ज्ञानवापी वापस करो - Punjab Kesari
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ज्ञानवापी वापस करो

काशी के ज्ञानवापी क्षेत्र परिसर को हिन्दुओं को दिया जाना इसलिए आवश्यक है क्योंकि यह क्षेत्र भारत की

 काशी के ज्ञानवापी क्षेत्र परिसर को हिन्दुओं को दिया जाना इसलिए आवश्यक है क्योंकि यह क्षेत्र भारत की पुरातन सनातन संस्कृति का न केवल केन्द्र है बल्कि ‘हिन्दू राष्ट्रीय अस्मिता’ का भी प्रतीक है। इसका कथित गंगा-जमुनी तहजीब से कोई लेना-देना नहीं है क्योंकि यह कार्य मुस्लिम आक्रान्ताओं द्वारा हिन्दू संस्कृति और इस राष्ट्र के लोगों पर धार्मिक गुलामी का थोपा हुआ प्रतीक चिन्ह है। जरूरी नहीं कि अब से लगभग साढ़े तीन सौ वर्ष पहले औरंगजेब ने एक कट्टर मुस्लिम शासक के रूप में जो कारनामा किया उसकी हिमायत वर्तमान की मुस्लिम पीढ़ी और इस्लाम को मानने वाले उलेमा करें। यह सच तो सभी को स्वीकार करना होगा कि भारत में मुस्लिम आक्रान्ताओं का शासन शुरू होने के बाद ही हिन्दू धर्म स्थलों को नष्ट किया गया और भ्रष्ट किया गया तथा अनेक मन्दिरों को मस्जिदों में बदला गया। मगर काशी में ज्ञानवापी क्षेत्र के आदि विश्वेश्वर महादेव ज्योतिर्लिंग स्थान को मस्जिद में परिवर्तित कर औरंगजेब ने सीधे भारत की छाती पर कील ठोकने का काम किया जिससे हिन्दू यह समझ सकें कि उनकी शास्त्र सम्मत आस्थाओं पर भी इस्लामी परचम फहरायेगा। हालांकि इससे पहले भी 1633 में मुगल शासक शाहजहां ने काशी में 76 मन्दिरों को तोड़ने का फरमान जारी किया था। 
इतिहासकारों के सामने यह प्रश्न भी है कि वह इस तथ्य का पता लगायें कि औरंगजेब का बाप शाहजहां भी कम तास्सुबी और कट्टर इस्लामी मानसिकता का गुलाम था? क्योंकि उसने अपने पिता जहांगीर से लेकर अपने दादा अकबर के शासनकाल के दौरान बनवाये गये सभी मन्दिरों को तोड़ने का फरमान जारी किया था और अपनी ऐश परस्ती के लिए उस दौरान आम आदमियों को करों के बोझ से लाद दिया था। शाहजहां ने ही हिन्दू-मुस्लिम विवाहों पर रोक लगाई थी। एक प्रकार से देखा जाये तो औरंगजेब ने अपने पिता की विरासत को ही और आगे बढ़ाते हुए ‘गाजी’ की उपाधि धारण की। शाहजहांनामा का पुनः अध्ययन किये जाने की जरूरत हैं हालांकि इसे उसके दरबारी इतिहासकारों ने ही लिखा था। कुछ विद्वानों का कहना है कि इतिहास में जो घट चुका वह घट चुका उसे बदला नहीं जा सकता। यह धारणा ‘अधोगति’ के स्थायित्व का समर्थन करती है। हर व्यक्ति का यह मौलिक अधिकार होता है कि वह अपना वाजिब हक लेने के लिए लगातार जद्दोजहद करता रहे। इतिहास में किये गये अन्याय को यदि दुरुस्त न किया जाता तो 1947 में भारत को आजादी ही कैसे मिल पाती? अंग्रेजों के शासन को भारतीय अपना भाग्य कैसे मान सकते थे? स्वतन्त्रता पाने के लिए और इतिहास बदलने के लिए ही भारतीयों ने लम्बा संघर्ष किया और 15 अगस्त, 1947 का दिन देखा।  
भारत चुंकि संविधान से चलने वाला देश है और इसमें सिर्फ कानून की हुकूमत ही होती है। अतः काशी के ज्ञानवापी क्षेत्र को पाने के लिए हिन्दू समुदाय के लोग संवैधानिक रास्ते से लड़ाई लड़ रहे हैं। मगर सवाल खड़ा किया जाना चाहिए कि मुसलमानों ने 1947 में भारत को तोड़ कर पाकिस्तान बनाने के लिए कौन सा संवैधानिक रास्ता अपनाया था सिवाये इस्लामी उन्माद के? सवाल न तो 75 साल पहले लौटने का है और न ही साढ़े तीन सौ पहले के औरंगजेब शासन में लौटने का बल्कि असली सवाल ‘हक’ लेने का है। यह हक कानून के रास्ते से लेने का फैसला भारत की हिन्दू जनता ने किया है। क्या कयामत है कि किसी मस्जिद की बाहरी चारदीवारी से लेकर उसके भीतर तक हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों के अवशेष हैं और सनातनी पूजा प्रतीक चिन्ह है मगर वहां मुस्लिम लोग ‘वजू’ करते हैं। बेहतर हो कि गंगा-जमुनी तहजीब के गला फाड़ पैरार आगे आयें और आह्वान करें कि ऐसे सभी धर्म स्थलों को हिन्दुओं को बाइज्जत और पूरे एतराम के साथ सौंप दिया जाये जिन्हें उनके धर्म स्थलों को परिवर्तित इस्लामी रंग में रंगा गया है। बनारस का बच्चा-बच्चा जानता है कि ज्ञानवापी मस्जिद के नाम से पुकारी जाने वाली इमारत असल में मन्दिर की दीवारों के ऊपर गुम्बद तामीर करके ही बनाई गई है। मगर मुस्लिम समाज के कुछ कट्टरपंथी आज भी खुद को औरंगजेब की बदनुमा विरासत से जोड़े रखना चाहते हैं और हिन्दुओं को उनके वाजिब हक का हिस्सा नहीं देना चाहते। यही हालत मथुरा के श्री कृष्ण जन्म स्थान की है। मगर क्या-क्या हिमाकतें इस मुल्क में मुसलमानों का वोट हथियाने के लिए हुई हैं कि 1991 में बाबरी ढांचे के विवाद के चलते यह कानून बना दिया गया कि 15 अगस्त, 1947 तक जो धर्म स्थल जैसा था वैसा ही रहेगा उसके चरित्र में बदलाव नहीं आयेगा। 
जरा सोचिये जब 15 अगस्त, 1947 को पूरे हिन्दोस्तान के चरित्र में ही बदलाव आ गया (पाकिस्तान बन गया) तो ऐसे कानून की कैफियत क्या हो सकती है? अयोध्या मे  श्रीराम मन्दिर निर्माण आन्दोलन से घबरा कर 1991 में स्व. नरसिम्हाराव की सरकार ने जब यह कानून बनाया था तो उसकी नीयत साफ थी कि वह इतिहास में हिन्दुओं और भारतीयों के साथ हुए अन्याय को स्थायी भाव देना चाहती है। कोई भी गैरतमन्द कौम कभी भी नाइंसाफी को बर्दाश्त नहीं करती है। काशी में तो यह नाइंसाफी चीख-चीख कर अपना हलफिया बयान दे रही है और कह रही है कि मेरे ऊपर हुए नाजायज कब्जे को हटाया जाये और इसे इसके असल मालिकों के हवाले किया जाये।  अब काशी की अदालत ने साफ कह दिया है कि मुकदमा जारी रहेगा और दूध का दूध व पानी का पानी होकर रहेगा (इस फैसले की समीक्षा किसी और दिन करूंगा)। फिलहाल तो गंगा-जमुनी तहजीब के अलम्बरदारों के जगाने के लिए शंख नाद होना चाहिए।

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