठोंक दिया था। पहले से ही तयशुदा अनुमानों के अनुसार घोषणा कर दी गई है कि यदि खज़ाना मिला तो 22200 किमी सड़कों का निर्माण हो जाएगा। 20 हज़ार स्कूल बनेंगे। कानपुर से लखनऊ के बीच मैट्रो बन जाएगी। 8 मैगापॅावर हाऊस बनेंगे। यानि गांव बसा नहीं और ‘वे’ पहले ही पहुंच गए।
इसी संदर्भ में एक बात का जि़क्र प्रासंगिक लगता है। चंडीगढ़ के एक दिवंगत कवि कुमार विकल की एक कविता है, ‘गोदो की प्रतीक्षा में’। गोदो विश्व के प्रख्यात साहित्यकार सैम्युअल बैकेट की एक कृति है। इस कृति में दो आम आदमी हैं जिन्होंने ‘गोदो’ को देखा भी नहीं, मगर उन्होंने सुन रखा है कि ‘गोदो’ जब भी आता है, दुख-दर्द भगा देता है। वे गोदो के इन्तज़ार में ही उम्र काट देते हैं। वैसे पूरी कहानी में गोदो कभी मंच पर नहीं आता। कहानी आगे भी है लेकिन इस चर्चा के लिए इतनी ही काफी है। स्थिति यह है कि 1 अरब 20 करोड़ का यह भरा पूरा देश इस इन्तज़ार में है कि ‘गोदो आएगा’। ‘गोदो’ आएगा तो देश की पूरी जनता को शौचालय मिलेंगे। ये आधी जनता अब भी खुले में ही शौच की सुविधा लेती है। इस आधी जनता ने कभी बगावत की नहीं सोची। ये आधी जनता वोट भी डालती है, अपने नुमाइंदे भी चुनती है, ‘किंग मेकर’ भी कही जाती है। मगर इसे ‘शौचालय’ तक उपलब्ध नहीं है।
पूरा देश इस इन्तज़ार में है कि ‘गोदो’ आएगा तो भ्रष्टाचार समाप्त होगा। गांधी बाबा, नेहरू, पटेल, शास्त्री जो नहीं कर पाए वो ‘गोदो’ करेगा। यानी ‘गोदो’ आएगा तो ‘कोलगेट’, ‘टू जी’, ‘सीडब्ल्यूजी’ सरीखे भ्रष्टाचार-कांडों पर लगाम लगेगी। जेपी और लोहिया जो बातें मुलायम व लालू को नहीं समझा पाए वो बातें ‘गोदो’ आकर समझाएगा। हकीकत यह है कि ‘गोदो’ नाम का कोई पात्र है ही नहीं। ‘गोदो’ उस अिचन्ही अंजानी उम्मीद का प्रतीक है जो पूरी होगी तो देश के दुख-दर्द कटेंगे। अब वे कद्दावर नेता कहां से लाएं जो जीप-स्कैंडल में लापरवाही के आरोप पर अपने सबसे प्यारे दोस्त एवं रक्षामंत्री कृष्ण मेनन से त्याग पत्र ले लिया करते थे। ऐसे शास्त्री सरीखे लोगों की प्रजाति तो कब की लुप्त हो चुकी है जो पूरी उम्र तीन धोतियों व तीन कुर्तों में ही काट देते थे और मात्र एक रेल-दुर्घटना पर ही नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए त्याग पत्र दे देते थे। अब वे कद्दावर नेता तो नहीं रहे। उम्मीद थी कि अगली पीढ़ी और भी बेहतर आएगी। मगर लगा कि उन कद्दावरों के जाते ही लिलिपुटियन बौने राजनीतिज्ञों की एक भीड़ में सत्ता के गलियारे में घुस आई और धमाचौकड़ी मच गई। कुछ नेता धर-दबोचे भी गए। मगर किसी ने कोई सबक नहीं सीखा।
अब कुछ शख्सियतें उभरी हैं। एक नरेंद्र मोदी की है। कुछ अन्य हैं श्रीमती सीतारमण, राजनाथ सिंह, अमित शाह, नितिन गडकरी आदि। वे कुछ ताज़ा हवा की बात कर रहे हैं। अभी भी आवश्यकता है कुछ बेदाग युवा चेहरों को प्राथमिकता देनी होगी। थोड़े कड़े कदम उठाने होंगे। थोड़ी नाराज़गी झेलनी होगी। दागों व दागदारों से परहेज़ का संदेश देना होगा। छोटी-छोटी बहसों से ऊपर उठना होगा। कड़े फैसले लेने होंगे और उन पर कड़ाई से अमल करना होगा। छोटे-छोटे समझौतों से परहेज़ करना होगा और यह तथ्य आत्मसात करना होगा कि ‘बीच का रास्ता नहीं होता।’ वरना यह देश गोदो की प्रतीक्षा में ही रहेगा। चंडीगढ़ के एक कवि ‘कुमार विकल’ की बात याद आती रहेगी ः- ‘गोदो’
तुम कभी नहीं आते
हम सभी जानते हैं,
तुम कभी नहीं आओगे।
फिर भी हम सभी तुम्हारी प्रतीक्षा में रहते हैं।
सुनते हैं, तुम भेड़ों के मालिक हो,
दूर चरागाहों में रहते हो, और तुम्हारी
श्वेत धवल दाढ़ी बहुत भली लगती है।
तुम कब आओगे-
बेकारों को रोज़गार, भूखों को रोटी उम्र
कैदियों को छुट्टी, बच्चों को चाकलेट-
और कॉफी-हाउस में बैठे लोगों के बिल दे जाओगे।
इसीलिए तो-
फुटपाथों पर बैठे मज़दूर
रेल पुलों पर ऊंघ रहे भिखमंगे
जेलों में चक्की पीस रहे कैदी
गलियों में खेल रहे बच्चे
कॉफी-हाउसों में मेज़ों पर झुके हुए चेहरे
हर आहट पर चौंक-चौंक जाते हैं
लेकिन…
तुम कभी नहीं आते।
हम सभी जानते हैं,
तुम कभी नहीं आओगे,
फिर भी हम तुम्हारी प्रतीक्षा में रहते हैं
क्योंकि तुम हर रोज़ (हर चुनाव में) हमें
कल आने का संदेश भेजते रहते हो।
इन चुनावों का एक अंधियारा पक्ष यह है कि प्राय: राजनैतिक दल व राजनेता अपने वंशवाद और जातिवाद से बाहर आने को तैयार ही नहीं हैं। अभी भी अपने बुज़ुर्गों की नेक कमाई का झंडा उठाकर सत्ता के गलियारे में प्रवेश के लिए मशक्कत हो रही है। दूसरा नेता वर्ग वह है जो अपने शिखर नेताओं के नाम पर सत्ता के गलियारे में प्रवेश के लिए प्रयासरत है। अपनी प्रतिभा, अपनी उपलब्धि, अपनी काबिलियत की चर्चा बहुत ही कम लोगों के एजेंडे में है। तीसरी बात यह भी दुखद है कि नए तरोताज़ा युवा चेहरों को अब भी तरजीह नहीं मिल रही और चौथी व अंतिम बात यह है कि बुद्धिजीवियों, कलाकारों, संगीतकारों, लेखकों, पत्रकारों और कम्प्यूटर ऑपरेटरों, चित्रकारों की 37वीं बिरादरी को अब भी कोई नहीं पूछता। वे इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया में अभी भी अंतिम पंक्ति में खड़े हैं। उन्हें कोई भी दल वोट बैंक के रूप में भी गंभीरता से नहीं लेता है?