राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रीय दल - Punjab Kesari
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राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रीय दल

भारत की संसदीय लोकतान्त्रिक प्रणाली में मूल रूप से जिस त्रिस्तरीय प्रशासनिक प्रणाली में राजनैतिक दलों की भूमिका

भारत की संसदीय लोकतान्त्रिक प्रणाली में मूल रूप से जिस त्रिस्तरीय प्रशासनिक प्रणाली में राजनैतिक दलों की भूमिका निहित है स्थानीय आंचलिक से लेकर क्षेत्रीय व राष्ट्रीय दलों का अपना विशिष्ट महत्व है जिन्हें भारतीय संविधान के तहत अपने दायित्वों का निर्वाह करना पड़ता है और जनमत हासिल करके तीनों स्तर पर सुचारू प्रशासनिक तन्त्र देना होता है। इसमें सबसे ज्यादा महत्व राष्ट्रीय सरकार अर्थात लोकसभा चुनावों के माध्यम से प्राप्त किये गये जनमत का होता है। ये चुनाव सकल राष्ट्र की विविधीकृत सामाजिक व सांस्कृतिक संरचना को सम्बोधित करते हुए एकात्म व मजबूत राष्ट्र के उद्बोधन के साये में होते हैं अतः किसी भी राष्ट्रीय राजनैतिक दल के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि उसका अन्तर्राष्ट्रीय नजरिया क्या है क्योंकि किसी भी देश को वैश्विककाल व परिस्थितियों और राजनीति से जूझते हुए ही अपनी मजबूती व प्रगति की तरफ आगे बढ़ना होता है। 
1991 तक भारत में इस मोर्चे पर कोई संकट नहीं था क्योंकि सत्ता में पहुंची सरकार की जो भी विदेश नीति होती थी उसका समर्थन सभी क्षेत्रीय व राष्ट्रीय दल एकमत से किया करते थे। परन्तु इसी वर्ष आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू होने के बाद विदेश नीति के मोर्चे पर परिवर्तन आना शुरू हुआ विभिन्न राजनैतिक दलों के इस सन्दर्भ में भिन्न-भिन्न विचार भी सामने आने लगे। ऐसा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक गुटों व समूहों के बने नये गठजोड़ों की वजह से हो रहा था। इसका असर भारत की विदेशनीति पर भी पड़े बिना नहीं रह सका और कालान्तर में केन्द्र में सांझा सरकारों का दौर शुरू होने पर कुछ विसंगतियां भी सामने आयीं मगर उन पर सत्तारूढ़ प्रभावी राष्ट्रीय दलों (कांग्रेस व भाजपा) ने अपने-अपने सहयोगी दलों के बीच सहमति बनाकर पार पा लिया। मगर इससे स्पष्ट हो गया कि राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों की भूमिका केवल संख्यात्मक रूप से सत्ता मूलक समीकरण बैठाने में ही हो सकती है उनका अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपना कोई नजरिया नहीं है। अतः यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि 2024 के लोकसभा चुनावों को देखते हुए देश में विपक्षी एकता के जो प्रयास किये जा रहे हैं उनमें क्षेत्रीय दलों की क्या भूमिका होगी? क्योंकि ये चुनाव विशुद्ध रूप से राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों पर होंगे और इनमें भाग लेने वाले दलों के लिए किसी क्षेत्र विशेष की समस्याओं का मसला न होकर पूरे देश का मसला होगा।
 क्षेत्रीय स्तर पर हर राज्य की अपनी अलग- अलग समस्याएं हो सकती हैं जिनके निराकरण के लिए प्रादेशिक स्तर पर सरकारों का गठन होता है और वे अपने प्रदेश की भौगोलिक व सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार संविधान द्वारा प्राप्त अधिकारों के अनुरूप इनका निराकरण करती है और अपने राज्य के लोगों के कल्याण के लिए आवश्यक काम करती है परन्तु केन्द्र सरकार उत्तर से लेकर दक्षिण तक व पूर्व से लेकर पश्चिम और मैदानों से लेकर पहाड़ी राज्यों के समग्र विकास के लिए समग्र योजनाएं तैयार करती है और फिर उन्हें राज्य सरकारों के माध्यम से ही लागू करती है। जाहिर है ऐसा करने के लिए सत्ता में पहुंचे राजनैतिक दल का नजरिया भी व्यापक व सर्वग्राही होना चाहिए। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश की समाजवादी या बहुजन पार्टी दक्षिण भारत के तमिलनाडु से लेकर केरल तक के राज्यों के विकास के बारे में किस विकास ढांचे की परिकल्पना कर सकती है जबकि इन पार्टियों की सोच अपने राज्य में जातिगत गोलबन्दी पर आधारित है। यह बेवजह नहीं है कि भारतीय संविधान में कृषि से लेकर शिक्षा व स्वास्थ्य राज्यों के विषय बनाये हैं जिससे प्रादेशिक स्तर पर ही वहां के लोगों की मूलभूत समस्याओं का हल राज्य सरकारें कारगर ढंग से निकाल सकें। इसी प्रकार पूर्व की पार्टी बीजू जनता दल को उत्तर प्रदेश के बारे में क्या ज्ञान हो सकता है? 
हर प्रदेश की भौगोलिक स्थिति अलग-अलग है जिसकी वजह से उनकी समस्याएं भी अलग हैं परन्तु जब हम भारत को समग्र रूप में देखते हैं तो इसकी समस्याएं हर प्रदेशवासी के लिए एक समान हैं जो सम्पूर्णता में भारत के विकास और हर क्षेत्र में इसकी प्रगति से सम्बन्धित हैं जिसमें विदेश व्यापार से लेकर विभिन्न देशों के साथ सम्बन्ध भी आते हैं। जाहिर है श्रीलंका के साथ सम्बन्धों को लेकर दक्षिण भारत के राज्यों की अपनी चिन्ताएं हो सकती हैं परन्तु भारत सरकार को इस बारे में सकल वैदेशिक सन्दर्भों में सोचना होता है इसी वजह से विदेशी मामले विशुद्ध रूप से केन्द्र के हाथ में रखे गये हैं। यदि हम इस स्थिति का राजनैतिक रूपान्तरण करें तो भारत में फिलहाल केवल दो राजनैतिक दल ही हैं जिनका समग्रता में देशी व विदेशी मामलों में अपना विशिष्ट व व्यापक नजरिया है। ये दल स्वाभाविक रूप से कांग्रेस व भारतीय जनता पार्टी हैं। कांग्रेस भारत पर साठ साल तक राज कर चुकी है और भाजपा फिलहाल सत्ता में है। अतः क्षेत्रीय दलों के पास राष्ट्रीय राजनीति में अपनी भूमिका निभाने के लिए कोई और विकल्प नहीं बचता है सिवाय इसके कि वे या तो कांग्रेस के छाते के नीचे आयें या भाजपा के साये में रहें। मगर हाल ही में हमने देखा कि कुछ क्षेत्रीय दलों ने तेलंगाना के खम्माम में अपनी अलग खिचड़ी पकाने की कोशिश की। यह कोशिश तीसरे मोर्चे की तर्ज पर ही दिखाई पड़ती है जिसमें दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां भी शामिल हुई। 
भारत में कम्युनिस्ट पार्टी का सैद्धान्तिक विमर्श पूरी तरह गर्त में जा चुका है इस पर राजनैतिक पंडितों अब कोई विवाद नहीं है। अतः ऐसा कोई भी गठबन्धन जिसमें केवल क्षेत्रीय विमर्श को राष्ट्रीय फलक पर फैलाने का प्रयास हो राष्ट्रीय राजनीति में स्थान नहीं बना सकता। पूर्व में भी हमने देखा है कि किस प्रकार क्षेत्रीय दलों ने अपने राजनैतिक हितों के लिए राष्ट्रीय हितों की अनदेखी की है। इसके कई उदाहरण हैं जिनका लेखा-जोखा अवसर आने पर दिया जायेगा।

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