एशियाई खेलों में भारतीय खिलाड़ी न केवल नए कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं बल्कि पदकों की संख्या भी लगातार बढ़ा रहे हैं। 1986 में 100 मीटर की महिला रेस में पी.टी. ऊषा ने भारत के लिए रजत पदक जीता था। उसके बाद दुती चन्द ने अब पी.टी. ऊषा का रिकार्ड तोड़ते हुए रजत पदक जीता है। दुती ने 11.32 सैकेंड का समय निकाला। वह स्वर्ण जीतने वाली बहरीन की इडिडोंग ओडियोंग के समय 11.30 सैकेंड से 0.02 सैकेंड पीछे रही। इस तरह एथलेटिक्स में भारत के लिए 32 वर्ष बाद सूख खत्म हुआ है। 400 मीटर रेस में हिमा दास और पुरुषों की 400 मीटर रेस में अनस ने भी रजत पदक जीता। 1982 में दिल्ली में हुई एशियाई खेलों में के.के. प्रेमचन्द्रन ने रजत पदक जीता था। पुरुषों की 400 मीटर रेस में 36 वर्ष का सूखा अनस ने पदक जीतकर खत्म किया। घुड़सवारी में फवाद मिर्जा ने रजत पदक जीता। इस इवेंट में भी भारत को 36 वर्ष बाद पदक मिला है। तब भारत के रघुवीर सिंह ने स्वर्ण, गुलाम मुहम्मद खान ने रजत और प्रहलाद सिंह ने कांस्य पदक जीता था। वहीं भारत काे घुड़सवारी के टीम इवेंट में भी रजत मिला है। यह 2006 के बाद टीम इवेंट में पहला पदक है। एथलेटिक्स में भारत को काफी लम्बा इंतजार करना पड़ा है। ऐसा क्यों है? इसके कारणों पर चिन्तन तो करना ही होगा।
सवा अरब से भी अधिक जनसंख्या वाले भारत में न तो प्रतिभाओं की कमी है आैर न ही जज्बे की। फिर भी हमें तीन-तीन दशक तक इंतजार करना पड़ता है। जहां तक जज्बे का सवाल है, इसे दुती चन्द की जीत से देखा जा सकता है। डोपिंग के चलते प्रतिबंध झेलने और फिर वापस ट्रैक पर आने से लेकर रजत पदक जीतने तक का दुती चन्द का सफर किसी करिश्मे से कम नहीं। अक्सर किसी भी खिलाड़ी या एथलीट के पिछड़ने पर लोग कहने लगते हैं जो पिछड़ गया, वह पिछड़ गया। लोगों को उनकी वापसी असंभव सी लगने लगती है।
खेल ग्लैमर वर्ल्ड की दुनिया से बहुत अलग है। खेलों में कमबैक करना हो तो निराशा से निपट कर कुछ कर दिखाने का जज्बा और जुनून ही काम आता है। 2014 में टैस्टीस्टीरोन दवा का अधिक सेवन में फंसने के बाद उन्हें आईएएएफ की ओर से प्रतिबंधित कर दिया गया था। उसके शरीर में पुरुष हार्मोन ज्यादा पाए गए थे। तब ऐसा लगा था कि दुती की वापसी नहीं होगी। उसने खेल पंचाट में अपील कर इस प्रतिबंध के खिलाफ जीत हासिल की। जिस दौर में दुती प्रतिबंध से गुजर रही थी, तब उनके साथ कोई खड़ा होने को तैयार नहीं था। ऐसे समय में ख्याति प्राप्त बैडमिंटन कोच पुलेला गोपीचन्द ने ही उसे सहारा दिया। आज दुती एशियाई खेलों में दूसरी सबसे तेज धावक बन चुकी है। आज देश को उस पर गर्व है। कोई भी उसके संकल्प और जज्बे को सलाम कर सकता है। मुश्किलों से लड़कर आगे बढ़ना उससे सीखा जा सकता है। चुनौतियों से निकलकर कुछ कर दिखाने का जज्बा रखने वालों के लिए दुती एक रोल मॉडल होगी। अगर वह रियो ओलिम्पिक की टिकट हासिल करती है तो 100 मीटर में क्वालीफाई करने वाली भारत की पहली महिला होगी। प्रतिबंध से पहले आेडिशा के एक बुनकर की बेटी दुती के पास दुनिया की श्रेष्ठ धाविकाओं का मुकाबला करने के लिए अच्छे जूते तक नहीं थे। दौड़ के दौरान पहने जाने वाले जूते बहुत महंगे आते हैं। उसने राज्य सरकार से एक ट्रैक सूट और एक जोड़ी दौड़ने वाले जूतों की मांग की थी। देश और राज्य सरकार के लिए सम्मान हासिल करने के बावजूद उसे भिखारियों की तरह सरकार से यह सब मांगना पड़ा था।
यह भी दुःखद ही रहा कि दुती चन्द ने अलमाटी (कजाकिस्तान) में बनाए गए 100 मीटर के राष्ट्रीय रिकार्ड को एथलेटिक्स फैडरेशन ऑफ इंडिया ने प्रामाणिकता नहीं दी थी। तब डोप परीक्षण प्रयोगशाला के दर्जे को लेकर विवाद आड़े आ गया था। दुती को कितनी ही मुश्किलों का सामना करना पड़ा लेकिन उसने कड़ी मेहनत के बाद अपना, अपने राज्य ओडिशा आैर देश का नाम रोशन किया। जब कोर्ट आफ आर्बिट्रेशन ऑफ स्पोर्ट्स (कैस) ने यह घोषित किया कि दुती पुरुष नहीं महिला है आैर वह राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में भाग ले सकती है तो उसने पुनः ट्रैक पर अभ्यास करना शुरू कर दिया। हालांकि उसने करियर का महत्वपूर्ण वर्ष गंवा दिया था लेकिन बतौर एथलीट वह अपने सपने को पूरा करने में जुटी रहीं। अगर राज्य सरकारें आैर एथलेटिक्स फैडरेशन स्कूली स्तर से ही प्रतिभाओं की पहचान कर उनकी हर तरह से मदद करें तो अनेक एथलीट तैयार किए जा सकते हैं। तमाम दुश्वारियों को झेलते हुए पदक जीतने वाली बेटियों आैर बेटों को राष्ट्र सलाम करता है।