रूस-यूक्रेन विवाद और ‘गांधीवाद’ - Punjab Kesari
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रूस-यूक्रेन विवाद और ‘गांधीवाद’

आज 2 अक्टूबर है और उन राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जन्म जयंती है जिन्होंने पूरे विश्व को अहिंसा

आज 2 अक्टूबर है और उन राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जन्म जयंती है जिन्होंने पूरे विश्व को अहिंसा का सन्देश देकर दुनिया के आधे से अधिक देशों के सामने अहिंसक मार्ग से स्वतन्त्रता प्राप्ति की प्रेरणा दी। उनके इस सिद्धान्त को ‘गांधीवाद’ का नाम दिया गया जिसे आज की दुनिया भी शोषण मुक्ति का नायाब तरीका स्वीकार करती है, परन्तु वर्तमान में रूस व यूक्रेन के बीच जो कुछ भी घट रहा है, वह हिंसा के रास्ते की विकृति को सचित्र प्रस्तुत करता है। पिछले सात महीने के दौरान जो विनाश इस युद्ध के चलते हुआ है उसे दुनिया के ही कुछ देश दो खेमों में बंट कर पाटना चाहते हैं और इस प्रयास में रूस व यूक्रेन के बीच खाई को और चौड़ा कर रहे हैं। इस खाई को पाटने का एक ही रास्ता हो सकता है जिसे ‘गांधीवाद’ कहा जाता है। परन्तु दुर्भाग्य से न तो अमेरिका और न ही रूस या चीन इस तरफ जाने को तैयार दिखाई पड़ रहे हैं। रूस ने यूक्रेन के लगभग 15 प्रतिशत हिस्से को अपने भौगोलिक सीमा क्षेत्र में समाहित करने का एेलान कर दिया है और जवाब में यूक्रेन ने पश्चिमी देशों के सामरिक संगठन ‘नाटो’ की त्वरित सदस्यता लेने के लिए प्रार्थना पत्र दाखिल कर दिया है। इससे इस क्षेत्र में तनाव और भी अधिक बढ़ने व युद्ध के और भी व्यापक होने का खतरा पैदा हो रहा है। मगर रूस ने यूक्रेन के 15 प्रतिशत भू-भाग में फैले चार राज्यों डोनेस्क, लुहांस्क, खेरसन व जेपोरिझिया में पहले जनमत संग्रह करा कर वहां के लोगों की राय ली और पूछा कि क्या वे रूस का हिस्सा बनना चाहते हैं।
 युद्ध के भयंकर वातावरण के बीच रूस की तरफ से गांधीवाद के अनुरूप एकमात्र यही उपचार किया गया। रायशुमारी में अधिसंख्या रूसी भाषा बोलने वाले नागरिकों ने रूस में शामिल होने पर सहमति दी और इसके बाद इन चारों राज्यों के जन नेताओं ने रूसी राष्ट्रपति श्री पुतिन के साथ सन्धिपत्र पर विलय के हस्ताक्षर कर दिये। मगर अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन ने इस जनमत संग्रह को जाली करार दिया और कहा कि रूस की यह कार्रवाई सीधे किसी दूसरे संप्रभु देश की सीमाओं का अतिक्रमण है। पुतिन किसी भी तौर पर किसी देश में सैनिक कार्रवाई करके वहां के कुछ इलाके में जनमत संग्रह नहीं करा सकते हैं। यह जनमत संग्रह रूसी सेनाओं की इन चारों राज्यों में प्रभावी उपस्थिति के दौरान हुआ है। मगर रूस का कहना है कि इन चारों राज्यों की जनता को उसकी इच्छा के विपरीत यूक्रेन में रखा गया था।
इसके पीछे की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति यह है कि पश्चिमी देश 1990 में सोवियत संघ के विघटन के बाद बचे-खुचे रूस पर इस तरह दबाव बना कर रखे हुए थे कि वह अपने पुराने सदस्य रहे देशों के ही दबाव में बना रहे और उस पर नाटो सन्धि के पश्चिमी देशों की सामरिक शक्ति का खतरा मंडराता रहे। जाहिर है कि रूस इस दबाव को एक सीमा तक ही सह सकता था क्योंकि वह अपनी सीमा से लगते किसी दूसरे सोवियत संघ में शामिल रहे देश को नाटो का सदस्य नहीं होने देना चाहता था। क्योंकि रूस ने सोवियत संघ के बिखरने के साथ ही नाटो के समकक्ष खड़ी की गई सामरिक शक्ति वाले देशों के संगठन ‘वारसा सन्धि’ को समाप्त कर दिया था। परन्तु इसके बावजूद नाटो का अस्तित्व बना रहा और वह बचे-खुचे रूस के सामने नये-नये खतरे पैदा करता रहा। मगर यूक्रेन ने जब नाटो का सदस्य बनने का प्रार्थना पत्र कुछ वर्ष पहले लगाया तो उसके सब्र का बांध टूट गया और सात महीने पहले उसने यूक्रेन के विरुद्ध सैनिक कार्रवाई शुरू कर दी। 
सवाल यह भी पैदा होता है कि जब यूक्रेन के रूस में विलयित चार राज्यों की जनता स्वयं रूस में शामिल होना चाहती है तो यूक्रेन उसे किस तरह दबा सकता है। नागरिक स्वतन्त्रता का अधिकार तो इन चार राज्यों के लोगों को भी है। अभी रूसी राष्ट्रपति पुतिन अपने कदम से पीछे हटने को तैयार नहीं हैं और उन्होंने घोषित कर दिया है कि रूस की नई भौगोलिक सीमाएं तय हो चुकी हैं। श्री पुतिन ने अमेरिका समेत पश्चिमी देशों पर यह आरोप भी लगाया है कि इन शक्तियों ने पहले भारत को लूटा और अब उनकी निगाहें रूस पर हैं। श्री पुतिन के इस कथन में वजन है क्योंकि 1947 से पहले अंग्रेजों के दो सौ वर्षों के शासन में आर्थिक रूप से इसे पूरी तरह खोखला बना दिया गया था। इसके साथ ही दीगर सवाल यह भी है कि रूस के साथ अपने मतभेदों को समाप्त करने के लिए यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की ने बातचीत का रास्ता क्यों नहीं अपनाया और नाटो की सदस्यता के लिए क्यों व्यग्रता दिखाई जबकि सोवियत संघ के विघटन के बाद यह समझौता हो चुका था कि नाटो पुराने सोवियत संघ की सीमाओं से दूर रहेगा।
 पश्चिमी देश किसी भी सूरत में रूस को अपने रुआब में नहीं ले सकते क्योंकि जिस द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका पूरे विश्व की शक्ति बना था उसमें भी महत्वपूर्ण योगदान रूस का ही था। यदि 1939 से 1945 तक चले इस विश्व युद्ध में सोवियत संघ अमेरिका व अन्य पश्चिमी मित्र राष्ट्रों के साथ न आया होता तो हिटलर व मुसोलिनी की गठबन्धन सेनाओं को हराना मुमकिन न हो पाता। इस विश्व युद्ध में कुल पांच करोड़ सैनिक हताहत हुए थे जिनमें से दो करोड़ 70 लाख अकेले सोवियत संघ के ही थे। यूक्रेन बिना नाटो का सदस्य हुए भी रूस का अच्छा पड़ोेसी देश हो सकता है। अतः भारत का रुख साफ है कि विवाद का हल बातचीत द्वारा ही शान्तिपूर्ण तरीके से किया जाना चाहिए। दुनिया को भीषण संघर्ष से बचाने का एक मात्र रास्ता गांधीवाद ही है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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