नहीं चाहियें ऐसे जनप्रतिनिधि - Punjab Kesari
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नहीं चाहियें ऐसे जनप्रतिनिधि

दिल्ली नगर निगम के सदन में गत शुक्रवार को स्थायी समिति सदस्यों के चुनावों के समय जो ‘जूतम-पैजार’

दिल्ली नगर निगम के सदन में गत शुक्रवार को स्थायी समिति सदस्यों के चुनावों के समय जो ‘जूतम-पैजार’ हुआ है उससे साबित हो गया है कि दिल्लीवासियों से बहुत बड़ी भूल हो गई है और ऐसा कहा जा रहा है कि उन्होंने अपने प्रतिनिधियों के रूप में जिन लोगों को चुनकर सदन में भेज दिया गया है। उन्होंने जिस तरह से अपना लड़ाकापन दिखाया ऐसे जनप्रतिनिधियों की सदन में कोई जरूरत नहीं है। सबसे पहले दिल्ली की जनता को ही यह मांग करनी चाहिए कि इस सदन के चुने हुए सदस्यों को वापस सड़क पर बुलाया जाये और उनमें से जिस-जिस ने भी सदन के भीतर गुंडागर्दी, मार-पीट व जूता-चप्पलबाजी की है उन्हें जनता द्वारा सरेआम शर्मसार करके माकूल सजा सुनाई जाये। जिस तरह सदन के भीतर महिला पार्षदों ने महिला पार्षदों के ही बाल खींचे और आपस में मार-पीट की उससे यह भी साबित हो गया कि बद-इखालकी और बदगुमानी के साथ बेहयाई पर केवल पुरुष वर्ग का ही आधिपत्य नहीं है बल्कि इस बेगैरती कार्रवाई में निगम के सभी सदस्य शरीक हैं। यहां तक लिखने को मजबूर होना पड़ रहा है कि शुक्रवार के नजारों से यह भी साबित हो गया है कि सदन के भीतर इन लड़ाकू पार्षदों ने खुदगर्जी में नगर निगम को ही शर्मसार कर ​डाला। जो लोग किसी कानून- नियम को मानने के लिए तैयार न हों और अपनी मर्जी के मुताबिक हर कानून को देखने की जिद पर आमादा हों और इसके लिए एक-दूसरे का खून बहाने को तैयार हों, उन्हें लोकतन्त्र में साधू के वेश में असुर ‘कालनेमि’ की संज्ञा ही दी जा सकती है।
 बेशक दिल्ली उच्च न्यायालय ने शुक्रवार को हुए स्थायी समिति के छह सदस्यों के चुनाव पर स्थगन आदेश दे दिया है। निगम सचिव समेत उपराज्यपाल व महापौर को इस बारे में जरूरी निर्देश भी दिया है। समस्या का स्थायी हल को लेकर अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। उच्च न्यायालय ने आदेश दिया है कि चुनाव में शुक्रवार को प्रयोग किये गये बैलेट पेपरों को संरक्षित रखा जाये। एक-दूसरे की लात-घूंसों व चप्पल-जूतों द्वारा भी पिटाई की गई। सवाल यह बहुत बड़ा है कि स्थायी समिति के सदस्यों के चुनाव के लिए स्थापित चुनाव अधिकारी महापौर को उस समय चुनाव नतीजे घोषित करने से रोकने के लिए उन पर हमला क्यों किया गया जब वह संविधान द्वारा प्रदत्त अपने न्यायिक अधिकारों के तहत चुनाव परिणाम सुनाने की प्रक्रिया को अन्तिम रूप दे रही थीं? यदि चुनाव अधिकारी इस निष्कर्ष पर पहुंची थी कि मतदान में पड़ा एक वोट अवैध है तो उसे कानूनी प्रक्रिया के अनुसार चुनौती देने के बजाये उन्हीं पर हमला करना बताता है कि हमलावर सदस्यों का कानून में कोई भरोसा नहीं है और वे हर काम ताकत और हिंसा के बूते पर कराना चाहते हैं। 
लोकतन्त्र में ‘माइट इज राइट’  अर्थात ताकत ही सही है कभी नहीं होता है बल्कि ‘माइंड इज राइट’  अर्थात् विवेकपूर्ण तर्क ही सही होता है। माइट इज राइट जंगल का कानून होता है जो पशुओं के समाज का विधान है। अतः निगम सदस्य खुद तय करें कि वे सदन में किस समाज की व्यवस्था स्थापित करना चाहते हैं। जब विधान स्पष्ट है कि चुनाव परिणाम केवल चुनाव अधिकारी महापौर ही घोषित करेंगी तो उनकी सहायता के लिए आये हुए चुनाव आयोग के कुछ कर्मचारी किस तरह चुनाव परिणाम की घोषणा कर सकते हैं ? इन चुनाव कर्मचारियों को अपनी राय सार्वजनिक करने का अधिकार नगर निगम का कौन सा कानून नहीं देता है? ध्यान रखा जाना चाहिए कि नगर निगम दिल्ली के नागरिकों की दैनन्दिन की समस्याओं का हल करने के लिए बनी है न कि उनकी समस्याएं बढ़ाने के लिए। इसके साथ यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि सदन के निगम के भीतर राजनैतिक दल के सदस्य रूप में किसी पार्षद को मान्यता नहीं मिलती है । वह निगम का लोगों द्वारा चुना हुआ सदस्य ही होता है। यह विधान इसीलिए है जिससे सभी सदस्य अपने राजनैतिक स्वार्थ छोड़कर केवल नागरिकों के चुने हुए प्रतिनिधियों के रूप में सच्चे मन से काम कर सकें। मगर क्या कयामत है कि इस सदन में काम अब सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के निर्देशों के तहत हो रहा है।  लानत है उन सदस्यों पर जिन्होंने इस सदन को शुक्रवार को ‘गुंडागर्दी’ का मैदान बना दिया। इससे पहले महापौर के चुनाव के दौरान भी ऐसे ही सदस्यों ने सदन की अजमत को गिरवी रखा और महापौर का चुनाव नहीं होने दिया तब जाकर सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर चुनाव कराये गये और गैर कानूनी प्रक्रिया को अपनाये जाने से रोका गया।
 लोकतन्त्र में इसे आग से खेलना माना जाता है क्योंकि जब जनता के चुने हुए सदनों को अखाड़ा बना दिया जाता है तो ये बाहुबलि ही खुद कानून बन जाने का सपना पालने लगते हैं। अतः दिल्ली के नागरिकों को ही इस बारे में गंभीर संज्ञान लेते हुए सभी ‘‘पहलवानी पर उतारु’’ सदस्यों को सदन से दाखिल-खारिज करते हुए माकूल सबक सिखाने की उनके राजनैतिक दलों से मांग करनी चाहिए। 
‘‘यूं ही गर रोता रहा गालिब तो ए एहले जहां 
देखना इन बस्तियों को तुम कि वीरां हो गईं।’’

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