खत्म हुआ बाकू का तमाशा - Punjab Kesari
Girl in a jacket

खत्म हुआ बाकू का तमाशा

अजरबेजान के बाकू में हुए संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन कॉप-29 का तमाशा खत्म हो चुका है। दुनियाभर के

अजरबेजान के बाकू में हुए संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन कॉप-29 का तमाशा खत्म हो चुका है। दुनियाभर के देशों के नेताओं ने जलवायु परिवर्तन पर लम्बे-चौड़े भाषण दिए लेकिन नतीजा शून्य ही निकला। जलवायु सम्मेलन महज भाषणबाजी और सैर-सपाटे का मंच ही बन गए हैं। जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी परिणाम सामने हैं लेकिन कार्बन गैसों का उत्सर्जन रोकने का मुद्दा निष्प्रभावी ही रहा। जलवायु सम्मेलन में सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले देशों के नेता नदारद रहे। जलवायु जोखिम वाले कुछ देशों ने अपनी आवाज जरूर बुलंद की। मार्शल द्वीप की राष्ट्रपति हिल्डा हाइने ने छोटे द्विपीय देशों के हौसले को दिखाते हुए कहा, ‘‘हमारे पूर्वजों ने छड़ी, नारियल की पत्तियों और शंख से लहरों की दिशा बदली है। लहरों की दिशा कब बदलती है यह समझ हमारे खून में है। आज जलवायु परिवर्तन के चलते लहरें दिशा बदल रही हैं।

बारबाडोस की प्रधानमंत्री मिया एमोर मोटली ने भी जलवायु परिवर्तन के खतरे पर बात की और कहा, “ये चरम मौसमी घटनाएं जो दुनिया हर दिन देख रही है, यह संकेत देती हैं कि मानवता और पृथ्वी एक विनाश की ओर बढ़ रहे हैं।” स्पेन के प्रधानमंत्री पेड्रो सांचेज ने अपने देश में आई हालिया बाढ़ का उदाहरण देते हुए कहा, “हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि प्राकृतिक आपदाएं न बढ़ें। आइए वही करें जो हमने सात साल पहले पेरिस में करने का वादा किया था।”

लम्बे-चौड़े बौद्धिक भाषण सुनाई दिए लेकिन इन सब भाषणों का विकसित देशों पर कोई असर नहीं पड़ा। जलवायु संकट दूर करने के लिए सभी देशों की जिम्मेदारी तय नहीं हो पा रही। विकसित देश हमेशा ही प्रदूषण के लिए गरीब और विकासशील देशों को जिम्मेदार ठहराते रहे हैं। अपने विकास की कीमत पर ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन कम करने पर सहमत हुए गरीब देश धनी देशों से मदद की उम्मीद लगाए बैठे हैं लेकिन अमीर देशों ने उन्हें हर बार छला है। ऐसी स्थिति में एक बार फिर भारत ने धनी देशों को आइना दिखा दिया है।

संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन में इस बार भारत ने किसी भी देश की दबंगई नहीं चलने दी। भारत ने ‘ग्लोबल साउथ’ के लिए सालाना कुल केवल 300 अरब अमेरिकी डॉलर मुहैया कराने का लक्ष्य 2035 तक हासिल करने के जलवायु वित्त पैकेज को रविवार को खारिज कर दिया। भारत ने इसे ‘‘बहुत कम एवं बहुत दूर की कौड़ी’’ बताया। भारत ने कहा कि ग्लोबल साउथ के लिए वित्तीय मदद का 300 अरब अमेरिकी डॉलर का आंकड़ा उस 1.3 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर से बहुत कम है, जिसकी मांग ‘ग्लोबल साउथ’ देश जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए पिछले तीन साल से कर रहे हैं। भारत के इस विरोध से ग्लोबल साउथ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सम्मान और भी बढ़ गया है।

बता दें कि दुनिया में भारत की पहचान अब ग्लोबल साउथ की आवाज के तौर पर बन चुकी है। लिहाजा भारत ने ग्लोबल साउथ के साथ अन्याय नहीं होने दिया। अकेले सिर्फ भारत ने इस फैसले का खुला विरोध करने का साहस दिखाया तो पूरी दुनिया उसका हौसला देख दंग रह गई। ‘ग्लोबल साउथ’ का संदर्भ दुनिया के कमजोर या विकासशील देशों के लिए दिया जाता है। आर्थिक मामलों के विभाग की सलाहकार चांदनी रैना ने भारत की ओर से बयान देते हुए कहा कि उन्हें समझौते को अपनाने से पहले अपनी बात नहीं रखने दी गई जिससे प्रक्रिया में उनका विश्वास कम हो गया है। उन्होंने कहा, ‘‘यह समावेशिता का पालन न करने, देशों के रुख का सम्मान न करने जैसी कई घटनाओं की पुनरावृत्ति है। रैना ने कहा, ‘‘अनुमान बताते हैं कि हमें 2030 तक प्रति वर्ष कम से कम 1.3 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर की आवश्यकता होगी।’’ उन्होंने कहा, ‘‘300 अरब अमेरिकी डॉलर विकासशील देशों की जरूरतों और प्राथमिकताओं के अनुरूप नहीं हैं। यह सीबीडीआर (साझा लेकिन अलग-अलग जिम्मेदारी) और समानता के सिद्धांत के साथ अनुरूप नहीं है।’’

इस दौरान राजनयिकों, नागरिक समाज के सदस्यों और पत्रकारों से भरे कक्ष में भारतीय वार्ताकार को जोरदार समर्थन मिला। भारत के लिए विश्वमंच पर तालियां बजने लगीं। रैना ने कहा, ‘‘हम इस प्रक्रिया से बहुत नाखुश और निराश हैं और इस एजेंडे को अपनाए जाने पर आपत्ति जताते हैं।’’ नाइजीरिया ने भारत का समर्थन करते हुए कहा कि 300 अरब अमेरिकी डॉलर का जलवायु वित्त पैकेज एक ‘‘मजाक’’ है। मलावी और बोलीविया ने भी भारत को समर्थन दिया। रैना ने कहा कि परिणाम विकसित देशों की अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने की अनिच्छा को स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं। उन्होंने कहा कि विकासशील देश जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित हो रहे हैं और उन्हें अपने विकास की कीमत पर भी कम कार्बन उत्सर्जन वाले माध्यम अपनाने के लिए मजबूर किया जा रहा है। उन्हें विकसित देशों द्वारा अपनाए गए कार्बन सीमा समायोजन तंत्र जैसे एकतरफा कदमों का भी सामना करना पड़ रहा है।

रैना ने कहा कि प्रस्तावित परिणाम विकासशील देशों की जलवायु परिवर्तन के अनुसार ढलने की क्षमता को और अधिक प्रभावित करेगा तथा जलवायु लक्ष्य संबंधी उनकी महत्वाकांक्षाओं और विकास पर अत्यधिक असर डालेगा। उन्होंने कहा, ‘‘भारत वर्तमान स्वरूप में इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करता।’’ विकासशील देशों के लिए यह नया जलवायु वित्त पैकेज या नए सामूहिक परिमाणित लक्ष्य (एनसीक्यूजी) 2009 में तय किए गए 100 अरब अमेरिकी डॉलर के लक्ष्य का स्थान लेगा। समझौते पर वार्ता के बाद जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि देश विभिन्न स्रोतों – सार्वजनिक और निजी, द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय तथा वैकल्पिक स्रोतों से कुल 300 अरब अमेरिकी डॉलर प्रति वर्ष मुहैया कराने का लक्ष्य 2035 तक हासिल करेंगे। दस्तावेज में 1.3 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का आंकड़ा है लेकिन इसमें सार्वजनिक और निजी सहित ‘‘सभी कारकों’’ से 2035 तक इस स्तर तक पहुंचने के लिए ‘‘एक साथ काम करने’’ का आह्वान किया गया है। इसमें केवल विकसित देशों पर ही जिम्मेदारी नहीं डाली गई है। यह दुर्भाग्य है कि प्राकृतिक विनाश को देखते हुए भी विकसित देश ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के लिए तैयार नहीं और उसका खामियाजा गरीब देशों को भुगतना पड़ रहा है। भविष्य में प्रकृति क्या खेल खेलती है इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

one × 1 =

Girl in a jacket
पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।