मेरा अभी भी यह दृढ़ मत है कि काशी विश्वनाथ धाम परिसर में स्थित ज्ञानवापी क्षेत्र को मुस्लिम बन्धुओं को हिन्दुओं को सौंप देना चाहिए औऱ स्वतन्त्र भारत की एकता व ‘गंगा-जमुनी’ तहजीब में इजाफा करने के लिए अपना बड़ा दिल दिखाना चाहिए। काशी या बनारस हिन्दू मान्यता के अनुसार स्वयं भगवान शंकर द्वारा बसाया गया वह स्थान है जिसमें शहनाई वादन के शहंशाह उस्ताद बिस्मिल्ला खां ने अपनी धुनों से भोलेनाथ को मनाया और शंकर-शंभू जैसे महान कव्वालों ने ‘‘हजरत मोहम्मद सलै-अल्लाह-अलै-वसल्लम” की शान में ‘नात’ गाया। काशी के विश्वनाथ धाम के बारे में ऐतिहासिक दस्तावेज आज भी संग्रहालय में सुरक्षित हैं कि 1669 में औरंगजेब ने इसका विध्वंस करने का फरमान जारी किया था। इसी प्रकार उसने मथुरा के केशवदेव मन्दिर को भी क्षति पहुंचाने का आदेश दिया था। बेशक यह उस दौर की राजनीति में राजशक्ति दिखाने की कोई रणनीति रही होगा जबकि औरंगजेब के शासन में पूरे मुगल सम्राटों के शासन के मुकाबले सर्वाधिक ‘हिन्दू मनसबदार’ थे। मगर यह इतिहास का सच तो है ही अतः मुसलमानों को इसे स्वीकार करना चाहिए और भारतीय संस्कृति का सम्मान करते हुए फराखदिली दिखानी चाहिए।
आज के दौर की राजनीति में मुस्लिम बन्धुओं की यह फराखदिली मुल्क की सियासत की फिजां को खुशनुमा बना सकती है और इसकी एकता को मजबूत कर सकती है। मगर इसके साथ ही हिन्दुओं को भी मुसलमान बन्धुओं को यह यकीन दिलाना होगा कि इसके बाद वे हर मस्जिद में हिन्दू निशान ढूंढना बन्द कर देंगे और मुसलमानों के खिलाफ अनर्गल दुष्प्रचार बन्द कर देंगे। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर ज्ञानवापी क्षेत्र का पुरातात्विक सर्वेक्षण शुरू हो चुका है जो वैज्ञानिक तरीके से यह पता लगायेगा कि क्या वास्तव में हिन्दू शास्त्रों में वर्णित ज्ञानवापी क्षेत्र को औरंगजेब के शासनकाल में मस्जिद का रूप दिया गया था और हिन्दू पूजा क्षेत्र के ऊपर ही मस्जिद की गुम्बदें बनवा दी गई थीं अथवा यह मस्जिद पहले से ही मौजूद थी। यह घटना बेशक 17वीं सदी की थी मगर ज्ञानवापी की दरो-दीवार चीख-चीख कर यही कहती है कि किसी मन्दिर के भग्नावशेषों पर मस्जिद खड़ी कर दी गई, जो इस्लाम की नजर में भी नाजायज है।
हिन्दू धर्म के नवजात झंडाबरदारों को भी यह मालूम होना चाहिए कि 1959 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी केवल मथुरा व काशी को ही इसके मूल हिन्दू स्वरूप में स्थापित करने की मांग की थी। उस समय अयोध्या का कोई जिक्र नहीं था मगर 80 के दशक में देश की राजनीति ने जो करवट बदली उसके केन्द्र में अयोध्या में राम मन्दिर बनाने की मांग जोर पकड़ गई जिसकी पहल शुरू में कांग्रेस पार्टी ने ही की थी और इसके अगुवा विष्णुहरि डालमिया व उत्तर प्रदेश कांग्रेस के नेता बाबू दाऊ दयाल खन्ना थे। बाद में इस आन्दोलन को भाजपा नेता श्री लालकृष्ण अडवानी ने कब्जा लिया। जबकि हकीकत यह भी है कि अयोध्या की कथित बाबरी मस्जिद में आजादी के बाद 1949 में ही रात्रि में रामलला की मूर्तियां रखी गई थीं और हो- हल्ला हो गया था कि मूर्तियां प्रकट हुई हैं। उस समय फैजाबाद के जिलाधीश रहे स्व. आर.के. नैयर की पूरे मामले की रिपोर्ट में यह दर्ज है। अयोध्या में उस समय दंगे भड़क जाने पर वह राज्य के तत्कालीन मुख्यमन्त्री स्व. गोविन्द बल्लभ पन्त के पास गये और उन्होंने नैयर को अदालत में जाने की सलाह दी।
अदालत ने वहां ताला लगवा दिया जिसे स्व. राजीव गांधी के शासनकाल में खोला गया। अयोध्या में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर अब मन्दिर निर्माण हो रहा है जिसकी प्रसन्नता भारतवासियों में है और मुस्लिम नागरिक भी इसके विरुद्ध नहीं हैं। मगर काशी व मथुरा का मामला पूरी तरह अलग है क्योंकि इन स्थानों का औरंगजेब के काल में धार्मिक चरित्र बदला गया और बाकायदा शाही फरमान जारी करके बदला गया। अतः भारत की धर्मनिरपेक्ष ताकतों का भी यह कर्त्तव्य बनता है कि समूचे भारत की एकता व गंगा-जमुनी तहजीब की हिफाजत के लिए वे मुसलमानों को सलाह दे कि इन धार्मिक स्थानों को हिन्दुओं को सहर्ष सौंप दिया जाये और उनसे अपेक्षा की जाये कि भविष्य में वे किसी अन्य मुस्लिम धार्मिक स्थान पर किसी प्रकार का विवाद नहीं खड़ा करेंगे। इसकी असली वजह यह है कि इतिहास में जो हो चुका है उसके लिए न तो आज की हिन्दुओं की पीढ़ी जिम्मेदार है और न मुसलमानों की।
आज की दुनिया 17वीं सदी की दुनिया नहीं है कि भारत में राजे-रजवाड़ों और बादशाहों का शासन हो। आज भारत में लोकतन्त्र है और हर नागरिक के पास बिन भेदभाव के एक वोट का अधिकार है जिसका प्रयोग करके हर पांच साल बाद वह अपनी मनपसन्द की सरकार बनाता है। इस वोट को हम हिन्दू-मुसलमान में नहीं बांट सकते क्योंकि यह भारत के हर नागरिक को दिया गया है जिसका शासन संविधान के अनुसार चलता है और संविधान का कोई मजहब नहीं होता। भारत के मुसलमान देशभक्ति में किसी हिन्दू से पीछे नहीं रहे हैं। देश की सरहदों से लेकर नागरिक प्रशासन के मोर्चे पर मुस्लिम सैनिकों और अधिकारियों ने हमेशा संविधान की रक्षा करने का काम ही किया है और भारत माता का माथा ऊंचा किया है। चाहे वह ब्रिगेडियर उस्मान हों या हवलदार अब्दुल हमीद अथवा उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव रहे स्व. महमूद बट्ट। संगीत के क्षेत्र से लेकर सेना तक में भारतीय मुसलमानों ने कीर्तिमान स्थापित किये हैं। अतः काशी और मथुरा का विवाद कोई बहुत बड़ा मुद्दा नहीं है जिसे दोनों सम्प्रदाय बैठकर सुलझा ही न सकें।