सपा, बसपा, मतदाता और सत्ता - Punjab Kesari
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सपा, बसपा, मतदाता और सत्ता

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पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजों से सबसे बड़ा निष्कर्ष यह निकाला जा सकता है कि उत्तर भारत में खुद को जातिगत आधार के बूते पर शेर समझने वाली क्षेत्रीय पार्टियां बहुजन समाज पार्टी व समाजवादी पार्टी की ताकत को उनके ही समर्थक कहे जाने वाले मतदाता आधार ने ‘शेर’ से ‘मूषक’ में बदल दिया है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि इन पार्टियों ने जिस तरह सत्ता की सौदेबाजी का खेल पिछले 25 वर्षों में खेला है उससे इन पार्टियों का नेतृत्व तो मालामाल होता चला गया और इनके समर्थक मतदाताओं की स्थिति बद से बदतर होती चली गई इसके साथ ही जिस चतुराई से इन पार्टियों के नेताओं ने अपने वजूद को बचाये रखने के लिए भाजपा विरोध के हथियार का इस्तेमाल खुद को सत्ता की चाबी का खजांची बनाने में किया उससे साम्प्रदायिक राजनीति के पनपने में इस प्रकार मदद मिली कि आर्थिक न्याय और उत्थान की राजनीति वोट बैंक के खुले चेक में बदलती चली गई।

यह उन मतदाताओं का घनघोर अपमान था जिन्हें आजादी के बाद बिना किसी भेदभाव के गांधी बाबा की निगरानी में बाबा साहेब अम्बेडकर ने एक वोट का अधिकार देकर इस मुल्क का मालिक बनाया था। उनके मालिकाना हकों की जिस तरह दलित राजनीति का ठेका लेने वाले नेताओं ने खुली नीलामी की उसने इसी वर्ग में चन्द्रशेखर जैसे इंकलाबी युवा नेता को जन्म दिया जिसने सुश्री मायावती के सामने सामाजिक व आर्थिक न्याय की लड़ाई बिना किसी सौदेबाजी के करने की चुनौती फेंक दी है। मध्य प्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ में चुनावों से पहले जिस तरह मायावती की बसपा और अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी ने भाजपा विरोध के नाम पर भाजपा को ही फायदा पहुंचाने की चौसर बिछाई उसके चलते इन राज्यों में विपक्ष का वैचारिक युद्ध कमजोर हुआ और कहीं-कहीं यह संकीर्ण जातिगत लड़ाई में भी बदल गया। इसके बावजूद मध्य प्रदेश में बसपा को दो और समाजवादी पार्टी को एक ही सीट मिल पाई।

मध्य प्रदेश की नई विधानसभा मंे सीटों का समीकरण इस प्रकार आया कि इन दोनों पार्टियों को मजबूरन कांग्रेस को समर्थन देने की घोषणा करनी पड़ी। जाहिर है यदि समीकरण दूसरा होता तो ये पार्टियां दूसरा रास्ता अख्तियार करतीं, लेकिन हकीकत यह भी है कि इन दोनों पार्टियों का असली प्रभाव उत्तर प्रदेश में ही है।

इस प्रदेश की राजनीति में पिछले तीस सालों से जो गुणात्मक अंतर आया है वह यह है कि भाजपा का मुकाबला ये दोनों पार्टियां ही करती हैं और कांग्रेस पार्टी पर्यवेक्षक की तरह माहौल को निहारने पर मजबूर रही है लेकिन इसका असली लाभ भाजपा को ही मिला है और यह अपने बूते पर ही इस राज्य में सत्ता में आने में कई बार समर्थ रही है। इस पूरी राजनीति में वैचारिक विमर्श या सिद्धान्तों की कोई जगह नहीं रही है और पूरा विमर्श सिर्फ हिन्दू-मुसलमान की राजनीति का रहा है। इस राजनीति ने एक तरफ अल्पसंख्यक वर्ग के मुस्लिम मतदाताओं को इन्हीं दोनों पार्टियों का मुलाजिम जैसा बना दिया और दूसरी तरफ हिन्दू मतदाताओं में जातिगत संघर्ष को विकराल बना दिया। दोनों ही वर्गों की राजनैतिक चेतना हिन्दू और मुसलमान होने की पहचान में सिमट कर रह गई जिसकी वजह से सत्ता में आने की शतरंज में धनपतियों की भूमिका अचानक बहुत महत्वपूर्ण हो गई और वे उत्तर प्रदेश में अपने मनमाफिक कारोबारी इन्तजाम को साधने लगे। इस राजनीति ने सत्ता के दलाल कई राजनीतिज्ञों को रातोंरात महत्वपूर्ण बना दिया और उत्तर प्रदेश में पर्दे के पीछे से पूरा प्रशासन उनकी अंगुलियों पर नाचने लगा।

लोकतान्त्रिक तरीके से चुने हुए मुख्यमन्त्री शाही अंदाज में किसी सल्तनत के सुल्तान की तरह पेश आने लगे और जिन लोगों के वोट की ताकत पर वे जीत कर आये थे उन्हें ही उन्होंने अपने हुक्म का गुलाम समझना शुरू कर दिया मगर यह स्थिति लोकतन्त्र में लम्बे समय तक इसलिए नहीं चल सकती है क्योंकि यह व्यवस्था प्रत्येक व्यक्ति को बराबर के राजनैतिक अधिकार देकर उसे अपनी ताकत का जायजा लेने का हक अदा करती है और सोचने पर मजबूर करती है कि लोकतन्त्र में वह गुलामी जैसी जिन्दगी जीने के लिए क्यों मजबूर किया जा रहा है? अतः यह बेसबब नहीं है कि छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में सुश्री मायावती ने जब विद्रोही कांग्रेसी नेता अजीत जोगी की पार्टी के साथ गठबन्धन किया था तो दलित मतदाताओं के मन में यह शंका पैदा हो गई थी कि दिन-रात भाजपा को पानी पी-पी कर कोसने वाली मायावती किसकी मदद करना चाहती हैं? इन राज्यों के चुनावों ने भारतीय राजनीति का वह सत्य उजागर कर दिया है जिसे बड़े यत्न से अभी तक साम्प्रदायिक बिखराव करके सत्ता की चाबी अपने हाथ में रखने के लिए प्रयोग किया गया है।

भारत में जिस वैचारिक आधार पर मतदाताओं के ध्रुवीकरण की स्वस्थ परंपरा आजादी के बाद स्वतन्त्रता सेनानियों ने इस देश के धर्म के आधार पर बंट जाने के बावजूद की थी उसे एेसे दलों ने उस मुकाम पर पहुंचा दिया जहां एक ही समाज के लोग एक-दूसरे को अपना दुश्मन मानने के कगार पर आकर खड़े हो गये। खुदा का शुक्र है कि इन चुनावों ने इस पहिये को उल्टा घुमाना शुरू किया है। देखिये अब असदुद्दीन ओवैसी जैसे नेता क्या नया दांव चलते हैं?

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