एक तरफ भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) 2022 में अंतरिक्ष में मानव भेजने की तैयारी कर रहा है आैर इस परियोजना पर 10 हजार करोड़ खर्च किए जाएंगे। दूसरी तरफ आज भी देश में गटर साफ करते हर वर्ष करीब 100 मजदूरों की मौत हो जाती है। देश की राजधानी में हाल ही में सीवर की सफाई के दौरान 5 मजदूरों की मौत हो गई। जयपुर में भी सेप्टिक टैंक की सफाई करते जहरीली गैस के चलते 5 मजदूरों की मौत हो गई। छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले में एक मकान के सेप्टिक टैंक में दम घुटने के कारण महिला सहित 5 लोगों की मौत हो गई। इस तरह की घटनाओं में दो दशक में 1760 लोगों की मौत हो चुकी है लेकिन आज तक एक भी जिम्मेदार को सजा नहीं हुई। प्रधानमंत्री के स्वच्छता अभियान से सीवर साफ करने वालों को कोई फायदा नहीं हो रहा है। नियमों के तहत मजदूरों को सीवर लाइन में उतारने की सख्त मनाही है। मशीन से ही सफाई का नियम है लेकिन मजदूरों को आज भी बिना किसी सुरक्षा उपकरण के गटर में उतारा जा रहा है। कानूनन शौचालयों, सीवर लाइन, सेप्टिक टैंक की सफाई किसी इन्सान से नहीं करवाई जा सकती जब तक मशीन ऐसा करने में सक्षम न हो।
अधिनियम में सफाई कर्मचारी को 48 किस्म के सुरक्षा संसाधन मुहैया करवाने का प्रावधान किया गया है जिनमें ब्लोअर के लिए एयर कम्प्रेशर, गैस मास्क, ऑक्सीजन सिलेंडर, हाथ के दस्ताने आदि हैं लेकिन इन्हें कुछ भी मुहैया नहीं करवाया जाता। इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है कि जिस दौर में हम बड़ी वैज्ञानिक और तकनीकी उपलब्धियों का ब्यौरा पेश कर रहे हैं, उसी में सीवर की सफाई करने वाले मजदूरों की मौत की खबरें थम नहीं रही हैं। लगातार आ रही मौतों की खबरों ने यह साबित कर दिया है कि नियम-कायदों को लागू कराने में प्रशासनिक नाकामी किस तरह मजदूरों की जान की दुश्मन बन रही है। सवाल यह है कि इन मौतों का जिम्मेदार किसे माना जाए? हर जगह मजदूरों को सीवर में उतारकर सफाई कराने पर पूरी तरह रोक के कानूनी निर्देश के बावजूद यह काम धड़ल्ले से कराया जा रहा है और प्रशासन इस पर लगाम लगा पाने में सक्षम नहीं है। पिछले वर्ष सीवर सफाई के दौरान कुछ दिनों के भीतर एक दर्जन मजदूरों की मौत हो जाने पर सरकार ने घोषणा की थी कि अब दिल्ली में सीवर साफ करने के काम को 100 फीसदी मशीनों से अन्जाम दिया जाएगा आैर इस नियम का उल्लंघन करने पर उम्रकैद तक की सजा हो सकती है।
अगर सीवर में उतरकर किसी मजदूर की मौत होती है तो ठेकेदार के साथ-साथ स्थानीय अधिकारी और इंजीनियर के खिलाफ भी भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 के तहत मुकद्दमा दर्ज किया जाएगा। लगभग सालभर पहले इस मानक प्रक्रिया को 7 दिन के भीतर लागू करने की बात कही गई थी और निजी ठेकेदारों, आवासीय सोसायटियों और मॉल आदि को भी इसके दायरे में रखा गया था लेकिन दिल्ली में तो कानून की धज्जियां उड़ाई गईं बल्कि अन्य राज्यों में भी इस मुद्दे पर ध्यान नहीं दिया गया। कानून के अमल में लापरवाही बरती गई। आखिर क्या वजह है कि एक तरफ भारत विश्व की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है लेकिन दूसरी तरफ हम जहरीली गैसों के जोखिम वाले सीवर की सफाई के लिए आधुनिक तकनीक का सहारा नहीं ले रहे हैं। वर्तमान में सभी निर्माण कार्यों से लेकर सुरंग खोदने तक जटिल कार्यों में अत्याधुनिक मशीनों आैर तकनीक का सहारा लिया जाता है आैर उनमें मजदूरों की भूमिका बहुत कम कर दी गई है लेकिन सीवर की जहरीली गैसों के बीच बिना किसी सुरक्षात्मक उपायों के मजदूरों को उतार दिया जाता है। लगातार मजदूरों की मौत देश की तमाम उपलब्धियों पर एक बड़ा धब्बा है। अगर आज के समय में तकनीक का उपयोग समाज के हाशिये पर पड़े तबकों की जान बचाने के लिए नहीं हो रहा है तो वह किस काम की।
मुद्दा तकनीक का नहीं बल्कि इससे कहीं अधिक प्रशासन और अधिकारियों की संवेदनहीनता का है। इन मौतों पर कोई नहीं बोलता, क्यों? गटर में मरने वाले क्या भारतीय नागरिक नहीं हैं? क्या उनके जीवन का कोई मूल्य नहीं है? कोई उनकी मदद क्यों नहीं करता? दिल्ली के मोतीनगर में एक आवासीय सोसायटी में मरने वाले मजदूरों के शव भी परिवार वाले अपने खर्चे पर अपने गांव लेकर गए, न कम्पनी का कोई अधिकारी आया और न ही सरकार का। सुप्रीम कोर्ट के स्पष्ट आदेश के बावजूद केन्द्र सरकार ने इन मौतों को दर्ज करने का कोई तरीका अब तक विकिसत नहीं किया है। इन मौतों को रोकने के लिए सरकार ने अब तक ठोस पहल भी शुरू नहीं की है। एक तरफ तो हम स्वच्छ भारत अभियान चलाए हुए हैं लेकिन गन्दगी से निपटने का कोई प्रबन्ध नहीं है। सेप्टिक टैंक आैर खुले नालों की सफाई इन्सानों से ही कराई जाती है, यह सब देश के लिए बहुत शर्मनाक है।