आज से संसद का ‘सावन’ सत्र ( मानसून सत्र) शुरू हो रहा है जो केवल 20 दिन का 17 बैठकों वाला होगा। हम पिछले कुछ वर्षों से देख रहे हैं कि किस प्रकार संसद के सत्र छोटे पर छोटे होते जा रहे हैं और साल में संसद बामुश्किल 55 या 56 दिन के लिए ही बैठती है और उसमें भी सार्थक चर्चा होने के स्थान पर सत्ता व विपक्षी खेमों के बीच एक-दूसरे के ऊपर आरोप-प्रत्यारोपों की बौछार होती रहती है और भारी शोर-शराबा मचता रहता है या बैठकें बार-बार स्थगित होती रहती हैं। भारत पूरी दुनिया में संसदीय प्रणाली का सबसे बड़ा लोकतन्त्र है और इसके बावजूद इसकी संसद की हालत ऐसी हो गई है कि 17वीं लोकसभा का कार्यकाल पूरा होने में अब केवल मुश्किल से नौ महीने ही बचे हैं मगर इसे अभी तक अपना उपाध्यक्ष ही नहीं मिल पाया है। इसे हम यदि ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो यह बहुत बड़ी विडम्बना है क्योंकि स्वतन्त्र भारत का संविधान लिखने वाले बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने ही बहुत स्पष्ट शब्दों में घोषणा की थी कि संसद पर पहला अधिकार विपक्ष का होता है क्योंकि वह अल्पमत में होता है मगर उसी जनता का प्रतिनिधित्व करता है जिसका प्रतिनिधित्व बहुमत का सत्ताधारी दल करता है। अतः विपक्ष द्वारा उठाये गये मुद्दों और विषयों पर विशद चर्चा कराना सत्ताधारी दल का नैतिक कर्त्तव्य बन जाता है। मगर हम तो देखते आ रहे हैं कि पिछले सत्र में जिस प्रकार एक के बाद एक विधेयक बिना चर्चा के ही संसद के दोनों सदनों के भीतर भारी शोर-शराबे के बीच पारित होते रहे यहां तक कि चालू वित्त वर्ष के वजट को भी बिना किसी चर्चा के ही ध्वनिमत से पारित कर दिया गया।
हम भंयकर गलती कर रहे हैं क्योंकि हम उसी संसद को अप्रासंगिक बनाने का प्रयास कर रहे हैं जिसके साये में इस देश का पूरा निजाम चलता है और जिसमें बैठे हुए आम जनता के प्रतिनिधि आम लोगों से ताकत लेकर उसे चलाने की जिम्मेदारी उठाते हैं और इस मुल्क के हर तबके के लोगों का जीवन स्तर सुधारने के लिए नीतियां बनाते हैं। भारतीय संविधान के तहत संसद को सार्वभौम इस तरह माना गया है कि इसे नये कानून बनाने का भी अधिकार है, बशर्ते वे कानून संविधान की कसौटी पर खरे उतरते हैं जिनकी तसदीक करने का हक सर्वोच्च न्यायालय को दिया गया है। इसलिए संसद को सुचारू रूप से चलाने की जिम्मेदारी सत्ता पक्ष को ही दी गई और इसके लिए एेसी सुगठित व्यवस्था की गई कि केन्द्र सरकार में एक पृथक संसदीय कार्य मन्त्रालय तक सृजित किया गया। मगर हमने पिछले सत्र में देखा कि खुद सत्तापक्ष के ही सांसदों ने संसद को नहीं चलने दिया औऱ पूरा सत्र व्यर्थ ही चला गया।
संसदीय कार्यमन्त्री का मुख्य कार्य विपक्ष के साथ संवाद कायम करके संसदीय कामकाज को सामान्य तरीके से चलाने का होता है। मगर इसके साथ ही दोनों सदनों के सभापतियों की भी यह जिम्मेदारी होती है कि वे संसद की कार्यवाही को चलाने के लिए संसदीय कार्यमन्त्रणा समितियों से लेकर विभिन्न राजनैतिक दलों के नेताओं की सहृदयता प्राप्त करने का प्रयास करें। इसी वजह से हमारे संविधान निर्माताओं ने संसद को पूरी तरह स्वतन्त्र व स्वायत्तशासी संस्था का स्वरूप दिया और लोकसभा अध्यक्ष की स्वतन्त्र सत्ता इस प्रकार स्थापित की कि सरकार का किसी भी प्रकार का दखल इसके कामकाज में न रहे। लोकसभा अध्यक्ष के आसन को भारतीय लोकतन्त्र की सांस्कृतिक परंपरा में ‘विक्रमादित्य का आसन’ माना जाता है जिस पर बैठते ही व्यक्ति अपने-पराये का भेद भुला कर केवल न्याय का संरक्षक बन जाता है।
हमने यह खुद देखा है कि जब इस आसन पर ‘सभापति पैनल’ में चयनित कोई विपक्ष का सांसद बैठता है तो वह किस प्रकार सबसे पहले उत्तेजित विपक्षी सांसदों को ही शान्त रहने की ताईद करने लगता है। यही तो हमारे लोकतन्त्र की खूबी है। जिसका लोहा पूरी दुनिया मानती आयी है। सावन या मानसून सत्र प्रायः छोटा ही होता आया है जो बजट के ग्रीष्मकालीन सत्र व सर्दियों के शीतकालीन सत्र को जोड़ने वाली कड़ी के रूप में देखा जाता है। अतः इसका उपयोग भी बहुत सावधानीपूर्वक करने की परंपरा रही है। संसद में हम अगर सार्थक बहस या रचनात्मक चर्चा को ही टालने का प्रयास करेंगे तो आम जनता में जनप्रतिनिधियों के बारे में जो सन्देश जायेगा वह संसद की गरिमा के हक में नहीं होगा क्योंकि हर पांच साल बाद तो हर पार्टी का प्रत्याशी जनता से बड़े-बड़े वादे करके ही वोट यह कह कर पाता है कि वह लोकसभा में पहुंच कर आम जनता का दुख-दर्द व उनकी समस्याओं के बारे में चर्चा करेगा और राष्ट्र की नीतियों के निर्माण में अपना योगदान देगा।
संसद का हर सत्र शुरू होने से पहले सर्वदलीय बैठक बुलाने की रस्म भी पूरी कर दी जाती है और घोषणा कर दी जाती है कि इसे सुचारू रूप से चलाने के लिए सभी पार्टियां सहयोग करेंगी मगर इसके बैठते ही नतीजा ‘ढाक के तीन पात’ निकलता है। यदि संसद ने केवल बिना बहस कराये ही भारी शोर-शराबे के बीच ध्वनिमत से ही विधेयक पारित कराने हैं तो संसद की क्या प्रासंगिकता रहेगी। हमें ध्यान रखना चाहिए कि हमारे लोकतन्त्र में संसद के सत्र कोई समारोह नहीं हैं बल्कि हमारी प्रशासनिक व्यवस्था की अन्तरंग प्रणाली हैं क्योंकि संसद केवल वाद-विवाद का प्रतियोगिता स्थल नहीं होती बल्कि लोकहित व राष्ट्रहित में फैसला करने का सबसे ऊंचा मंच होती है।