अमेरिका से टैक्नोलॉजी समझौते - Punjab Kesari
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अमेरिका से टैक्नोलॉजी समझौते

भारत के स्वतन्त्र होने के बाद से पिछले 74 वर्षों के दौरान अमेरिका के साथ इसके सम्बन्धों में

भारत के स्वतन्त्र होने के बाद से पिछले 74 वर्षों के दौरान अमेरिका के साथ इसके सम्बन्धों में गुणात्मक उतार-चढ़ाव आता रहा है परन्तु 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था के द्वार विदेशी कम्पनियों के लिए खुलने के बाद से यह कहा जा सकता है कि अमेरिका के साथ भारत के सम्बन्ध लगातार मधुर होते जा रहे हैं। इसके पीछे निश्चित रूप से बदलती अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियां और भारत की उनके अनुरूप सामरिक व आर्थिक भूमिका रही है। अतः हम देख रहे हैं कि पिछले नब्बे के दशक से लेकर अब तक दोनों देशों के द्विपक्षीय सम्बन्धों में जो सिलसिलेवार सुधार आया है उसका एक सुनिश्चित क्रम है। प्रधानमन्त्री मोदी ने अपनी प्रथम अमेरिकी राजकीय यात्रा से इस क्रम को ‘शिखर चक्र’ में पहुंचा दिया है। यह शिखर चक्र दोनों देशों के बीच अतिसंवेदनशील (क्रिटिकल) व नवोन्मुखी (इमरजिंग) टैक्नोलॉजी के क्षेत्र में आपसी सहयोग का है। अमेरिका को निश्चित रूप से इस क्षेत्र में पूरी दुनिया का अग्रणी राष्ट्र कहा जा सकता है अतः श्री मोदी ने यह अवसर लपकने में थोड़ी भी हिचकिचाहट नहीं दिखाई है जो सम्बन्धों में सुधार के ‘क्रियात्मक क्रम’ में उनके सामने आया था। बल्कि उन्होंने इसे द्रुतगामी बना कर नया जोश भरने का प्रयास भी किया है।
 भारत व अमेरिका के बीच सबसे बड़ा साझा पहलू यह है कि दोनों ही देश प्रजातान्त्रिक हैं और दोनों में ही शुरू से ही राजनैतिक स्थायित्व रहा है। अतः दोनों में ही पृथक-पृथक राजनीतिक दलों की सरकारें समय-समय पर गठित होने के बावजूद एक-दूसरे के साथ समय-समय पर किये गये आपसी समझौतों का पूरा सम्मान है और दोनों सरकारों की वचनबद्धता कायम है। पिछले 15 साल में किसी भारतीय प्रधानमन्त्री की यह पहली राजकीय यात्रा है। पिछली बार 2009 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह को अमेरिका ने यह सम्मान दिया था। मगर उससे पहले ही अक्टूबर 2008 में दोनों देशों के बीच बहुविवादित व चर्चित परमाणु समझौता होने से यह साफ हो गया था कि अब भारत पर अमेरिका द्वारा ‘टैक्नोलॉजी निर्यात व व्यापार’ पर लगे प्रतिबन्ध समाप्त हो जायेंगे और भारत को परमाणु क्षेत्र से लेकर अन्य क्षेत्रों की उच्च टैक्नोलॉजी मिलने लगेगी। परमाणु समझौता बेशक डा. मनमोहन सिंह की अगुवाई में हुआ था मगर इसके मूल रचनाकार स्व. राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी थे जो उस समय सरकार में विदेशमन्त्री थे। हालांकि इसे हकीकत में लाने का सपना डा. मनमोहन सिंह का ही था। इस समझौते की शर्तों को पूरा करने के लिए अमेरिका को अपने संविधान में संशोधन भी करना पड़ा था और इधर भारत में डा. मनमोहन सिंह को इसके लिए संसद की इजाजत भी लेनी पड़ी थी (हालांकि यह जरूरी नहीं था)। तब श्री लालकृष्ण अडवानी के नेतृत्व में विपक्षी दल भाजपा ने इसका संसद में पुरजोर विरोध किया था। उस समय स्व. प्रणव मुखर्जी ने संसद में इस समझौते पर हुई बहस का जो उत्तर दिया था वह भारतीय संसदीय इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ बन चुका है। उन्होंने कहा था कि ‘‘हमें अपने ऊपर विश्वास होना चाहिए। लोगों ने हम पर विश्वास करके हमें चुनकर भेजा है। हम जो कुछ भी कर रहे हैं वह भारत की आने वाली पीढ़ियों के भविष्य को उज्जवल बनाने के लिए कर रहे हैं। यह समझौता देश के लोगों के लिए विकास व प्रगति के द्वार खोलने वाला होगा।’’ 
परमाणु समझौते में यह शर्त थी कि अमेरिका भारत को द्विआयामी टैक्नोलॉजी (डुअल टैक्नोलॉजी) भी देगा। अर्थात प्रौद्योगिकी के सारे कपाट भारत के लिए खोले जायेंगे। इसलिए हमें जोश के साथ होश भी कायम रखने होंगे क्योंकि इस परमाणु समझौते के 15 साल बाद अमेरिका हमें लड़ाकू विमानों के लिए जेट इंजन बनाने के काम में आने वाली 80 प्रतिशत टैक्नोलॉजी देने को ही तैयार हुआ है। अभी इस सम्बन्ध में भारत की सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनी ‘हिन्दुस्तान एयरोनाटिक्स लि.’ व अमेरिका की इंजन बनाने वाली ‘जनरल इलैक्ट्रिक’ के बीच इन इंजनों को कम्पनी के लाइसेंस के तहत भारत में निर्माण करने के बारे में आशयपत्र (एसओयू) पर ही हस्ताक्षर हुए हैं।
भारत ‘तेजस’ विमानों का निर्माण पिछले कई वर्षों से कर रहा है और इसके लिए स्वदेशी इंजन बनाने का काम रक्षा उत्पादन संगठन (डीआरडीओ) भी समानान्तर रूप से कर रहा है जिसमें उसे पूरी सफलता अभी तक नहीं मिल पाई है। इसके साथ ही अमेरिका शक्तिशाली जेट इंजनों को भारत में उत्पादित करने की छूट जनरल इलैक्ट्रिक कम्पनी को तभी दे सकता है जबकि वहां की संसद उसे इसकी मंजूरी दे दे। हमें हमेशा यह तथ्य कभी औझल नहीं होने देना चाहिए कि अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा महाजन या व्यापारी है। अतः हमें अपने राष्ट्रीय हितों को  इस प्रकार सुरक्षित करके आगे बढ़ना होगा कि हमारे विज्ञान व टैक्नोलॉजी के क्षेत्र में जो भी आत्मनिर्भर होने के कार्यक्रम चल रहे हैं वे अबाेध रूप से जारी रहें। हमें हर क्षेत्र में अमेरिका का बराबरी पर खड़ा हुआ सहयोगी या दोस्त ही नजर आना है क्योंकि बदलते विश्व क्रम में जितनी अमेरिका की जरूरत हमें है उससे कहीं ज्यादा उसे हमारी जरूरत है। ‘हिन्द- प्रशान्त’ महासागरीय क्षेत्र में चीन व अमेरिका का द्वन्द्व इसका जीता जागता प्रमाण है। हमें इस विषय पर भी उसी प्रकार सन्तुलन बनाते हुए अपनी भूमिका को महत्वपूर्ण व प्रभावी बनाये रख कर तथ्यगामी रहना होगा जिस तरह हमने ‘रूस-यूक्रेन’ युद्ध के मामले में रूस के साथ अपने ऐतिहासिक मित्रतापूर्ण सम्बन्धों को सुरक्षित रखा है। जहां तक अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में ‘इसरो व नासा’ के सहयोग का सम्बन्ध है तो हमें इस क्षेत्र में अपनी की गई प्रगति के सौपानों को भी कस कर पकड़े रहना होगा। सेमीकंटक्टर उत्पादन के क्षेत्र में अमेरिका का स्वागत है क्योंकि अमेरिका व भारत दोनों का ही हित एक-दूसरे का सम्पूरक है।

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