सुप्रीम कोर्ट ने कठुआ में आठ साल की बच्ची से सामूहिक बलात्कार एवं उसकी हत्या के सनसनीखेज मामले में एक आरोपी शुभम सांगरा के खिलाफ वयस्क के रूप में मुकदमा चलाने का महत्वपूर्ण फैसला दिया है। शीर्ष अदालत ने अपराध के समय आरोपी को नाबालिग नहीं माना और फैसले में कहा है कि वैधानिक सबूत के अभाव में किसी अभियुक्त की उम्र के संबंध में चिकित्सकीय राय को दरकिनार नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने यह भी कहा है कि अभियुक्त की आयु सीमा निर्धारित करने के लिए किसी अन्य निर्णायक सबूत के अभाव में चिकित्सीय राय पर विचार किया जाना चाहिए। मेडिकल सबूतों पर भरोसा किया जा सकता है या नहीं यह सबूतों की अहमियत पर निर्भर करता है। सुप्रीम कोर्ट ने कठुआ के सीजेएम और हाई कोर्ट के आदेशों को रद्द कर दिया। 10 जनवरी 2018 को 8 साल की नाबालिग बच्ची का अपहरण किया गया था उसे गांव के छोटे से मंदिर में बंधक बनाकर रखा गया था और उसे चार दिन तक नशा देकर दुष्कर्म किया गया और बाद में उसकी हत्या कर दी गई। विशेष अदालत ने जून 2019 में इस मामले में तीन लोगों को उम्र कैद की सजा सुनाई थी लेकिन शुभम सांगरा के खिलाफ मुकद्दमें को किशोर न्याय बोर्ड में स्थानांतरित कर दिया गया था जो कुछ हुआ वह शर्मसार कर देने वाला था। इस घटना के बाद जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक दलों ने भी जिस तरह से इस घटना को सांप्रदायिक रंग दिया, उससे देशवसियों ने खुद को और भी शर्मसार महसूस किया। जम्मू में लोगों का एक वर्ग अभियुक्तों के समर्थन में खड़ा दिखाई दिया और उसने क्राइम ब्रांच की जांच पर ही सवाल खड़े कर दिए जबकि कश्मीर घाटी से आवाजें आ रही थी कि इस मामले को कठुआ से स्थानांतरित कर दिया जाए। जो कुछ भी हुआ उसमें वकीलों और राजनेताओं की भूमिका ने संवेदनशीलता के नए प्रतिमान गढ़ दिए। सबूतों को खुर्द बुर्द करने के मामले में पांच पुलिस कर्मियों को भी गिरफ्तार किया गया। किसी ने नहीं सोचा कि कोई अपराधी बस अपराधी होता है, इसकी जाति, रंग या धर्म पर विचार किए बिना उससे कानून के अनुसार निपटा जाना चाहिए लेकिन सियासतदानों ने पीडित परिवार को न्याय दिलाने की बजाय धर्म के आधार पर राज्य का ध्रुवीकरण करने की साजिशें ही रचीं। न्याय प्रक्रिया में बाधा डालने का कृत्य जघन्य अपराध के समर्थन के बराबर होता है लेकिन ऐसा किया गया। अब सुप्रीम कोर्ट ने नाबालिग अपराधी को बालिग मानकर उस पर मुकदमा चलाने का फैसला देकर न्याय को ही बुलंद किया है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में कई टिप्पणियां की हैं।
जस्टिस अजय रस्तोगी और जेेबी पर्दीवाला की पीठ ने कहा कि जिस तरह से किशोरों द्वारा समय-समय पर कई अपराध किए गए हैं और अभी भी किए जा रहे हैं, यह आश्चर्य पैदा करता है कि क्या सरकार को किशोर न्याय अधिनियम के तहत ढांचे पर पुनर्विचार करना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि, ‘‘हमें यह आभास होने लगा है कि सुधार के लक्ष्य के नाम पर किशोरों के साथ जिस नरमी से व्यवहार किया जाता है, वह इस तरह के जघन्य अपराधों में लिप्त होने के लिए अधिक से अधिक प्रोत्साहित हो रहा है। यह सरकार को विचार करना है कि क्या 2015 का अधिनियम प्रभावी साबित हुआ है या इस मामले में अभी भी कुछ करने की जरूरत है, इससे पहले कि बहुत देर हो जाए।’’ बेंच ने कहा कि भारत में किशोर अपराध की बढ़ती दर चिंता का विषय है और इस पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है।
16 दिसम्बर 2012 को हुए निर्भया गैंग रेप मामले में चार दोषियों को फांसी की सजा मिल चुकी है जबकि एक दोषी की जेल में मौत हो गई थी। एक अन्य दोषी जिसे सबसे ज्यादा दरिंदगी करने के बावजूद छोड़ना पड़ा था क्योंकि वह उस वक्त नाबालिग था। उसे सिर्फ तीन साल की सजा हुई थी। बाद में उसे छोड़ दिया गया था। तब यह सवाल उठा था कि एक अपराधी जो नाबालिग था और जिसने निर्भया के साथ सबसे अधिक वीभत्स कृत्य किया क्या उसे छोड़ा जाना उचित है? इस सत्य ने देशवासियों को सोचने के लिए विवश किया कि एक नाबालिग अपराधी को क्या इतनी आसानी से छोड़ा जाना चाहिए या उसे फांसी पर लटका देना चाहिए। निर्भया केस ने देश में एक सामाजिक क्रांति की शुरूआत की थी और युवा वर्ग अपना आक्रोश व्यक्त करने के लिए रायसीना हिल्स पर राष्ट्रपति भवन के प्रवेश द्वार तक पहुच गए थे जिसने तत्कालीन सत्ता को हिला कर रख दिया था। इसके बाद सरकार जागी और बलात्कार कानूनों को सख्त बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई। देश में नया कानून तो ला दिया लेकिन यह कानून कितना मजबूत साबित हुआ, इस पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं।
नए कानून में जघन्य अपराधों में पाए गए 16 से 18 वर्ष की आयु के बीच के किशोरों के ऊपर बालिगों के समान मुकद्दमा चलाने की अनुमति देने का प्रावधान किया गया। साथ ही कोई भी 16 वर्ष से 18 वर्ष तक का किशोर जिसने कम जघन्य अर्थात गंभीर अपराध किया हो, उसके ऊपर बालिग के समान केवल तभी मुकद्दमा चलाया जा सकता है, जब उसे 21 वर्ष की आयु के बाद पकड़ा गया हो। बलात्कार कानूनू को भी पहले से अधिक सख्त बनाया गया। जुवेलियन जस्टिस एक्ट को कड़ा बनाया जाने पर भी लोगों की राय बंटी हुई नजर आई। समाज का एक वर्ग किशोरों को अपराध की गम्भीरता के अनुरूप सजा देने का पक्षधर दिखाई दिया जबकि एक वर्ग का तर्क था कि नया कानून नाबालिगों को अपराध करने से हतोत्साहित नहीं करेगा, जैसा होता आया है वैसा ही होता रहेगा। कुछ लोगों ने इस कानून को अनुच्छेद 14 समानता के अधिकार का उल्लंघन करार दिया। अनुच्छेद 14 कहता है कि प्रत्येक व्यक्ति के साथ समान रूप से व्यवहार किया जाना चाहिए। यह कानून अपराधी के पकड़े जाने के समय उसकी आयु देखकर दंड का प्रावधान करता है। यानि यदि दो व्यक्ति एक ही अपराध करते हैं तो इसके लिए अलग-अलग सजा मिलेगी। देश में कई गम्भीर अपराधों में किशोरों के शामिल होने की घटनाएं बढ़ रही हैं। किशोरों को अपराधी बनने से कैसे रोका जाए, यह सवाल समाज और कानून के सामने है। इस दिशा में ठोस विचार-विमर्श की जरूरत है।