भारत में नदियों के जल बंटवारे काे लेकर विभिन्न राज्यों के बीच विवाद कोई नया नहीं है, खासकर तमिलनाडु व कर्नाटक के मध्य विवाद की जड़ें उस ब्रिटिश भारत के समय से रही हैं जब देशी राजे-रजवाड़ाें के साथ ही अंग्रेजों द्वारा बनाई गई प्रेजीडेंसी भी हुकूमतें चला रही थी। आजाद भारत में 1956 में राज्यों के पुनर्गठन होने के समय भी इस तथ्य का ध्यान रखा गया था कि नये राज्यों के बीच प्राकृतिक स्रोतों पर विवाद न हो सके और उनकी सीमाएं इस प्रकार निर्धारित की जायें जिससे उनके बीच बहने वाली नदियों के जल पर आपस में जुड़े राज्यों के लोगों के बीच कोई मनमुटाव पैदा न हो सके। इसके बावजूद भौगोलिक परिस्थितियों को नहीं बदला जा सकता था और राज्यों की सीमाएं इन्हीं के बीच निर्धारित होनी थीं। कावेरी नदी के जल बहाव क्षेत्र को देखते हुए ही इसके तटवर्ती इलाकों में बसे कर्नाटक व तमिलनाडु के जो क्षेत्र आते हैं वे इसके जल से ही अपने को कृषि सम्पदा से धन-धान्यपूर्ण बनाते रहे हैं परन्तु यह भी हकीकत है कि भारत के जिस राज्य से जो नदी निकलती है उस पर उस राज्य के लोग परोक्ष रूप से अपना एकाधिकार मानते हैं जबकि वास्तव में एेसा होता नहीं है क्योंकि नदियां कभी लोगों में भेदभाव नहीं करती हैं। इसके बावजूद राज्यों के आकार में बन्धे लोग अक्सर उसके पानी पर अधिकार को लेकर उलझ जाते हैं। कावेरी जल बंटवारे का जो फार्मूला सर्वोच्च न्यायालय ने सुझाया है वह वास्तव में न तो किसी राज्य के हक में है और न किसी के विरोध में बल्कि वह समान रूप से इस नदी के जल पर निर्भर लोगों के पक्ष में है।
फैसले में कर्नाटक का हिस्सा थोड़ा बढ़ाया गया है और तमिलनाडु के हिस्से में थोड़ी कमी की गई है। इस पर तमिलनाडु के राजनीतिज्ञों में असन्तोष है और वे फैसले की पुनर्समीक्षा के लिए याचिका दायर करने की बात कर रहे हैं मगर वे भूल रहे हैं कि न्यायालय के समक्ष तमिलनाडु की ओर से दायर दलीलों को देखते हुए ही यह फैसला आया है। कर्नाटक की भौगोलिक परिस्थितियों को देखते हुए ही सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायसंगत बंटवारा फार्मूला निकाला है। नदियों के जल बंटवारे को लेकर जब किन्ही दो राज्यों में आपसी सहमति नहीं बन पाती है और केन्द्र के हस्तक्षेप के बावजूद जब कोई समझौता नहीं हो पाता है तो मामला न्यायालय में जाता है और वहां से जो फैसला होता है वह सभी पक्षों को मान्य होता है परन्तु एेसे मुद्दों पर जम कर राजनीति होती है और इस कदर होती है कि दोनों राज्यों के लोगों के बीच रंजिश तक फैलाने से भी पीछे नहीं हटा जाता। एक ही देश के भीतर के लोग जब इन मुद्दों पर झगड़ते हैं तो वे भारतीय होने के भाव को पीछे कर देते हैं। इससे राष्ट्रीय स्तर पर हमें जो नुकसान होता है उसका जायजा लेने की कोशिश कभी नहीं की जाती। आधुनिक दौर में जल के उपयोग के हमने जो वैज्ञानिक तरीके खोजे हैं उनका उपयोग आपसी विवाद बढ़ाने के लिए न हो सके, इसके लिए राज्यों को ही आपस में मिल-बैठकर सर्वमान्य फार्मूला निकालना होगा। यह फार्मूला तभी निकल सकता है जब राजनीति को ताक पर रखकर क्षेत्रवाद से ऊपर उठकर मानवीय भावना से कार्य किया जाये। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में स्पष्ट किया है कि किसी भी नदी का कोई भी राज्य मालिक नहीं होता बल्कि वह उसका संरक्षक होता है।
इसका मतलब यही है कि अपने क्षेत्र से निकलने वाली नदी के जल का अधिकाधिक दोहन करने के स्थान पर उसे अधिकतम मानवोपयोगी बनाने की व्यवस्था पर जोर दिया जाये। न्यायालय ने कावेरी जल प्रबन्धन बोर्ड के गठन का आदेश इसीलिए दिया है जिससे इसके जल के बंटवारे से सभी के साथ न्याय हो सके और तमिलनाडु के लोगों को भी किसी प्रकार की शिकायत न हो। इसमें किसी भी पक्ष की हार या जीत का कोई सवाल पैदा नहीं होता है क्योंकि कावेरी जब तमिलनाडु से होकर समुद्र में समाहित होगी तो रास्ते में बसे तमिलनाडु के किसानों का भी उस पर मौलिक अधिकार होगा परन्तु इससे पहले कर्नाटक के लोगों की जरूरतों का भी ध्यान रखना आवश्यक है जिसकी वजह से बेंगलुरु शहर के निवासियों के पेयजल लिए न्यायालय ने प्रथक रूप से थोड़ा जल आवंटन किया है। बेंगलुरु शहर की आबादी जिस तरह पिछले 20 साल में बढ़ी है उसकी वजह से झीलों और उद्यानों का शहर कहे जाने वाली इस खूबसूरत नगरी की हालत बदहाल हो चुकी है और यहां की झीलें औद्योगिक कचरे की वजह से तेजाबी पानी की पोखरें बन चुकी हैं जबकि पहले इन्ही प्राकृतिक झीलों से पूरे शहर को पेयजल की आपूर्ति होती थी। इसके लिए किसे जिम्मेदार ढहराया जाये? परन्तु यह भी सत्य है कि भारत के अनगिनत जल स्रोतों को देखते हुए इसमें जल की कमी नहीं है, कमी है तो जल के कारगर प्रबन्धन की। इसके लिए केन्द्र में पृथक मन्त्रालय होने के बावजूद कोई विशेष प्रगति नहीं हुई है, इसकी असली वजह हमारी विकास की गलत प्राथमिकताएं कही जा सकती हैं। अन्धाधुन्ध बेहिसाब औद्योगीकरण हमारे जल-जंगल और जमीन को ही नहीं निगल रहा है बल्कि वायुमंडल को भी प्रदूषित कर रहा है। हमें इस तरफ गंभीरता के साथ विचार करना ही होगा और वैकल्पिक विकास रूपरेखा के विस्तार पर ध्यान देना होगा। अभी तो केवल कर्नाटक व तमिलनाडु के बीच का नदी विवाद समाप्त हुआ है मगर उस ‘महादयी’ नदी के जल बंटवारे का क्या होगा जो कर्नाटक, महाराष्ट्र व गोवा के बीच फंसा हुआ है? इसी प्रकार पंजाब व हरियाणा के बीच चल रहा सतलुज- यमुना लिंक नहर विवाद का क्या होगा? ईश्वर और प्रकृति ने तो भारत को अपनी नेमतों से नवाजने में कोई कसर नहीं छोड़ी है ! जाहिर है ये सभी प्राकृतिक उपहार भारत को हरा-भरा बनाने के लिए ही हैं।