सपा-बसपा : आ गले लग जा ! - Punjab Kesari
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सपा-बसपा : आ गले लग जा !

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उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों के लिए इस राज्य के दो जातिवादी क्षेत्रीय दलों समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी ने गठबन्धन बनाकर समग्र विपक्षी एकता को नकारा है उसका उद्देश्य चुनावों के बाद केन्द्र की नई बनने वाली सरकार में सौदेबाजी का पत्ता अपने पास रखने के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता क्योंकि दोनों ही पार्टियों ने जहां वर्तमान में सत्ताधारी पार्टी भाजपा के खिलाफ मोर्चा खोलने की घोषणा की है वहीं देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस को भी निशाने पर रखा है। इसका मतलब मोटे तौर पर यही निकलता है कि चुनावों के बाद यदि लोकसभा में भाजपा या कांग्रेस में से किसी भी पार्टी को सरकार गठित करने के लिए मदद की जरूरत पड़ेगी तो उसकी जमकर कीमत वसूली जाएगी। मगर राजनीति ऊपर से देखने में लगती है भीतर से वैसी नहीं होती है और इसकी हकीकत अलग होती है।

सुश्री मायावती की बसपा और अखिलेश यादव की सपा को ताकत प्राप्त करने के लिए भाजपा का मजबूत होना जरूरी शर्त इसलिए है कि उसी हालत में ये दोनों पार्टियां अपने जातिगत वोट बैंक में अल्पसंख्यकों के वोट पाकर विस्तार करती हैं और कांग्रेस जैसी उदार गांधीवादी मध्यमार्गी पार्टी को हाशिये पर फैंकती हैं। इन दोनों ही पार्टियों के लिए जीत की जरूरी शर्त अल्पसंख्यकों का एकजुट होकर उनके साथ रहना होता है। अपने–अपने जातिगत आधार पर इन दोनों ही पार्टियों में इतनी शक्ति नहीं आ पाती है कि वे चुनावी बाजी जीत सकें। मगर चुनाव की यह बाजी बिछने की जरूरी शर्त पूरे वातावरण का साम्प्रदायिक जहर में बुझना होती है जिसके कारण घबराकर अल्पसंख्यक वर्ग इन दोनों पार्टियों का दामन थामने को मजबूर हो जाता है।

कांग्रेस पार्टी को तस्वीर से बाहर रखने के लिए पिछले 25 सालों से इस राज्य में सियासत के तेवर इसी अंदाज में चल रहे हैं जिसकी वजह से लगातार चुनावी युद्ध बसपा, सपा व भाजपा के बीच हो रहा है लेकिन सिर्फ सूबे की सतह तक ही यह सियासत कामयाब है क्योंकि राज्य के चुनावों में ये तीनों पार्टियां मिल कर जिस तरह का एजैंडा तैराती हैं उसके तहत मतदाता जातिगत दायरों और मजहब के सांचों में खुद-ब-खुद कैद हो जाता है इसकी भी वजह यही है कि पिछले 25 सालों से ये तीनों ही पार्टी लखनऊ में हुकूमत में बैठ रही हैं और गद्दीनशीं होते ही इनकी सरकारें जातिगत व मजहब के आधार पर एक-दूसरे के खिलाफ पूरे प्रशासन के तेवर बदल देती हैं जिसकी वजह से मतदाताओं में एक–दूसरे के खिलाफ ही रंजिश का माहौल बनने लगता है और बदले की भावना तक पैदा होने लगती है। यह देश के उस सबसे बड़े राज्य की सियासत का आलम है जहां कभी श्रीमती सुचेता कृपलानी जैसी एक सिंधी महिला ने मुख्यमन्त्री पद संभाला था और चौधरी चरण सिंह जैसे व्यक्तित्व ने इसके गांवों के रहने वाले लोगों को जात-पात व धर्म छोड़ कर ‘कृषक राज’ के छाते में एकजुट किया था।

मजेदार तथ्य यह है कि 1963 में जब सुचेता कृपलानी के पति आचार्य कृपलानी ने उत्तर प्रदेश की मुरादाबद सीट से लोकसभा का चुनाव प्रजा समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी के तौर पर लड़ा था तो उनका मुख्य मुकाबला कांग्रेस के प्रत्याशी से ही हुआ था और उन्होंने तब कांग्रेस की ताकत को समाप्त करने का जो गुर बताया था उस पर उनकी मृत्यु के बाद अमल होना अस्सी के दशक में हुआ। मुरादाबाद उपचुनाव में आचार्य कृपलानी ने कहा था कि अगर देश से कांग्रेस को समाप्त करना है तो इसके दोनों बैलों को खोल दो (उस समय कांग्रेस का चुनाव निशान दो बैलों की जोड़ी था) उन्होंने प्रतीकात्मक रूप में कहा था कि इनमें से एक बैल मुसलमान है और दूसरे दलित, क्योंकि ये दोनों ही इस पार्टी के कट्टर समर्थक हैं, इसका कड़ा विरोध तब सुचेता कृपलानी ने ही किया था जो कि कांग्रेस में थीं। उन्होंने कहा था कि आचार्य जी का क्या जनसंघ से कोई समझौता हो गया है जो वह ऐसी बेतुकी बातें कर रहे हैं। कहने का मतलब सिर्फ इतना सा है कि उत्तर प्रदेश की सियासी फिजां को बदलने में सपा व बसपा को सफलता मिली कि इस राज्य के नागरिकों की पहचान मतदाता से बदल कर जाति और हिन्दू –मुसलमान में तब्दील होती गई जिससे एक तरफ भाजपा और दूसरी तरफ इन दोनों ने चुनावों की लड़ाई को आपसी युद्ध में बदल दिया।

मगर इस लड़ाई का ताल्लुक कभी भी राष्ट्रीय नीतियों या राज्य के विकास के मुद्दों से नहीं रहा। लेकिन दूसरी तरफ यह भी हकीकत है कि इसी राज्य के लोगों ने लोकसभा चुनावो में (1996 को छोड़कर )कभी भी राष्ट्रीय मुद्दों को अपनी नजरों से ओझल नहीं होने दिया, 2014 के लोकसभा के चुनावों में तो राष्ट्रीय मुद्दे इस कदर प्रभावी हुए कि इन्होंने बसपा को एक भी सीट नहीं दी और सपा को भी चार-पांच सीटों पर समेट दिया। इससे पहले 2009 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी को 23 सीटें देकर यहां के लोगों ने सन्देश दिया कि देश के चुनावों में जात- पात का बन्धन नहीं रहना चाहिए। बेशक 2014 में कांग्रेस को सिर्फ दो सीटें अमेठी और रायबरेली की ही मिलीं मगर इसकी वजह कांग्रेस पार्टी के पिछले दस वर्ष के शासन के खिलाफ पैदा हुई जबर्दस्त नाराजगी थी और साम्प्रदायिक आधार पर गहरा ध्रुवीकरण था।

पूरा चुनाव कांग्रेस विरोध के फलसफे पर ही लड़ा गया था लेकिन वर्तमान में बसपा-सपा गठबन्धन की ताकत को हम जरूरत से ज्यादा वजन देकर नहीं देख सकते क्योकि अखिलेश यादव की पार्टी का दबदबा मध्य उत्तर प्रदेश और मायावती का दबदबा पश्चिमी उत्तर प्रदेश व बुन्देलखंडी इलाकों में ही है, जबकि कांग्रेस का गढ़ फैजाबाद से लेकर फतेहपुर की पट्टी में माना जाता है लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चौधरी चरण सिंह की विरासत संभाले उनके पौत्र जयन्त चौधरी की ताकत को जिस तरह इन दोनों पार्टियों ने नजरंदाज किया है उसने कांग्रेस पार्टी को अलग रहते हुए ही भाजपा के खिलाफ तेज-तर्रार लहाई लड़ने का सुअवसर दे दिया है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुस्लिम सम्प्रदाय के मतादाता चौधरी चरण सिंह के उतने ही अनुयाई रहे हैं जितने कि जाट समुदाय के लोग इस इलाके में मुस्लिम समाज जयन्त चौधरी के राहुल गांधी के साथ चले जाने पर सियासत की रंगत बदलने की हैसियत रखता है जिसकी रंगत से मध्य उत्तर प्रदेश और पूर्वी उत्तर प्रदेश के इलाके भी अछूते नहीं रह पाएंगे क्योंकि इस बार लोकसभा चुनाव ‘वोटबैंक’ के हस्तांतरण से नहीं बल्कि ‘विचारधारा’ के हस्तांतरण से तय होने जा रहे हैं और इसके जिम्मेदार मुख्य रूप से राज्य के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ हैं जिन्होंने हुकूमत का मतलब धार्मिक प्रवचन समझ रखा है। मगर उत्तर प्रदेश को जीतने के लिए अन्ततः मजहब के मसले ही केन्द्र में लाने की पुरजोर कोशिश इस तरह होगी कि असम को केन्द्र में रख कर बना नया नागरिकता कानून और तीन तलाक अध्यादेश गली–गली इश्तिहार बना घूमेगा और राम मन्दिर तो है ही सदाबहार संगीत का खजाना।

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