धारा 377 की विदाई लेकिन... - Punjab Kesari
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धारा 377 की विदाई लेकिन…

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समलैंगिकता का अस्तित्व प्राचीनकाल से ही अनेक देशों में पाया गया है लेकिन यह कभी उस रूप में नजर नहीं आया जैसा कि आधुनिक युग में देखने को मिला है। आधुनिक युग में कुछ देशों ने समलैंगिकता को कानूनी मान्यता दे दी है तो कुछ देश इसके सख्त खिलाफ रहे हैं। बदलते दौर में मनुष्य भी अप्राकृतिक होने लगे हैं। इस पर बहुत बहस होती रही है कि समलैंगिकता प्राकृतिक है या अप्राकृतिक। बहस कितनी भी हाे लेकिन यह तो सभी जानते हैं कि समलैंगिकता प्राकृतिक तो कतई नहीं है। देश की सर्वोच्च अदालत ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटा दिया है। इसके अनुसार आपसी सहमति से दो वयस्कों के बीच बनाए गए समलैंगिक सम्बन्धों को अब अपराध नहीं माना जाएगा। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा सहित 5 न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने 24 वर्ष और कई अपीलों की सुनवाई के बाद अपना अन्तिम फैसला दिया है। फैसला सुनाते हुए चीफ जस्टिस ने कहा कि जो भी जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। समलैंगिक लोगों काे सम्मान के साथ जीने का अधिकार है। समलैंगिक लोगों के प्रति लोगों काे अपनी सोच बदलनी होगी।

इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला पलटते हुए इसे अपराध की श्रेणी में डाल दिया था। भारतीय दण्ड संहिता में समलैंगिकता काे अपराध माना गया था। आईपीसी की धारा 377 के मुताबिक जो कोई भी किसी पुुरुष, महिला या पशु के साथ अप्राकृतिक सम्बन्ध बनाता है तो इस अपराध के लिए 10 वर्ष की सजा या उम्रकैद का प्रावधान रखा गया था। इसमें जुर्माने का भी प्रावधान था आैर इसे गैर जमानती अपराध की श्रेणी में रखा गया था। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद धारा 377 को विदाई दे दी गई है। अगर हम थोड़ा पीछे मुड़कर देखें तो जब सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाया था, तब धारा 377 तो अपने आप ही अप्रभावी हो गई थी क्योंकि सैक्सुअलिटी एक नितांत निजी विषय है। इस केस में सरकार ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया। सुनवाई के दौरान अतिरिक्त सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने एक हलफनामा दाखिल कर कहा था कि केन्द्र सरकार धारा 377 की वैधता का फैसला पूरी तरह सुप्रीम कोर्ट पर छोड़ती है।

सरकार ने यह भी कहा था कि सुप्रीम कोर्ट को धारा 377 के तहत समलैंगिकता को अपराध बनाने वाले प्रावधान पर ही फैसला करना चाहिए, इससे जुड़े दूसरे मामलों पर नहीं क्योंकि उनके कई दूरगामी नतीजे हो सकते हैं। हलफनामे के मुताबिक समलैंगिकता अगर अपराध नहीं तो इसके बाद नागरिक संगठन बनाने का अधिकार या सम्पत्ति हस्तांतरण जैसे मुद्दों का हल निकालने के लिए केन्द्र सरकार राजनीतिक पहल करेगी। सुप्रीम कोर्ट ने सिर्फ इस प्रश्न पर फैसला सुनाया है कि धारा 377 वैध है या अवैध। 2009 में दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस ए.पी. शाह और एम. मुरलीधर ने एक ऐतिहासिक फैसला देते हुए कहा था कि धारा 377 संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का उल्लंघन करती है और जीवन जीने के अधिकार पर बंदिश लगाती है। हालांकि तीन वर्ष बाद सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला पलट दिया था। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अब एलजीबीटीक्यू समुदाय के अधिकारों आैर सम्पत्ति हस्तांतरण के अधिकारों काे लेकर पिटारा खुल जाएगा। 21वीं सदी के पहले चरण में वैज्ञानिक शोध यह बात अकाट्य रूप से प्रमाणित कर चुका है कि समलैंगिकता रोग या मानसिक विकृति नहीं है, जिसका रुझान इस ओर होता है उन्हें इच्छानुसार जीवनयापन के बुनियादी अधिकारों से वंचित नहीं रखा जा सकता।

अब सबसे अहम सवाल है कि सभी धर्म समलैंगिक सम्बन्धोें को अप्राकृतिक व्यभिचार या पाप समझते हैं। पश्चिम में भी इसके पहले यूनान तथा रोम में वयस्कों तथा किशोरों के अंतरंग शारीरिक सम्बन्ध समाज में स्वीकृत रहे हैं। जिस बुरी व्यभिचारी लत को अंग्रेज ग्रीक लव कहते हैं उसे फ्रांसीसी वाइस आंग्लेस (अंग्रेजी ऐब) कहते रहे हैं। ईसाई अमेरिका के अनेक राज्यों में समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से निकाला जा चुका है और इनके विवाह काे कई राज्यों ने कानूनी मान्यता दे दी है। हमारे संविधान में यह स्पष्ट है कि प​िरवार पति-पत्नी व बच्चों का समूह होता है। समलैंगिक समाज इसके बिल्कुल विपरीत जाता दिखाई दे रहा है। अप्राकृतिक रिश्ते भारतीय संस्कृति को कितना आघात पहुंचाएंगे इसका आकलन स्वयं समाज को करना होगा। समलैंगिकों को मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार भारतीयों को सहर्ष स्वीकार है लेकिन मूल प्रश्न यह है कि क्या समलैंगिकों की शादियों को भारतीय स्वीकार करेंगे? क्या समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करने पर कारखानों, शिक्षा संस्थानों आैर जेलों में समलैंगिकता की बाढ़ तो नहीं आ जाएगी? मानव गलत रास्तों का चयन आसानी से कर लेता है। जिस तरह से देश में बलात्कार की घटनाएं बढ़ रही हैं उसे देखते हुए बहुत सी आशंकाएं निर्मूल नहीं हैं।

यह सनातन नियम है कि दो विपरीत तत्वों या गुणों के मिलने से नए तत्वों का निर्माण होता है। आक्सीजन एवं हाइड्रोजन के मिलने से पानी बनता है। हम हाइड्रोजन एवं आक्सीजन को देख नहीं सकते किन्तु उसके ​मिलने से निर्माण हुए पानी को देख सकते हैं इसी प्रकार जमी हुई बर्फ पर जब सूर्य की किरणें पड़ती हैं बर्फ को बर्फ से मिलाने पर कुछ नहीं होता, वह अपना स्वरूप नहीं बदल पाती। कहने का मतलब यह है कि दो विपरीत तत्वों के मिलने पर ही नए तत्व का निर्माण होता है, यह नियम ईश्वर प्रदत्त है। यही प्राकृतिक स्थितियां हैं जिसमें विज्ञान की अवधारणाएं लागू होती हैं। अतः स्पष्ट है कि स्त्री-पुरुष के समागम से जो नई उत्पत्ति होती है वही संसार को आगे बढ़ाने का कार्य करती है। पुरुष-पुरुष, स्त्री-स्त्री के समागम से क्या नई पीढ़ी का जन्म सम्भव है? प्रकृति ने संसार की निरंतरता हेतु इन स्थितियों का निर्माण किया। निरंतरता हेतु जीव में नर-मादा की उत्पत्ति यदि ईश्वर ने न की होती तो क्या संसार आगे बढ़ पाता?

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