जूता, चप्पल, चपत और कानून ! - Punjab Kesari
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जूता, चप्पल, चपत और कानून !

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क्या समां बंध रहा है चुनावी जंग का कि ‘जूते’ के साथ-साथ अब ‘चपत’ भी चल पड़ा है और इससे भी ऊपर देश पर जान न्यौछावर करने वाले शहीदों को सीना ठोक कर पूरी शान-ओ-शौकत के बीच सरेआम गालियां दी जा रही हैं और ‘देशद्रोही’ बताया जा रहा है। आसमान में बैठे हुए सरदार भगत सिंह से लेकर महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल और भीमराव अम्बेडकर सोच रहे हैं कि क्या खूब लोकतन्त्र के हिमायती पैदा हुए हैं जो आतंकवाद के जुर्म में अदालत से जमानत पर रिहा एक औरत के दर्द में आतंकवादियों से लड़ते हुए ही शहीद हो जाने वाले एक जांबाज पुलिस अफसर की कुर्बानी को उसकी बददुआ का नतीजा मान रहे हैं।

लानत है ऐसे राष्ट्रवाद पर जो राष्ट्र पर जान कुर्बान करने वाले सिपाहियों को देशद्रोही बताकर सारी दुनिया में आतंकवाद के खिलाफ भारत के युद्ध को मानसिक रूप से दिवालिये लोगों की चुनावी बिसात का मोहरा बनाना चाहता है। क्या गजब का लोकतान्त्रिक वैचारिक युद्ध हो रहा है कि भरे मंच पर तकरीर देते कांग्रेसी नेता हार्दिक पटेल को उनका विरोधी चपत मार देता है जबकि भाजपा की प्रेस कान्फ्रेंस में एक व्यक्ति इस पार्टी के प्रवक्ता पर जूता फेंक कर मारता है। क्या हमारा दिमागी सन्तुलन इतना बिगड़ गया है कि हम विरोधी विचारों को सुनने के लिए तैयार नहीं हैं ? लेकिन यह सब अचानक नहीं हुआ है।

पिछले लगभग 20 वर्ष से जिस प्रकार की राजनीति इस देश में हो रही है, यह सब उसी का परिणाम है जिस प्रकार रहजनों को रहबर बनाने की मुहीम इस मुल्क में छिड़ी हुई है उसने भारत की अजमत को पूरी तरह गुंडों और कातिलों का सरमाया बना डाला है और आज हद यह हो गई है कि राजनैतिक दलों को ही कानून और संविधान की परवाह नहीं है। वे खुद ऐलान कर रहे हैं कि कानून से चलने वाले मुल्क भारत की पहचान को अब जेलों से बाहर आने वाले लोग अपने अन्दाज से बनायेंगे। यह कोई मजाक नहीं है कि चुनावी सभा में किसी नेता को कोई व्यक्ति मंच पर चढ़कर चपत लगा दे। मुझे अच्छी तरह याद है कि 2004 के लोकसभा चुनावों के दौरान चप्पल मारने की बहार आयी थी। कांग्रेस व भाजपा के बड़े-बड़े नेताओं की सभा में जनता के बीच से चप्पल फेंकने का फैशन सा चल पड़ा था। इसकी गिरफ्त में श्रीमती सोनिया गांधी से लेकर लाल कृष्ण अडवानी तक आये थे।

यह नई राजनैतिक संस्कृति जब पनप रही थी तो हम सोच रहे थे कि यह कुछ सिरफिरों का कमाल है, मगर ऐसा था नहीं। भारत की महान लोकतान्त्रिक प्रणाली को कमजोर और बेआबरू करने की साजिश रचने वाली ताकतें तब अपना प्रयोग कर रही थीं और देख रही थीं कि आम जनता की ताकत से सत्ता में बैठने की व्यवस्था को किस तरह छिन्न-भिन्न किया जा सकता है। यह अराजकता पैदा करने का ऐसा प्रयोग था जिसका दोष जनता के नाम पर राजनैतिक दलों के माथे मढ़ा जा सके परन्तु यह असफल रहा परन्तु भारत में लोकतन्त्र को कमजोर करने वाली ताकतें पस्त नहीं हुई और उन्होंने दूसरे रास्ते निकालने शुरू कर दिये। जिसका आगाज 2012 में अन्ना आन्दोलन के तहत हुआ जिसमें समूचे राजनैतिक जगत को सर्कस के जोकरों की तरह दिखाने में नागरिक आंदोलन को जरिया बनाया गया और संसद में बैठे सदस्यों को चोर, दुराचारी, लम्पट, गुंडा तक के नामों से नवाजा गया।

जो लोग समझते हैं कि यह आन्दोलन भ्रष्टाचार के विरुद्ध था वे मूलतः गलती पर हैं क्योंकि इस आंदोलन का एकमात्र उद्देश्य भारत की संसदीय प्रणाली में संसद की सत्ता को नाकारा बनाना था और मनमोहन सिंह सरकार को हुकूमत से बेदखल करना था। वरना ऐसा क्यों होता कि जब एक अन्ना समर्थक ने उस समय राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेता श्री शरद पंवार को एक समारोह में जाते चपत मार दिया था तो खुद अन्ना हजारे ने कहा था कि उन्हें एक नहीं बल्कि कई चपत लगाने चाहिए थे। यह सब इसीलिए था जिससे लोकतन्त्र के राजनैतिक चरित्र को विद्रूप बनाकर लोगों के समक्ष पूरी प्रणाली को नाकारा साबित किया जा सके। मगर अन्ना हजारे वह जमीन तैयार करके जाना चाहते थे जिस पर खड़े होकर आने वाली राजनीति लोकतान्त्रिक परंपराओं और मान्यताओं को दरकिनार करके कानून के खौफ से मुक्त हो सके और लोगों को समझा सके कि संविधान कुछ नहीं होता वे चाहें तो इसमें खुद संशोधन कर सकते हैं।

इस मामले में तत्कालीन मनमोहन सरकार ने बुनियादी गलती यह कर दी थी कि उसने अन्ना हजारे जैसे कानून के अनपढ़ को ही लोकपाल विधेयक लिखने में शामिल कर लिया था। ऐसा ही काम भोपाल मंे सत्ताधारी पार्टी ने कर डाला है और इस लोकसभा सीट से आतंकवाद की अभियुक्त कथित साध्वी प्रज्ञा को अपना प्रत्याशी घोषित कर दिया है। प्रज्ञा सिंह के जुड़े होने के सारे सबूत महाराष्ट्र आतंकवाद विरोधी पुलिस (एटीएस) के प्रमुख स्व. शहीद हेमन्त करकरे ने अदालत में पेश कर दिये थे मगर 2011 में यह मामला एनआईए को सौंप दिया गया था जिसने अपनी प्रथम चार्जशीट ही 2016 में दायर की और 2017 में कह दिया कि वह आतंकवाद की धारा से जुड़े सबुत नहीं जुटा पा रही है।

सबसे गंभीर सवाल यह है कि प्रज्ञा सिंह शहीद करकरे को अपने ऊपर जुल्म ढहाने का दोषी बताकर स्वयं को भगवा रंग का रक्षक बता रही है और धर्म व अधर्म की बात करते हुए ‘हिन्दू आतंकवाद’ की साजिश रचने का आरोप गढ़ रही है। वह कह रही है कि शहीद हेमन्त करकरे ने उसे यातना दी इसलिए उसने उसे कोसा या अभिशापित किया जिसकी वजह से सवा महीने के भीतर उसका सर्वनाश हो गया। श्री करकरे नवम्बर 2008 में मुम्बई में पाकिस्तानी आतंकवादी हमले का मुकाबला करते हुए शहीद हो गये थे और 2012 में उन्हें शौर्य सम्मान ‘अशोक चक्र’ से मरणोपरान्त सम्मानित किया गया था। मगर भोपाल में क्या सितम ढहाया जा रहा है कि अशोक चक्र प्राप्त वीर रणबांकुरे को एक मुल्जिम देशद्रोही बता रहा है और राजनीति प्रसन्न हो रही है।

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