सामाजिक समस्याओं के समाधान को जब राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति का साधन बना लिया जाता है तो क्या होता है, इसके अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं। सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण पर दिए गए अपने फैसले में इसकी अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत तय की थी। कोर्ट ने कहा था कि केन्द्र और राज्य सरकारें इस सीमा के भीतर अपने जरूरतमंद तबकों को आरक्षण प्रदान कर सकती है, लेकिन राज्य सरकारें बार-बार इस सीमा को पार करती हैं और मामला अदालतों में जाकर ठहर नहीं पाता। तमिलनाडु जैसे राज्यों ने आरक्षण की सीमा को नजरंदाज करते हुए 69 प्रतिशत आबादी को आरक्षण दे दिया है। तमिलनाडु की राह पर चलते हुए महाराष्ट्र, राजस्थान समेत कई राज्यों में भी आरक्षण 50 प्रतिशत के पार पहुंच गया है। महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर समग्रता से सुनवाई करने का फैसला किया है। कोर्ट ने सभी राज्य सरकारों को नोटिस जारी कर उनसे पूछा है कि क्या आरक्षण 50 फीसदी की सीमा को पर किया जा सकता है। अब राज्यों को बताता है कि क्या 50 फीसदी से ऊपर आरक्षण सही है या गलत। राज्याें के जवाब मिलने के बाद सुप्रीम कोर्ट इस मामले पर 15 मार्च से रोजाना सुनवाई करेगा। माना जा रहा है कि मराठा आरक्षण पर आने वाला सुप्रीम कोर्ट का फैसला एतिहासिक होगा, जिसका देश और राज्यों की राजनीति पर बड़ा असर पड़ेगा।
महाराष्ट्र में मराठा समुदाय की आबादी 30 प्रतिशत है। मराठाओं का महाराष्ट्र की राजनीति, ब्यूरोक्रेसी और अर्थव्यवस्था पर काफी प्रभाव है। मराठा समुदाय ने आरक्षण के लिए जोरदार आंदोलन चलाया था। महाराष्ट्र सरकार ने एक दिसम्बर 2018 को उन्हें राज्य की नौकरियों में 16 प्रतिशत आरक्षण दिया था। इस आदेश के बाद राज्य में आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत के पार हो गई थी, जिसके खिलाफ बाम्बे हाईकोर्ट में कई यचिकाएं दायर की गई थीं। बाम्बे हाईकोर्ट ने कई शर्तों के साथ आरक्षण की मंजूरी प्रदान कर दी थी, जिसके बाद इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की गई थी।
पांच न्यायाधीशों की पीठ ने कहा है कि जो मुद्दे सुनवाई के दौरान उठे थे, वे हैं कि क्या इंद्रा साहनी फैसला (मंडल आयोग केस) को एक बड़ी पीठ द्वारा पुनर्विचार की जरूरत है, क्या उक्त निर्णय मराठा आरक्षण के मुद्दे को कवर करता है, क्या 102वां संशोधन एसईबीसी के संबंध में अपनी सरंचना से राज्यों को वंचित करने वाले संघीय ढांचे को प्रभावित करता है। महाराष्ट्र सरकार का कहना है कि 102वां संवैधानिक संशोधन की व्याख्या के सिद्धांत का जो प्रमुख सवाल है यह सभी राज्यों की विधायी क्षमता को प्रभावित करेगा। जहां तक अनुच्छेद 338 बी का संबंध है, 14 अगस्त, 2018 को राष्ट्रीय आयोग का जनादेश देश के लिए पिछड़े वर्गों की पहचान करने के लिए था।
अनुच्छेद 342 ए को 14 अगस्त 2918 को राष्ट्रपति को सशक्त बनाने के लिए राज्यपाल के परामर्श से हर राज्य आैर केन्द्र शासित प्रदेश में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान करने और अधिसूचित करने के लिए संशोधित किया गया था। इसलिए यह कार्य 2018 के बाद से राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र से बाहर हो गया। अनुच्छेद 338 बी और 342 ए प्रत्येक राज्य की शक्ति को प्रभावित करते हैं। कोई भी राज्य 2018 के बाद किसी वर्ग को आरक्षण नहीं दे सकता। इसलिए महाराष्ट्र एक वर्ग को पिछड़े वर्ग के रूप में घोषित नहीं कर सकता।
मुद्दा बहुत गम्भीर है क्योंकि देश के 16 राज्यों में 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण है। केन्द्र सरकार के दस प्रतिशत ईडब्ल्यूएस को भी सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। तमिलनाडु में 69 प्रतिशत आरक्षण इसलिए बरकरार है क्योंकि तमिलनाडु में 50 फीसदी आरक्षण को संविधान की 9वीं अनुसूची में शामिल गया है। सम्भवतः महाराष्ट्र सरकार भी ऐसा ही करने के विकल्प पर विचार कर सकती है। सुप्रीम कोर्ट को मराठा आरक्षण के संबंध में उससे जुड़े तीन-चार बिन्दुओं पर फैसला लेना है। केन्द्र को भी अपना रुख स्पष्ट करना होगा। समाज को हमने जातियों, वर्गों में पहले ही बांट रखा है। यह भी सच है कि सभ्रांत और धनाढ्य मानी जाने वाली जातियां और समुदाय भी सरकारी नौकरियों में आरक्षण चाहते हैं। वोट बैंक खो देने के डर से लगभग हर राजनीतिक दल आरक्षण का गुबारा थमा देता है लेकिन जमीनी धरातल पर कुछ ठोस नहीं होता। अब सुप्रीम कोर्ट की बड़ी पीठ के फैसले का इंतजार रहेगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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