ट्रैफिक जाम एक ऐसी समस्या है जिससे हमारा हर रोज सामना होता है। ट्रैफिक जाम की समस्या केवल हमारे देश की समस्या नहीं है विदेशों में भी यह समस्या बहुत तेजी से बढ़ रही है। ब्रिटेन की राजधानी लंदन में भी गाड़ियां सबसे धीमी गति से चलती हैं। इसके बाद डबलिन, टोरंटो, मिलान और लीमा का नंबर आता है। भारत के बैंगलुरु और पुणे का स्थान छठा और सातवां है जबकि राजधानी दिल्ली और मुंबई 44वें और 52वें स्थान पर है। भारत के महानगरों में बैंगलुरु और पुणे ऐसे शहर हैं जहां कई बार गूगल भी नहीं बता पाता कि आपको कहीं पहुंचने में कितना समय लगेगा। भारत की सिलिकॉन वैली का सपना देखने वाले बैैंगलुरु शहर में पिछले 15 सालों से आबादी तेजी से बढ़ी है। अब यहां करीब 1.5 करोड़ लोग रहते हैं। सड़कों पर एक करोड़ से अधिक गाड़ियां हैं। ट्रैफिक जाम के कारण बैंगलुरु को हर साल 20 हजार करोड़ का भारी आर्थिक नुक्सान होता है। बैंगलुरु शहर में कुल 60 फ्लाईओवर हैं लेकिन इसके बावजूद लोगों को सड़कों पर जाम से जूझना पड़ता है। आवाजाही में देरी, भीड़भाड़, रेड लाइट सिग्नलों पर ठहराव, समय और पैट्रोल की हानि आदि कारणों से बहुत नुक्सान हो रहा है। दिल्ली और मुंबई में भी यह समस्या आम हो चुकी है। ट्रैफिक जाम के कारणों को समझने के लिए हमें समाज शास्त्र को समझना होगा। सड़क पर प्राइवेट वाहन और कार वालों का ही कब्जा है।
किसी भी समाज के सड़क के स्पेस ऐलोकेशन को देखिए आपको उस समाज के लोकतांत्रिक मूल्यों का पता चल जाएगा। सड़क डेमोक्रेटिक स्पेस है और सड़क पर किसके लिए कितनी जगह आवंटित है इससे उस समाज के लोकतांत्रिक मूल्यों का पता चलता है। यदि सड़क पर ताकतवर लोगों का कब्जा है तो समाज पर भी ऐसे ही लोगों का कब्जा होगा और यदि सड़क पर पैदल चलने वालों, साइकिल वालों के अधिकार सुरक्षित रहेंगे तो समाज के वंचित और गरीबों के अधिकार सुरक्षित रहेंगे। इसके अलावा सड़कों पर लगी अनऑथराइज दुकानें, ठेले, अनऑथराइज पार्किंग, ट्रैफिक की समस्या को और ज्यादा बढ़ाते हैं। ग्लोबलाइजेशन के कारण पूरी मानव सभ्यता की गतिशीलता अमूल-चूल रूप से बढ़ गई है। आर्थिक गतिविधियों का केंद्रीयकरण तेजी से बढ़ा है। बड़े शहर अर्थव्यवस्था के बड़े केन्द्र के रूप में उभरे हैं जो छोटे शहर हैं वे बड़ा बनना चाहते हैं और जो बड़े शहर हैं वे और ज्यादा बड़ा बनना चाहते हैं। स्थिति ऐसी आ गई है कि दिल्ली खुद को लंदन जैसा बनाना चाहती है। बनारस, बलिया और गोरखपुर खुद को मुंबई और दिल्ली जैसा बनना और दिखना चाहते हैं। सभ्यता की इस अंधी दौड़ ने सड़कों पर भीड़ बढ़ा दी है और सारी दुनिया ट्रैफिक जाम से जूझ रही है।
आज अपनी कार मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए भी स्टेटस सिंबल बन गई है। कॉलोनियों में कार पार्किंग के लिए जगह हो न हो लेकिन परिवारों के पास एक नहीं तीन-तीन गाडि़यां हैं। घनी आबादी के बीच बहुमंजिला इमारतें बनाए जाने से जनसंख्या का दबाव बढ़ता जा रहा है। इसके साथ ही ट्रैफिक की समस्या भी विकराल रूप लेती जा रही है। रिहायशी कॉलोनियों में सड़कों को तो आप एक सीमा तक ही चौड़ा कर सकते हैं। ऐसे में ठोस नीति बनाना जरूरी हो जाता है। देखा जाए तो शहरों पर यातायात के दबाव को देखते हुए उपनगर विकसित किया जाना आज की आवश्यकता बनता जा रहा है। फिर उपनगरीय व्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए एक प्रभावी सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था का होना भी आवश्यक हो जाता है। यदि हम हमारी पुरानी व्यवस्था पर गौर करें तो उस जमाने में बीस-तीस गांवों के पास कोई बड़ा बिजनेस सैंटर विकसित किया जाता था जिससे आवश्यक जरूरतों को वहां आसानी से पूरा किया जाता था। इन छोटे-छोटे बिजनस सैंटरों की अपनी पहचान होती थी और दैनिक जरूरतों के साथ ही शादी-विवाह या अन्य बड़े आयोजनों के लिए जरूरी सभी वस्तुएं यहां आसानी से उपलब्ध हो जाती थी।
कालांतर में इसे निरुत्साहित किया गया और कस्बों का स्थान शहरों द्वारा लिए जाने से सीधे बड़े शहरों की ओर पलायन होने लगा और इसका सीधा असर शहरी यातायात व्यवस्था पर पड़ा है। ऐसे में टाउन प्लानर्स को भविष्य की सोच के साथ नए इलाके या उपनगर विकसित करने होंगे ताकि बढ़ते यातायात को संतुलित किया जा सके। नियोजित विकास और आए दिन की परेशानी से मुक्ति के लिए ठोस व्यावहारिक कार्ययोजना बनानी होगी। अब सवाल यह है कि इस समस्या से निजात पाने के लिए क्या िकया जाए। इसके लिए कई क्षेत्रों को मिलकर प्रयास करने की जरूरत है। सार्वजनिक परिवहन में जबरदस्त निवेश के साथ परिवहन के वैकल्पिक साधनों जैसे साइकिल चलाना, पैदल चलना और स्मार्ट शहरी रणनीतियों को बढ़ावा देने की जरूरत है लेकिन समस्या यह है कि सड़कों पर साइकिल चलाने और पैदल चलने तक का रास्ता नहीं बचा है। अगर परिवहन के वैकल्पिक साधन उपलब्ध होंगे तो अनावश्यक रूप से कार चलाए जाना हतोत्साहित हो सकता है। भविष्य के लिए हमें टर्म ढांचा विकसित करना होगा ताकि भीड़ को नियंत्रित किया जा सके।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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