श्रीमती इंिदरा गांधी की जघन्य हत्या के बाद उपजे सिख विरोधी उपद्रव में निरीह सिख नागरिकों को मौत के घाट उतारने के सिलसिले में दिल्ली की अदालत ने जिन दो व्यक्तियों को कठोर सजा सुनाई है उससे यह तो सिद्ध हो गया है कि न्याय की तराजू पर वे लोग तुले बिना नहीं रह सकते जिनके खिलाफ पुख्ता सबूत थे। जिन दो व्यक्तियों को सजा मिली है उनमें से एक को फांसी और दूसरे के लिए उम्र कैद मुकर्रर हुई है। जहां तक राजधानी दिल्ली में ही दो हजार के लगभग सिखों के मारे जाने का सम्बन्ध है, उनका दोष कांग्रेस पार्टी के कुछ नेताओं पर शुरू से ही लगाया जा रहा है जिनमें से कुछ के खिलाफ नानावती जांच आयोग में सबूत भी पाये गये थे। यह रिपोर्ट 2005 में प्रकाशित हुई थी और इसमें कुछ कांग्रेस नेताओं के नाम आने पर कांग्रेस ने उनसे पल्ला झाड़ लिया था।
टाइटलर को मन्त्री पद से त्यागपत्र देना पड़ा था। असल में 31 अक्तूबर से लेकर 3 नवम्बर 1984 तक जिस प्रकार के हालात दिल्ली में बने थे वे अत्यन्त अफसोसनाक और प्रतिशोध की ज्वाला से भड़के हुए थे। उस समय श्री राजीव गांधी को प्रधानमन्त्री पद की शपथ दिलाई गई थी। वह राजनीति के कच्चे खिलाड़ी थे और जमीनी राजनैतिक हकीकत से लगभग नावाकिफ थे। उन्हें प्रधानमन्त्री बनाने की असली वजह यह थी कि वह इंदिरा गांधी के पुत्र थे। 31 अक्तूबर को इंदिरा जी की हत्या उन्हीं के दो सिख अंगरक्षकों द्वारा किये जाने के बाद जिस प्रकार लोगों में दुःख और गुस्सा था उसका रुख पूरे सिख समुदाय के विरुद्ध मोड़ने का प्रयास राजनैतिक लाभ प्राप्त करने के लिए जिस प्रकार हुआ वह स्वतन्त्र लोकतान्त्रिक भारत के माथे पर कलंक ही कहा जाएगा मगर इसके बाद राजनीति ने जो करवट ली उसमें उग्र व हिंसक सम्प्रदायवाद एक राजनैतिक औजार बन गया।
1984 के बाद का भारत का चुनावी इतिहास इस बात की खुल कर गवाही देता है और हमें सजग करता है कि हम अपना विकास व प्रगति संकीर्ण राजनीतिक विमर्श के माध्यम से कदापि नहीं कर सकते। सिख विरोधी हिंसा का विरोध तब दिल्ली की सड़कों पर ही पूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी से लेकर स्व. चन्द्रशेखर, शरद यादव व राम विलास पासवान जैसे नेताओं ने खुलकर किया था और उस समय में दिल्ली में रह रहे पांच बड़े सिख व्यक्तित्वों ने दिल्ली में सिखों का कत्लेआम शुरू होने पर तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह से मिलकर तुरन्त सेना को बुलाने की मांग की थी। इनमें स्व. एयर चीफ मार्शल अर्जन सिंह व बंगलादेश युद्ध के नायक लेफ्टि. जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा भी शामिल थे मगर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उस समय की ताजा बनी राजीव सरकार के गृहमंत्री स्व. पी.वी. नरसिम्हा राव थे।
देश के गृहमंत्री के रूप में दिल्ली की पुलिस उन्हीं के प्रति जवाबदेह थी और कानून-व्यवस्था की जिम्मेदारी भी उन्हीं की थी मगर दिल्ली में जिस तरह तीन दिन तक तांडव मचा था उसके प्रति स्व. नरसिम्हा राव इस प्रकार उदासीन रहे कि उन्होंने 1 नवम्बर 1984 को राष्ट्रपति भवन से आये ज्ञानी जैल सिंह के फोन को भी यह सन्देश देकर नहीं सुना कि वह एक जरूरी बैठक में हैं। जबकि 31 अक्तूूबर 1984 को शाम छह बजे नई सरकार के मन्त्री के रूप में उन्हें राजीव गांधी से भी पहले शपथ दिलाई गई थी क्योंकि स्व. गांधी को शपथ लेने में 55 मिनट की देरी हुई थी। राजीव गांधी उस दिन कोलकाता में थे और विमान से दिल्ली पहुंचे थे।
दो दिन बाद सेना के आने से पहले पूरी दिल्ली दंगाइयों के लिए मनमाफिक खेल का मैदान बनी हुई थी और स्व. राव अपनी ही पुलिस की निष्क्रियता खुली आंखों से देख रहे थे। कहने को वह राजीव सरकार में नम्बर पर दो पर थे मगर सबसे हृदय विदारक यह था कि दिल्ली में सिक्रय सभी राजनैतिक दल मूकदर्शक बने हुए थे और किसी ने भी इस नृशंस कांड के विरुद्ध आवाज उठाने की हिम्मत नहीं की थी लेकिन इसी से जुड़ा हुआ दूसरा महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि पंजाब में आतंकवाद के चलते जिस तरह वहां पर एक ही सम्प्रदाय के लोगों की चुन-चुन कर हत्या की जा रही थी उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप भी देश के लोगों में इस वीभत्स जघन्य नरसंहार के प्रति तटस्थता ने जन्म दे दिया था मगर यह पूरी तरह हैवानियत की हद तोड़ने का सबूत था कि पुलिस की नाक नीचे दिल्ली मंे सिखों को जलाया जा रहा था और उनकी सम्पत्ति को लूटा जा रहा था और उन्हें सुरक्षा देने वाला कोई नहीं था।
स्वयं को सभ्यता का अलम्बरदार बताने वाले लोग कहीं दुबके पड़े थे और असभ्यता की आग से पूरे शहर को जलता हुआ देख रहे थे। 31 अक्तूबर से 31 दिसम्बर तक श्री राव गृहमन्त्री थे क्योंकि उनके बाद स्व. एस.बी. चव्हाण इस पद पर आये थे और वह रक्षामन्त्री बने थे। एेसे मामले में अगर 34 वर्ष बाद न्याय की किरण फूटी है तो उसका सर्वत्र स्वागत किया जाना चाहिए और तय किया जाना चाहिए कि किसी भी सम्प्रदाय के खिलाफ देश के किसी भी अन्य हिस्से में हुई इस प्रकार की घटनाओं का हश्र भी एेसा ही होगा लेकिन यह ध्यान रखा जाना जरूरी है कि गुनाहगारों की पहचान करने में न्यायिक प्रक्रिया पर ही भरोसा किया जाये और व्यक्तिगत दुराग्रहों को इसमें न लाया जाये। क्योंकि 6 दिसम्बर 1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद के ढहाये जाने के समय स्व. नरसिम्हा राव इस देश के प्रधानमंत्री थे और इस घटना के बाद देश में जिस तरह साम्प्रदायिक दंगे फैले थे उनमें भी हजारों इंसानों की जान गई थी। मरने वाले हिन्दू, मुसलमान या सिख हो सकते हैं मगर वे सभी भारतीय थे और सभी के लहू का रंग लाल ही था क्योंकि वे सब इंसान थे। राजनीति इंसानियत से ऊपर तो किसी कीमत पर नहीं हो सकती बल्कि इंसानियत को ही ऊपर रखने के लिए राजनीति की जाती है।