लोकतंत्र की शान है - Punjab Kesari
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लोकतंत्र की शान है

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इसमें कोई शक नहीं कि हमारे देश में मुस्लिम समाज को राजनीति के हथियार की तरह इस्तेमाल किया जाता है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक लोकतंत्र में जिस वोट तंत्र कीसबसे ज्यादा जरूरत होती है उसमें नेताओं की पहली पसंद मुसलमान ही रहते हैं और फिर इन्हें इस्तेमाल भी किया जाता है। अब पहली बार किसी राजनीतिक व्यक्ति ने मुस्लिम महिला समाज के दर्द को समझते हुए संविधान के तराजू पर उसे बराबरी का वह सम्मान दिलाने की पहल की है, जो कानूनन उसका अधिकार था। राजनीति के फलसफे पर मुस्लिम वोटों के नफे-नुकसान की परवाह न करते हुए आज से छह महीने पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आवाज बुलंद की थी कि तीन तलाक के नाम पर मुस्लिम बहनों को सचमुच नर्क की जिंदगी झेलनी पड़ रही है।

मोदी की एक क्वालिटी है कि सार्वजनिक स्तर पर वह जो कुछ कहते हैं वह उसे निभाते हैं। उनका पैरामीटर राष्ट्रीयता है। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने 22 अगस्त को जिस प्रकार तीन बार तलाक, तलाक, तलाक कहकर वैवाहिक संबंध खत्म करने को असंवैधानिक करार दिया तो उसका महिला मुस्लिम समाज के अलावा अनेक बड़े मुस्लिम संगठनों ने स्वागत किया है। सारा मामला उन मौलवियों के उस आडम्बर का था जिसके तहत एक महिला को उसका शौहर तीन बार तलाक, तलाक, तलाक कहकर अपना नया निकाह कर लेता था।  सबसे बड़ी ट्रैजडी यह है कि लाखों मुस्लिम बहनों को अपने पति के बगैर, अपने बच्चों के साथ रहना पड़ता था और यह अपने आप में एक बहुत ही दु:खदायी बात है कि एक औरत सुहागिन होते हुए विधवा का जीवन जी रही है और जो महाशय पति देव हैं वह किसी दूसरी औरत के शौहर बन चुके हैं।
अगर कोई बीच-बचाव करके तीन तलाक का शिकार हुई औरत को उसके पति से मिलवाने की कोशिश करता तो हलाला की शर्त रखी जाती थी। उस महिला को किसी नए पुरुष से शादी के नाम पर हमबिस्तर होना पड़ता था और तब वह अपने पुराने शौहर के पास लौट सकती थी।

माफ करना मौलवी लोग इस काम के लिए ठेकेदार बने हुए थे। मुस्लिम बहनों ने इसका डटकर विरोध किया और आज अनेक संगठन अब गुहार लगा रहे हैं कि इस कुप्रथा को भी खत्म करते हुए नया कानून बना देना चाहिए। अहम बात यह है कि यहां 1985 का वह शाहबानो केस भी बहुत अहमियत रखता है जब पांच बच्चों की एक मां को उसके पति ने तलाक, तलाक, तलाक कहकर छोड़ दिया लेकिन यह औरत सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई। सात साल तक यह औरत केस लड़ती रही और वह केस जीत गई। सुप्रीम कोर्ट ने उसके शौहर को अपनी छोड़ी हुई पत्नी को गुजारा भत्ता देने का ऐलान किया। उस समय की सरकार के पीएम राजीव गांधी थे और उनके राजनीतिक पैरोकारों ने मुस्लिम वोटों को हाथ से छिटक जाता देख उन्हें यह सलाह दे डाली कि किसी भी सूरत में इस मामले पर राजनीतिक रूप से हमें नहीं पडऩा चाहिए। इसीलिए न्याय के मंदिर के रूप में सबसे बड़ी संसद में सरकार ने आनन-फानन में कानून बदलवा डाला।

मामला गुजारा भत्ता से नहीं बल्कि की उस व्यवस्था के विरोध का था, जिसे मुस्लिम महिलाएं आज तक झेल रही हैं। शाहबानो की तर्ज पर इशरतजहां, सायरा बानो, आफरीन रहमान, आतिया साबरी और गुलशन परबीन ने भी तलाकनामे को लेकर कानूनी लड़ाई लड़ी। सबसे बड़ी बात यह है कि 1985 में कांग्रेसी सांसद आरिफ मोहम्मद खान ने तीन तलाक के विरोध में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान करते हुए कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया था। उन्होंने साफ कहा था कि तीन तलाक इस्लाम के खिलाफ है लेकिन मुस्लिम वोटों के चक्कर में जिस तरह से तीन तलाक को अवैध करार दिया गया और वहीं से मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को मजबूती मिली। बची-खुची कसर कट्टरपंथी मौलवियों ने पूरी कर दी। मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक और हलाला की बात कहकर जिस तरह से एक कुप्रथा को आज तक चलाया जा रहा था इस पर सही चोट और सही फैसला तो सुप्रीम कोर्ट ने लिया है।

मुस्लिम महिलाओं के चेहरे बुर्के या उस नकाब के पीछे की अंधेरे से भरी उस जिंदगी के बारे में भी सोचा जाना चाहिए जो उसे दोजख में धकेलती है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला सचमुच इन महिलाओं के जीवन में एक ऐसी आजादी लाया है जिसकी नींव हमारे संविधान ने रखी थी।  कहने वाले कह रहे हैं कि अब गेंद सियासतदानों के हाथ में है लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में तीन तलाक को खत्म करते हुए यह व्यवस्था दे दी है कि नया कानून इस मामले में बनाया जाए तो साथ ही हमारा यह मानना है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और कट्टरपंथी मौलवियों के खौफ का बम्बू अब उखड़ चुका है। पुराने रस्मों-रिवाजों की आड़ में अगर कोई मजहब का नाम लेकर किसी के साथ अन्याय करता है, शारीरिक शोषण करता है, जबर्दस्ती करता है तो इसे किसी भी सूरत में इस्लाम नहीं कहा जा सकता। मुस्लिम बहनें आज दीवाली मना रही हैं तो हमें इस बात की खुशी है कि देश में संवैधानिक समानता के नियम लागू हो रहे हैं। यही भारत के लोकतंत्र की विशेषता है। यही इसकी महानता है। अब किसी को बुरा लगे तो लगे। हम तो यही कहेंगे कि भारत की लोकतांत्रिक राष्ट्रीयता की सच्ची धर्मनिरपेक्षता भी यही है, जिसमें हिन्दू, मुसलमान, सिख और ईसाई कश्मीर से कन्याकुमारी तक बराबर हैं।

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