पूर्व प्रधानमन्त्री डाॅ. मनमोहन सिंह के निधन से राजनीति का वह दौर समाप्त हो गया है जिसे स्वतन्त्र भारत का ‘उत्तिष्ठ जागृतं’ अध्याय कहा जायेगा। बेशक मनमोहन सिंह का आर्थिक स्वप्न प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू के फलसफे से मेल नहीं खाता था मगर उन्होंने भारत में आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू करके इसे मानवीय चेहरा पहनाने का अथक प्रयास किया और बदलते विश्व व अन्तर्राष्ट्रीय जगत में भारत के विकास की नई इबारत लिखी। डा. मनमोहन सिंह मूलतः राजनीतिज्ञ नहीं थे परन्तु राजनीति में प्रवेश करके उन्होंने जीवन के इस पक्ष को नई दिशा देने का प्रयास किया और सबूत दिया कि इस क्षेत्र में सदाकत के लिए भी कोई कमी नहीं है। डाॅ. मनमोहन सिंह एेसी शख्सियत थे जिसे कांग्रेस पार्टी के विरोधी भी पूरी इज्जत बख्शते थे। मनमोहन सिंह का कम बोलना उनके व्यक्तित्व का वह हिस्सा था जिसमें कांटों से घिरे ‘गुलाब’ जैसी सुगन्ध थी।
दरअसल स्वतन्त्रता के बाद के भारत के इतिहास को तीन भागों में बांटा जा सकता है। पहला भाग पं. नेहरू के नाम का है और दूसरा भाग श्रीमती इन्दिरा गांधी के दौर का है और निश्चित रूप से तीसरा भाग मनमोहन सिंह को समर्पित किया जायेगा क्योंकि उन्होंने जो आर्थिक नीतियां बनाईं उन्हीं पर 1991 के बाद से भारत अभी तक आगे बढ़ रहा है। उनकी आर्थिक नीतियों का भारतीय समाज पर बहुत गहरा असर इस तरह पड़ा कि नई पीढि़यां लाइसेंस-कोटा राज से अनभिज्ञ हो गईं। उन्होंने 1989 के बाद 1991 तक जारी राजनैतिक अस्थिरता को अपने आर्थिक विचारों से इस तरह कुन्द किया कि पूरा भारत बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के गुण-दोष का आंकलन करने लगा। जब स्व. विश्वनाथ प्रताप सिंह से लेकर स्व. चन्द्रशेखर के प्रधानमन्त्रित्वकाल में भारत कंगाली की हद तक पहुंचने वाला था तो उन्होंने स्व. पी.वी. नरसिम्हा राव की सरकार के वित्तमन्त्री रहते हुए विदेशी निवेश का एेसा मन्त्र फूंका कि एेतिहासिक लालकिले से तत्कालीन प्रधानमन्त्री भी इसका उवाच करने लगे। जरा सोचिये कि जिस देश को विदेशी मुद्रा की जरूरत के लिए स्व. चन्द्रशेखर के प्रधानमन्त्री रहते अपना सोना गिरवी रखना पड़ा हो उसी देश में उनके वित्त मन्त्री होने के बाद विदेशी मुद्रा डालर की बरसात होने लगे तो इसे हम किस रूप में लेंगे? उस समय के प्रधानमन्त्री नरसिम्हा राव ने भुगतान सन्तुलन की समस्या को भारत के गली-चौबारों तक पहुंचा दिया था जिसे डाॅ. मनमोहन सिंह ने वित्त मन्त्री बनने के बाद ‘डालर’ की आवक में तब्दील कर दिया। उन्होंने स्व. इन्दिरा गांधी की तरह ही रुपये का अवमूल्यन किया और भारत के बाजारों को विदेशी कम्पनियों के लिए सिलसिलेवार खोला (1966 में भी पाकिस्तान से युद्ध के बाद भारत के पास केवल तीन सप्ताहों की आयात जरूरतों को पूरा करने हेतु विदेशी भंडार बचा था तब इन्दिरा जी ने रुपये का अवमूल्यन किया था और डाॅलर की कीमत साढे़ चार रुपये से साढे सात रुपये हो गई थी)।
डाॅ. मनमोहन सिंह जब यह सब कर रहे थे तो उनकी आर्थिक दृष्टि भारत में हो रहे राजनैतिक बदलाव के साथ कांग्रेस पार्टी को सामंजस्य बनाने की प्रेरणा दे रही थी क्योंकि उनकी आर्थिक नीतियों का सीधा प्रभाव भारतीय समाज के ढांचे पर पड़ना लाजिमी था। मनमोहन सिंह सरलता, सज्जनता, सादगी और ईमानदारी की प्रतिमूर्ति थे मगर यह भी सच है कि जब 2004 में वह पहली बार प्रधानमन्त्री बने तो कांग्रेस को लोकसभा में अपना बहुमत सिद्ध करने के लिए एक दर्जन के लगभग क्षेत्रीय दलों का समर्थन लेना पड़ा था। इन क्षेत्रीय दलों में बहुत से दलों पर भ्रष्टाचार के आरोप भी थे जिसकी वजह से भाजपा के तत्कालीन विपक्ष के नेता श्री लालकृष्ण अडवानी को कहना पड़ा था कि ‘चांद पर दाग’ लग गया है। मगर ध्यान देने वाली बात यह है कि श्री अडवानी ने मनमोहन सिंह की तुलना शीतलता प्रदान करने वाले ‘चांद’ से ही की थी।
यही विशेषता और भव्यता डाॅ. मनमोहन सिंह के व्यक्तित्व की थी जिसे सभी राजनैतिक दल स्वीकार करते थे लेकिन यह मानना पूरी तरह गलत होगा कि डाॅ. मनमोहन सिंह सरल व सहज और सज्जन होने की वजह से राजनैतिक फैसलों में ढीलमढाले थे। उनके व्यक्तित्व का दूसरा पहलू यह भी था कि वह दृढ़ प्रतिज्ञ थे। इसका प्रदर्शन उन्होंने तब किया जब 2008 में भारत व अमेरिका के बीच परमाणु करार हुआ। 123 समझौते के नाम से प्रसिद्ध इस करार को करने के लिए उन्होंने प्रधानमन्त्री रहते ही अपनी पार्टी के गठबन्धन दलों से स्पष्ट कर दिया था इस समझौते को करने के लिए वह किसी भी सीमा तक जा सकते हैं और इसके लिए अपनी सरकार को भी दांव पर लगा सकते हैं। मनमोहन सिंह की सरकार वामपंथी दलों द्वारा दिये जा रहे बाहर से समर्थन के बूते पर चल रही थी और इन दलों ने समझौते के खिलाफ अपना मत साफ कर दिया था। तब डाॅ. मनमोहन सिंह ने इस समझौते को परवान चढ़ाने के लिए कांग्रेस पार्टी के राजनीति के कुशल खिलाड़ी भारत रत्न स्व. प्रणव मुखर्जी का चयन किया और संसद में इसके पक्ष में माहौल बनाने का जिम्मा सौंपा। विदेश मन्त्री के रूप में स्व. मुखर्जी ने नई दिल्ली से लेकर वाशिंगटन तक समझौते के लिए प्रयास किये और वामपंथियों के विरोध के बावजूद इसे लोकसभा से पारित कराया। वास्तव में यह समझौता दुनिया के इतिहास में विशिष्ट स्थान रखता है क्योंकि इससे भारत की आने वाली पीढि़यां सीधे प्रभावित हो रही हैं। हालांकि डा मनमोहन सिंह के प्रधानमन्त्री के रूप में दूसरा 2009 से लेकर 2014 का कार्यकाल विभिन्न आरोपों से ग्रसित रहा जिनमें वित्तीय घोटाले प्रमुखता में थे परन्तु मनमोहन सिंह पर आरोप लगाने की किसी भी दल में हिम्मत नहीं हुई। बाद में अदालतों में सभी प्रकार के भ्रष्टाचार के आरोप भी निर्मूल साबित हुए लेकिन डाॅ. मनमोहन सिंह को प्रधानमन्त्री बनाने में कांग्रेस नेता श्रीमती सोनिया गांधी की प्रमुख भूमिका थी। अतः 2009 के चुनावों में जब कांग्रेस पार्टी की लोकसभा में 209 सीटें आयीं तो इससे पहले ही श्रीमती गांधी ने घोषणा कर दी थी कि यदि उनके संगठन (यूपीए) को बहुमत मिलता है तो अगले प्रधानमन्त्री डाॅ. मनमोहन सिंह ही होंगे जबकि उन्हें लोकसभा चुनाव के लिए टिकट भी नहीं दिया गया था। मनमोहन सिंह के अजातशत्रु होने का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है।