समान नागरिक संहिता पर बवाल - Punjab Kesari
Girl in a jacket

समान नागरिक संहिता पर बवाल

जब देश में अधिकतर मामलों में नागरिकों पर एक समान कानून लागू होते हैं तो फिर पर्सनल लॉ

जब देश में अधिकतर मामलों में  नागरिकों पर एक समान कानून लागू होते हैं तो फिर पर्सनल लॉ की जरूरत नजर नहीं आ रही। अलग-अलग धर्मों के अपने पर्सनल लॉ भारत के संविधान पर ही सवालिया निशान लगाते दिखाई दे रहे हैं। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने देश में समान नागरिक संहिता लागू करने का विरोध किया है और मुस्लिमों को पूरी तरह से शरीयत पर अमल करने का आह्वान किया है। बोर्ड ने ऐलान किया है कि यह समान नागरिक संहिता पर आर-पार की लड़ाई लड़ेगा और इसके विरोध में सिख, ईसाई, दलित और आदिवासी समुदाय को एकजुट करने की मुहिम चलाएगा। विरोध के लिए केंद्रीय कमेटी का गठन ​करते हुए कहा गया कि समान नागरिक संहिता धार्मिक, सांस्कृतिक पहचान खत्म करने का प्रयास है जिसे कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता। कुछ अन्य मुस्लिम संगठनों ने भी विरोध के स्वर उठाए हैं। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सख्त रुख को देखते हुए यह सवाल उठ रहा है कि मुस्लिम संगठनों को समान नागरिक संहिता से आपत्ति क्या है। ऐसा क्या हो जाएगा कि वह मसौदा आए बगैर ही इसका विरोध करने में लगे हुए हैं। अगर समान नागरिक संहिता लागू होती है तो बहुविवाह की जरूरत ही नहीं होगी आैर गोद या वसीयत का अधिकार सबके लिए एक समान होगा। अभी तक संपत्ति की हिफाजत के लिए अगर कोई मुस्लिम दंपति बच्चा गोद लेता है तो मुस्लिम लॉ के तहत वह सारी संपत्ति उसके नाम नहीं कर सकता। मुस्लिम महिलाओं की स्थति किसी से छिपी नहीं है। कोई महिला नहीं चाहती कि उसका शौहर दूसरी शादी करे ऐसे में एक समान कानून का सबसे बड़ा फायदा मुस्लिम महिलाओं और बेटियों को ही होगा। अगर हर समुदाय की लड़कियों की शादी 20-21 साल की उम्र में होती है तो वह पढ़-लिखकर आगे बढ़ेंगी। इस पर ​किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। एक समान कानून लागू होने पर सभी समुदाय के लोगों के लिए तलाक की प्रक्रिया एक समान होगी। तीन तलाक भले ही खत्म हो गया है लेकिन मुस्लिम समाज में यह प्रथा जारी है क्योंकि वह कोर्ट में जाते ही नहीं हैं। मुस्लिम समुदाय में संपत्ति के मामले में भी महिलाओं को शौहर के बराबरी का दर्जा नहीं दिया जाता। लेकिन इससे उन्हें भी बराबरी का दर्जा मिलेगा। ऐसे में कॉमन सि​िवल कोड को लेकर बवाल समझ से परे है। जो लोग मुस्लिम धर्म की पहचान खत्म होने का ढिंढोरा पीट रहे हैं वह भी सही नहीं है। समान नागरिक संहिता कानून लागू होने से मुस्लिमों के धर्म में कोई हस्तक्षेप नहीं होगा। वे अपनी इबादत पहले की तरह की कर सकेंगे।
दिल्ली हाईकोर्ट ने एक सुनवाई के दौरान देश में समान नागरिक संहिता लागू करने को लेकर एक टिप्पणी की थी। दरअसल, दिल्ली हाईकोर्ट ने एक तलाक के मुकदमे की सुनवाई के दौरान कहा था कि ‘समाज में धर्म, जाति और समुदाय की पारंपरिक रूढ़ियां टूट रही हैं। समान नागरिक संहिता लाने का ये सही समय है। केंद्र सरकार को संविधान के अनुच्छेद 44 के आलोक में समान नागरिक संहिता के लिए आवश्यक कदम उठाने चाहिए। भारतीय समाज अब सजातीय हो रहा है। धर्म, जाति और समुदाय की बंदिशें खत्म हो रही हैं। संविधान में समान नागरिक संहिता को लेकर जो उम्मीद जतायी गई थी, उसे केवल उम्मीद नहीं बने रहना चाहिए।’ दिल्ली हाईकोर्ट ने 1985 के शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश का जिक्र करते हुए कहा था कि ’30 से ज्यादा साल का समय बीत जाने के बाद भी इस विषय को गंभीरता से नहीं लिया गया है।’
सुप्रीम कोर्ट ने अप्रैल, 1985 में पहली बार समान नागरिक संहिता बनाने के संबंध में सुझाव दिया था। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानो प्रकरण में मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक के बाद गुजारे भत्ते का हकदार मानते हुए पीड़िता के पक्ष में फैसला सुनाया था। लेकिन, मुस्लिम कट्टरपंथियों और वोट बैंक की राजनीति की वजह से ” तुष्टिकरण के लिए राजीव गांधी की तत्कालीन सरकार ने संसद में कानून के जरिये सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया था। जिसके बाद से अब तक यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर केवल चर्चाएं ही होती रही हैं। वैसे, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस एसए बोबडे ने भी गोवा में एक कार्यक्रम के दौरान राज्य की समान नागरिक संहिता की तारीफ करते हुए कहा था कि ‘गोवा में लागू संहिता का देश के बुद्धिजीवियों को अध्ययन जरूर करना चाहिए। यह ऐसी संहिता है, जिसकी कल्पना संविधान निर्माताओं ने की थी। 
समान नागरिक संहिता को लेकर एक ऐसा फोबिया बन गया है जिससे देश की सियासत को धर्मों में बांटने की को​िशशें की जा रही हैं। सियासत में ध्रुवीकरण की राजनीति जमकर हो रही है। बेहतर यही होगा कि मुस्लिम समाज अपनी गलतफहमियों को दूर करे। यद्यपि भारतीय संविधान में सभी को अपना धर्म मानने और उसका प्रचार करने की आजादी दी गई है। मजहब भले ही अलग-अलग हों लेकिन देश एक है। ऐसे में यह सवाल उठना भी लाजमी है कि एक देश में अलग-अलग धर्मों के हिसाब से अलग-अलग कानून होना तो क्या वाकई सही है, अगर सही नहीं तो फिर बवाल क्यों।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *


Girl in a jacket
पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।