म्यांमार में हैवानियत - Punjab Kesari
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म्यांमार में हैवानियत

म्यांमार के सैन्य शासन ने हैवानियत की सारी हदें उस समय पार कर दीं जब सेना ने अपने

म्यांमार के सैन्य शासन ने हैवानियत की सारी हदें उस समय पार कर दीं जब सेना ने अपने ही देश के नागरिकों की भीड़ पर एयर स्ट्राइक की। इस हमले में 100 के लगभग लोगों की मौत हो गई, जिनमें महिलाएं और बच्चे भी शामिल हैं। सागैंग क्षेत्र के कनबालू टाऊ​नशिप में पाजिगी गांव के बाहर सेना के शासन का विरोध करने वाले समूह नैशनल यूनिटी (एनयूजी) के कार्यालय के उद्घाटन के मौके पर जमा हुए लोगों की भीड़ पर विमान से बमबारी और हैलीकाप्टर के जरिये गोलीबारी की गई। मरने वाले लोगों में सरकार विरोधी सशस्त्र समूहों और अन्य विपक्षी संगठनों के नेता भी शामिल हैं। म्यांमार के इतिहास पर नजर दौड़ाएं तो पता चलता है कि भारत के पड़ोसी देश ने लोकतांत्रिक सरकार हासिल करने के लिए लम्बा संघर्ष देखा है लेकिन यहां ज्यादातर सेना का शासन ही रहा है। अंग्रेजों के शासनकाल में म्यांमार (बर्मा) भारत का हिस्सा था। वर्ष 1937 में ब्रिटेन ने इसे भारत से अलग कर अपनी क्राऊन कालोनी बना दिया था। इसके बाद 1942 में बर्मा पर जापान ने हमला कर दिया था। 
1945 में ब्रिटेन ने लोकतंत्र समर्थक नेता आंग सान सू की के पिता आंग सान के नेतृत्व वाले संगठन की मदद से बर्मा को जापान से आजाद कराया था और 1948 में बर्मा स्वतंत्र देश बन गया था। 1958 में पहली बार बर्मा की राजनीति में सेना की एंट्री हुई और 1962 में सैन्य नेता नेविन ने सरकार का तख्ता पलट सत्ता सम्भाल ली। तब से लेकर आज तक म्यांमार के लोगों ने जुंटा शासन (सैन्य शासन) के  अत्याचार ही सहे हैं। लम्बे संघर्ष के बाद आंग सान सू की का लोकतांत्रिक शासन आया लेकिन सेना ने उसका भी तख्ता पलट दिया और सू की को जेल में डाल दिया था। फरवरी माह में तख्ता पलट के दो साल पूरे हो चुके हैं लेकिन देश गृह युद्ध का​ शिकार हो चुका है। म्यांमार की सेना ने एक साल के भीतर 100 लोगों को मौत की सजा सुनाई है। म्यांमार की सेना ने सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए अपने विरोधियों का सफाया करना शुरू कर दिया है लेकिन विद्रोह का सिलसिला थमता नजर नहीं आ रहा। गत फरवरी माह में ही सू की की सरकार गिराए जाने की दूसरी सालगिरह पर हजारों लोगों ने हड़ताल में भाग लेकर सेना को अपनी ताकत दिखा दी थी। लोकतंत्र बहाली आंदोलन से घबराकर सेना ने लोकतांत्रिक प्रदर्शनों को कुचलना शुरू कर दिया। आतंक का शासन करने की जनरलों की पुरानी रणनीति है। सेना ने लगातार क्रूरता का परिचय दिया लेकिन उसके उल्ट देश सशस्त्र गृह युद्ध की लपटों में घिर गया। रोहिंग्या मुस्लिमों पर अत्याचार करने के लिए कुख्यात हुए म्यांमार में मामला लगातार बिगड़ता ही गया।
अब मानवीय आपदा के रूप में जुंटा के सामने कई संकट मुंह बाए खड़े हैं। पुरानी सरकार के बचे-खुचे लोगों ने एक वैकल्पिक सरकार, राष्ट्रीय एकता सरकार का गठन किया है। एनयूटी की सशस्त्र इकाई पीपल्स डिफेंस फोर्स (पीडीएफ) के कई प्रकोष्ठों ने अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण बौद्ध भूमि पर अचानक घात लगाकर हमले करने शुरू कर दिए हैं। सीमावर्ती इलाकों में सेना से लड़ रहे जातीय अल्पसंख्यक लड़ाकों ने पीडीएफ के शहरी गुरिल्लाओं से हाथ मिला लिया है। जवाब में जुंटा ने अंधाधुंध बमबारी शुरू कर दी। तख्ता पलट के बाद से लगभग 3,000 नागरिक मारे गए हैं, 40,000 घर तबाह हुए और करीब 15 लाख लोगों को विस्थापित होना पड़ा। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक करीब 1.76 करोड़ लोगों को मानवीय सहायता की जरूरत है, जो कि म्यांमार की लगभग एक-तिहाई आबादी है। जुंटा न तो इन समस्याओं को हल करने में सक्षम है और न ही  इन मामलों में उसकी कोई रुचि दिखती है। साथ ही अपने ही लोगों के खिलाफ युद्ध लड़ने से जनरलों का उद्देश्य भी पूरा नहीं हो रहा है। अन्तर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों के स्वतंत्र समूह विशेष सलाहकार परिषद की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि जुंटा का देश के सिर्फ 17फीसदी हिस्से पर ही नियंत्रण है। यह एक अभूतपूर्व स्थिति है। 
भारत की म्यांमार की स्थिति पर पैनी नजर है लेकिन समस्या यह है कि म्यांमार के सैन्य शासन को चीन का पूरा समर्थन प्राप्त है। हिंसा की आग में जल रहे इस देश को चीन जमकर लूट रहा है। चीन वहां के दुर्लभ खनिजों को आयात कर रहा है। लाखों टन दुर्लभ खनिज चीन ले जा रहा है। जिनका इस्तेमाल स्मार्ट फोन, इलैक्ट्रिक कारें और अन्य हाईटैक प्रोडक्ट बनाने के लिए किया जा रहा है। चीन को म्यांमार में एक तरह से खजाना मिला हुआ है। अब सवाल यह है कि म्यांमार में मानवता के कत्लेआम को कैसे रोका जाए। 
संयुक्त राष्ट्र ने सेना के हमले की निंदा तो की है लेकिन मानवता को बचाने के लिए वह कुछ भी ठोस नहीं कर रहा। दुनिया सेना के शासन की क्रूरता को मूकदर्शक बनकर देख रही है। वैश्विक शक्तियां जो पलभर में किसी भी तानाशाह को उखाड़ने में सक्षम हैं, वे जनरल मिन आंग लैंग के मामले में खामोश क्यों हैं। यद्यपि म्यांमार पर काफी पाबंदियां लगाई गई हैं कि वह दूसरे देशों से हथियार नहीं खरीद सकता लेकिन वह अपने ही लोगों को मारने के लिए विदेशी कम्पनियों की मदद से हथियारों का जखीरा बढ़ा रहा है। म्यांमार की जनता को क्रूर शासन से मुक्ति दिलाने के लिए दुनियाभर के लोकतंत्र समर्थक ताकतों को एकजुट होकर म्यांमार के सैन्य शासकों पर दबाव डालना चाहिए अन्यथा मानवता कराहती ही रहेगी।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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